आलोक सिंह की कविता ‘इंसां ढूंढ रहा हूँ’
उजियारों से अन्धियारों तक रस्ता ढूंढ रहा हूँ
थोड़ा तुममें थोड़ा खुद में इंसा ढूंढ रहा हूँ
राहों की उड़ती धूलों में
बचपन की भोली भूलूं में
रस्ता ढूंढ रहा हूँ
उजियारों से अन्धियारों तक रस्ता ढूंढ रहा हूँ
नानी की वह किस्सों वाली
खुद के ही कुछ हिस्सों वाली
सब है एक रंगी तो देखो
ऐसी हसरत बच्चों वाली
नफरत के आगे चलती वह
प्रेम की राहें ढूंढ रहा हूँ
उजियारों से अन्धियारों तक रस्ता ढूंढ रहा हूँ
कठिन है माना मार्ग सत्य का
फिर भी चलना अच्छा
झूठ के आगे जो झुक जाए
कैसा है वह सच्चा
मुस्कानों का व्यापार यहां अब
सहमा है हर बच्चा
माना मैं हूं पागल गुमशुद
जो सूरज ढूंढ रहा हूँ
उजियारों से अन्धियारों तक रस्ता ढूंढ रहा हूँ
थोड़ा तुम मैं थोड़ा खुद में इंसा ढूंढ रहा हूँ ।