अपनी अपनी दीवाली

तेज प्रताप नारायण

दीवाली वैसे तो उजाले का त्यौहार है जिसमें हर कोई अपने घर में उजाला फैलाने का प्रयास करता है ,यह अलग बात है कि कइयों की मेहनत शार्ट सर्किट हो जाती है और उनके घर में अंधेरा ही रहता है ।लगता है सूरज देवता उनके घर को ब्लैक होल बनाकर रखना चाहते हैं ।अब सूरज को 5000मिलियन वर्ष बाद ठंडा हो जाना है और ब्लैक होल बनने की संभावना कम है तो हो सकता है वह इंडिया में घरों में अंधेरा करके ब्लैक होल पर प्रयोग कर रहे हों । बस यह ब्लैकहोल थोड़े अलग है यह रोशनी को रोकते नहीं हैं बल्कि रोशनी को आने ही नहीं देते हैं । रोशनी रोकने वालों को यहाँ ब्लैक होल नहीं बल्कि अलग अलग नामों से जाना जाता है ,आप ख़ुद ही समझ लीजिएगा ।

वैसे दीवाली में कइयों का दीवाला भी निकल जाता है ।जैसे इस बार मिठाई वाले ,लोग डर डर के मिठाईयां खरीद रहे हैं कि कुछ मीठा हो जाने के बहाने कोरोना न हो जाये ।कुछ लोग दीवाली में जुआ खेलते वक़्त अपना दीवाला निकाल देते हैं ।

पहले कहा जाता था कि जो आप दीवाली के समय करेंगे ,वैसा ही पूरा साल होता रहेगा ।इस कारण से बचपन में हम लोगों को डांट -डपट कर पढ़ने बिठा दिया जाता था जिससे साल भर पढ़ते रहें और हम लोग लालटेन या लैंप की रोशनी ज़ोर ज़ोर से पढ़ने लगते थे ।

यूँ कह सकते हैं ,उस समय रात में गाँव पूरा का पूरा ब्लैकहोल हो जाता था ।दीवाली में ज़रूर दियों की रोशनी अँधेरे से लड़ते-लड़ते सो जाती थी । छोटे- मोटे चोर भी दीवाली के समय रात के वक़्त कुछ हाथ मारने के प्रयास में रहते थे ।बड़े चोर तो दिन दहाड़े ही हाथ मार सकने में सक्षम हैं चाहे वह पहले के हों या अब के ।

वैसे दीवाली का लोकपक्ष तो यह है कि अन्य फसलों की तरह यह एक फसली त्यौहार है ।इस समय धान की कटाई और दंवाई लगभग ख़त्म हो चुकी होती है ।पहले इस समय तक दंवाई चलती थी क्यों कि मशीनें नहीं थी ।खेत मे काटिए ,फिर छोटे छोटे गट्ठर बनाकर बैलगाडी या सिर पर ढोईये और फिर खलिहान में बैलों से उसकी दंवाई करिए और फिर जब हवा चले तो उसे ओसाइये (धान को अलग करने की विधि) ।घर के बाहर और भीतर अलाव जलाना भी शुरू हो जाता था इस वक़्त तक । और यही वक़्त है जब गेहूँ को बोने का प्रोसेस भी शुरू हो जाता है । जैसे जुताई करके,पलेवा करके खेत को गेहूँ बोने के लिए तैयार करना ।

इसी बीच मानो प्रकृति, दीवाली के रूप में आकर किसान संस्कृति को निहारना चाहती हो ।जैसे देखना चाहती हो उस अर्जक समाज को जो सूरज के क़दम से क़दम मिलाकर बढ़ता रहता है ,जाड़ा, गर्मी या बरसात में जागता रहता है जिससे पूरे समाज को अन्न मिल सके ।

धान देकर किसान,कुम्हार के यहाँ से दीया ले आता है तो हलवाई के यहाँ से मिठाई
या गल्ले वाले के यहाँ धान बेचकर पैसे ले लेता है । गोवर्धन पूजा या अन्न कूट का मनाया जाना ही इसे फसल के त्यौहार से जोड़ता है ।भैया दूज के दिन नए धान से निकला हुआ चूअड़ा या चूड़ा और शकर की बनी हुई भुरकी (गोल आकार की) को प्रसाद के रूप में दिया जाना भी इसे फसली त्यौहार के रूप में प्रतिस्थापित करते हैं ।

दीवाली को राम के अयोध्या वापस आने के मिथक से भी जोड़ कर देखा जाता है ।बचपन मे हम लोग जुताई किये हुए समतल खेतों में ही खेल खेल में ही रावण को मार देते थे ।रावण के बारे में तब इतना जजमेंटल जो थे हम सब लोग । वैसे जजमेंटल होना हमेशा बुरा होता है ।कोई होता कुछ और है लेकिन समझ कुछ और लेते हैं ।कृष्ण द्वारा नरकासुर के वध का मिथक भी इससे जुड़ा है जब कृष्ण नरकासुर को मारकर 16000 स्त्रियों को मुक्ति दिलाते हैं ।वहीं धनतेरस को धन्वंतरि जिन्हें आयुर्वेद का देवता कहा जाता है के जन्म पर धन तेरस का मनाना भी लोग मानते हैं ।

ऐतिहासिक रूप से दीवाली को दीप दान उत्सव के रूप में मनाने की परंपरा की शुरुआत अशोक के ज़माने में 258 B C में हुई । गौतम बुध्द ने अप्प दीपो भव स्वयं ही कहा है ।

सिख इसे बंदीछोड़ दिवस के रूप में मनाते हैं, जब छठवें गुरु हर गोविंद सिंह जी को जहाँगीर की क़ैद से मुक्ति मिली थी ।

तमिलनाडु में दीवाली कार्तिकेय दीपम के रूप में मनाई जाती है ।तो वहीं उत्तर पूर्व के मूल निवासी इसे नहीं मनाते हैं जो बाहर से लोग वहाँ रह रहे हैं वे ज़रुर मनाते हैं।

समाज और क्षेत्र के अनुसार दीवाली की अलग -अलग मान्यताएं हैं लेकिन एक चीज़ हर जगह कॉमन है वह उजाला फैलाने की बात ,अज्ञान के अंधेरे से मुक्ति की बात ।

वैसे अपने अपने तरीके से हर किसी को दीवाली मनाने या न मनाने का हक़ है ।बस यह न हो जाये कि दीवाली मनाने के बहाने आप ख़ुद का या किसी और का दीवाला निकाल दें। जैसे जब दिल्ली और पूरा देश कारोना से जूझ रहा है ।लोगों की सांसे फूल रही हैं तो दीवाली मनाने की आज़ादी के बहाने आप पटाखे फोड़ फोड़ के देश के lungs को और न ख़राब कर दें ।यह आज़ादी नहीं बल्कि बदतमीज़ी कहलाएगी ।
सब मनाइए अपनी अपनी दीवाली और फैलाइये हर ओर ख़ुशहाली ।

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