अकिञ्चन धर्मेन्द्र की कविताएँ

शिक्षा-एम.ए.,बी.एड.,यूजीसी नेट(हिन्दी).
सम्प्रति-अध्यापन.
प्रकाशन-व्यंजना, प्रेरणा,ग्रेस इण्डिया टाइम्स,डिप्रेस्ड एक्सप्रेस,विश्व-गाथा,छाप, नये पाठक,उपनिधि,क्रान्ति जागरण,स्वर्णवाणी,स्वतंत्र चेतना,अमर उजाला,दैनिक जागरण आदि पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित।
प्रकाशित-पुस्तक- ‘काव्य-सौरभ'(साझा काव्य-संकलन),अभिलाषा(साझा काव्य-संकलन).
लिप्यन्तरण/अनुवाद-लगभग एक दर्जन कविताओं का मैथिली-लिप्यन्तरण तथा नेपाली और गुजराती भाषा में चार दर्जन से अधिक कविताएँ अनूदित.
सम्मान/पुरस्कार-पं. दीनदयाल उपाध्याय जन्म शताब्दी समारोह समिति उत्तर प्रदेश द्वारा ‘प्रशस्ति पत्र’। उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान,लखनऊ द्वारा ‘प्रशस्ति पत्र’। राष्ट्रीय कवि चौपाल,बीकानेर(राजस्थान) द्वारा ‘राष्ट्र-भाषा गौरव सम्मान-2019’ तथा अनेक साहित्य व साहित्येतर कार्यक्रम-मञ्चों पर पुरस्कृत एवं सम्मानित।
सृजन-विधा- गीत,नवगीत,मुक्तक,कविता,नई कविता विधा में डेढ़ दशक से निरन्तर साहित्य-साधनारत।
सम्पर्क सूत्र-8948345258,9919632401.
Email-dharmendraksg5@gmail.com.
【पिता 】
पिता साठ साल की ‘उमर’ में भी
‘भोरहरी’ उठकर…
‘दिशा-मैदान’ निपटने के बाद…
खेत से लादकर लाते हैं-
चरी का बोझ..’मूड़े’ पर..!
अकेले ‘मुट्ठा’ लगाते हैं..!
मशीन ‘ऐंचते’ हैं..!
गोबर उठाते हैं..!
‘गैय्या’ खिलाते हैं..!
‘द्वारा-बुहारा’ करते हैं..!
फिर
लोटे में पानी रखकर
जब द्वार पर
दातून करने बैठते हैं…
घर के सामने से निकल रहे…
‘पछुवा-टोला’ के ‘महतो’ से
हाल-चाल शुरू हो जाता है..;
अपने आप..!
“पिता बोलते बहुत हैं..!”
‘घर-बाहर’..
‘खेत-पात’ करने के बाद..
जब लेटते हैं-
‘दुपहर’ में
खटिया पर..,
‘पीठ लगाने’ के लिए..,
‘घरी’-भर..;
“पिता दिन-भर पड़े रहते हैं..!”
बहुत ‘हुरियाने’ पर
जब बाज़ार को
सब्ज़ी लाने जाते हैं…
तो लौकी के बज़ाय
कटहल ले आते हैं..;
कुर्ते के नीचे की ‘फतुही’ में
डेढ़ ‘रुपिया’ बचा देखकर..!
“आज
‘लरिके-बच्चे’
‘थोरी’ मँहगी सब्जी खा लेंगे..!”
पिता लौंग लेने गए..
तो इलायची भी ले आए..!
चीनी लेने गए..तो दाल..!
“पिता भूलते बहुत हैं..!”
पिता ‘गृस्ती’ का बोझ
थोड़ी देर के लिए
गमछे से पोंछकर..
निकल जाते हैं-
मामा..मौसा..फूफा के घर..;
अभी भी
‘नात-रिश्तेदारी’ की
आत्मीयता…;
सम्बन्धों की
गर्माहट को महसूस करते हुए..!
“पिता घुमक्कड़ हो गए हैं..!”
घर में
इधर-उधर पड़े
फटे-पुराने कपड़ों को जलाने पर…
निकाल ही लेते हैं-
ढेर में से कोई न कोई चीथड़ा..;
“यह कपड़ा अभी मज़बूत है..;
किसी काम आ सकता है..!”
पिता टूटी हुई चप्पल को
तीन-तीन बार सिलाते हैं..!
“पिता दरिद्र होते जा रहे हैं..!”
पिता अम्मा का कहा नहीं मानते..!
पिता छोटे भाई पर घुड़क उठते हैं..!
पिता बुलाये जाने पर
गाँव के किसी झगड़े का
निपटारा कराने के लिए…
सही-सही कह देने पर
पीठ पीछे ‘गारी’ खाते हैं..!
पिता झूठ बोलना नहीं जानते..!
पिता कपट करना नहीं जानते..!
पिता पैसा कमाने में पीछे हैं..!
पिता सीधी बात
सीधे-सीधे कह देते हैं..!
“पिता एकदम बेवक़ूफ़ हैं..!”
पिता ज़िन्दगी-भर
घर-परिवार..
‘टोला-टाटी’..
गाँव-जँवार..
सबकी अपेक्षाओं पर
खरा उतरते-उतरते…
सबके मन का
न कर पाने पर…
गरियाने लगते हैं-
स्वयं को..;
झुँझलाते हुए..!
पता नहीं-
कौन-सा दर्द लिए..;
बिसूरते रहे-
रात-रात भर..;
चुपचाप!
पिता को
जब-जब नहीं समझा गया..;
बबूल की छाल हो गए..!
【माँ 】
नौ महीने तक
कोख में
सिरजते..पालते हुए…
बरसात के दिनों में
खेतों में…
घुटने-घुटने तक
कीचड़ में…
झुककर…
धान लगातीं माँ..!
बचपन में
मुझे दस्त बहुत आने के कारण…
महीनों तक
झाड़-फूँक…
डॉक्टर-वैदों के यहाँ
जेठ की
तपती दोपहरी में…
नंगे पैर
बदहवास भागतीं माँ..!
आटा गूँथते समय ही
मेरे रोने पर…
तसले को
कपड़े से ढककर..
चुप करातीं…
दूध पिलातीं माँ..!
खाना बनाने में
दो मिनट भी
देर हो जाने पर…
बाबा से
उल्टा-सीधा सुनतीं…
टप-टप आँसू गिरातीं..
आँचल से पोंछतीं…
रोटी सेंकतीं..बढ़ातीं माँ..!
बचपन में
छोटी-छोटी बात पर
गुस्सा होने…
खाना
न खाने की ज़िद पर..
मेरे रोने पर…
अचानक रोने लगतीं माँ..!
गर्मी में
तालाब में…
पानी कम होने..सूखने पर..
लायी गयी
चिकनी मिट्टी से पुते
चौके में बैठीं..,
रोटी सेंकतीं..;
धुएँ में
फुँकनी से
चूल्हा फूँकतीं माँ…
मना कर देती हैं-
पीढ़े पर बैठे
चुपचाप
खाना खाते समय..,
और रोटी माँगने पर…;
फिर
तुरन्त निकली
गरमा-गरम
एक समूची रोटी के…
चिमटे से
दो टुकड़े करके…
बढ़ा देतीं हैं-
बड़ा वाला हिस्सा..!
पिता के
बिस्कुट..नमकीन..
मिठाई लाने पर…
रख देती हैं..;
सन्दूक में कपड़ों के तले
लुकुवाकर-
“पहुना-पही आ गए..तो का दूँगी..?”
फिर खेत को
मकई निराने जाते समय…
कह जातीं हैं-
“कुछ खाने का मन करे..तो..
निकाल लेना..थोड़ा..;
सन्दूक खोलकर
पियरकी धोती के नीचे से..!”
घर में
चावल-दाल
रोटी-सब्जी
सब कुछ..बना होने पर भी..;
छोटे भाई के
खाना खाते समय
हल्ला मचाने पर…
उठकर…
अधनींद में
सिलवट पर
चटनी पीसतीं माँ..!
बुढ़ापे में
पतोहू की उपेक्षा…
पोते को न छू पाने को
तरसतीं..;
प्रतिबन्ध में जीतीं माँ..!
पहर रात पहले से ही
पहर रात गए तक…
हाड़-तोड़ काम करतीं…
चक्की की तरह भागतीं…
अपने ही पैदा किए
लड़कों का गुस्सा…
पिता की गाली सुनतीं…
आधी रात गए
कथरी में मुँह ढाँपे..
चुपचाप सुबकतीं..
बिसूरतीं माँ..!
सावन के झूला..
होली..देवारी..
तीज-तेवहार..राखी..
नैहर..मेला..
सब कुछ बिसार कर…
दिन-रात
व्याकुल…
बेसुध…
बदहवास…
न जाने किन
सुधियों..स्वप्नों को
सँजोती..गढ़तीं…
गुड़ की ढेली-सी
जीवन में
मिठास घोलतीं..पिघलतीं माँ..!
कुछ भी हो…
मैं
माँ पर
कविताएँ नहीं लिख सकता..!
【गीत 】
अपनेपन की थाह न रखी,
सम्बन्धों के अवबोधों में;
फिर भी कुछ-कुछ अभिमानी थे;
गीत हमारे व्याकुल,उत्कट-से लौटे।
जितने सपने पाले हमने,
मिट्टी का वरदान कर दिए।
आशाओं के अंकुर सारे,
अन्धकार को दान कर दिए।
जीवन की परवाह न रखी,
अथ-इति के झूठे शोधों में;
सारे वादे बेमानी थे;
गीत हमारे जाकर मरघट से लौटे।
रोती होगी तृप्ति अभागी,
मल्लाहों के समीकरण में।
नौकाओं के व्यंग्य-बाण में,
कुछ प्यासों के वशीकरण में।
पर होठों पर आह न रखी,
शैवालों के प्रतिरोधों में;
कुछ बेबस थे,कुछ मानी थे;
गीत हमारे वापस पनघट से लौटे।
मधुरिम-मुस्कानों को तन्मय-
बेसुध अन्तःकरण चूम लें।
तुम कह दो तो निश्छलताएँ,
सुरभित-रक्तिम चरण चूम लें।
हमने कोई चाह न रखी,
द्वारे के उन अवरोधों में;
आँसू आँखों के,दानी थे;
गीत हमारे जब-जब चौखट से लौटे।।