कबीर की कबिताई याकि एक उजियारी कोठरी

यह बड़ी ही विलक्षण बात है कि धुँधवेला में विचार शिशु तारिकाओं की तरह क्रीडित होते हैं | उनमें  न तो भविष्योंमुख प्रदीप्ति होती है और न ही रश्मिपुन्जों की सघनता | किन्तु वे विरल माध्यमों में बड़ी तीव्र गति से संचरण करते हैं | उनके पास धुँध को लुप्त करने की अद्भुत शक्ति होती है | वे अध्यात्म में ईश्वर की साक्षात् योग-मूर्ति हैं और अनाध्यात्म में मोह-मुक्त असरस, निष्ठुर प्रत्यय | इसीलिए अज्ञेय विचार और भाव के बीच में बहुत सूक्ष्म गहरे अंतर व संबंधों की बात करते हैं | उनके लिए विचार और भाव दो अलग तथ्य व सत्य नहीं हैं, अपितु एक पारिजात के दो खिले हुए पुष्प हैं, उनमें अंतर केवल अनुप्रयोगों और अनुभूति का है | एक क्षण के लिए यदि दोनों को एक चिदणु मान लें, उसके वलय में द्वंद्वात्मक क्रिया से उत्पन्न दीप्ति अनुभूति के अधिक सन्निकट होगी |  आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इसी अनुभूति के द्वंद्व से प्राणी जीवन का आरम्भ माना है | उनके लिए ह्रदय की अनुभूति लोक से अलग नहीं है | इस लोक शब्द को समझने की आवश्यकता है | लोक शब्द ऋग्वेद में जन,स्थान,दृष्टि आदि के रूप में आया है| यह सर मोनियर विलियम्स के शब्दकोष में भी है| लेकिन अभिनव गुप्त के यहाँ (लोको नाम जनपदवासी जनः) ‘जनपदीय समुदाय ही लोक है’ के संदर्भ में प्रयुक्त हुआ है| प्रारंभ से ही लोक दो पदों के अर्थ में ही प्रयुक्त होता रहा है| पहला-दार्शनिक पद के लिए जैसे – इहलोक ,परलोक, पाताललोक आदि | दूसरा ग्रामीण रीतिरिवाजों,रुढियों, अन्धविश्वासों आदि | लेकिन हिंदी में लोक फोक (folk) का अनुवाद है| लोक में शास्त्र मत मिला होता है |ग्राम्सी लोक को आलोचनात्मक दृष्टि से देखने का आग्रह करते हैं |उनका मानना है कि प्रत्येक वर्ग का अपना लोकमत(कॉमन सेंस) होता है और साधुमत (गुड सेंस) भी ,जो उसकी विश्वदृष्टि भी है | यद्यपि लोकमत के निर्माण में धर्म की महत्वपूर्ण भूमिका होती है लेकिन वह मुख्यतः जनता के इन्द्रियबोध और अनुभव से बनता है ,इसलिए उसमें भौतिक तत्व की प्रधानता होती है और यथार्थपरकता की भी |

               कबीर के काव्य में लोक प्रत्यक्ष -अनुभविक संसार के लिए प्रयुक्त हुआ है| उनका लोक वैदिक साहित्य का लोक नहीं है | यह उसका क्रिटिक है |लोकायतन दर्शन के ‘प्रत्यक्ष’ प्रमाण की तरह वह भी  प्रत्यक्ष प्रमाण में विश्वास करते हैं | अनुभविक-जगत की सत्ता ही उनका लोक है |इस जगत  से बाहर न तो कोई ईश्वर है और न कोई लोक | अनुभवक्षेत्र से बाहर किसी सत्ता या लोक पर विश्वास करने का अर्थ है कि इहलोक अर्थात दृश्य जगत की सत्ता को अस्वीकार करना | अनुभविक जगत से कटाव ज्ञाता और ज्ञेय, दृष्टा और दृश्य  के सम्बन्ध को रहस्यात्मक बनाता है | हालाकि कबीर  ईश्वर और भक्त के बीच दूरी का कारण माया अर्थात अविद्या बताते है | यह अविद्या भक्त और ईश्वर को एकाकार नहीं होने देती |
           कबीर के यहाँ लोक का कोई अलग से विचार नहीं मिलता | पदों में ईश्वर और भक्त के सम्बन्ध को समझाने के लिए उन्होंने लोक से बिम्ब और प्रतीक ग्रहण किया है  |यही योजना कबीर के लोक को समझने में मदद करती है |बहरहाल कबीर का लोक गंगा नदी के तट पर अवस्थित गाँव के रूप में मिलता है,गाँव में घर मिट्टी से बने हुए हैं ,उन पर छप्पर पड़ा हुआ है  | यही मिट्टी से बने घर कबीर के चिंतन के केंद्र में है|  भक्त कवियों में गवई-गंध का यथार्थ, समयसापेक्ष और भौतिक चित्रण देखने को कम मिलता है|   हालाकि तुलसीदास ने  गाँव का चित्रण करते समय इस बात का ध्यान दिया है, लेकिन उनके यहाँ लोक अनुशासनबद्ध है |शायद यह उनके  आदर्श और अनुशासनबद्ध जीवन के कारण हुआ हो | वह लोक का जिक्र करते समय अपनी इस प्रवृत्ति को नहीं छोड़ पाए |इस मायने में सूरदास तुलसी से आगे हैं| लोकधर्म और शास्त्र में से उनका झुकाव लोकधर्म की ओर है लेकिन तुलसीदास के यहाँ लोक और शास्त्र में समन्वय है |इस द्वय प्रणाली में  कबीर सबसे आगे हैं , वह लोक को काव्य के लिए सामग्री जुटाने जैसा साधन नहीं बनाते  बल्कि लोक को गहरे अनुभव से जीते हैं| लोक और शास्त्र में से वह लोक का चयन करते हैं| शास्त्र को अस्वीकार करने का अर्थ है –क़ुरान,वेद आदि धार्मिक ग्रंथों तथा उनके कट्टर अनुयायियों का अनादर करना है| इस तिरस्कार और अनादर का भाव कबीर में ही संभव है अन्य भक्त कवियों में नहीं | बहरहाल उनका काव्य लोक-संपृक्त है | गाँव में बाभन, क्षत्रिय , बनिया, धोबी, कुम्हार, बरई, केवट, कहार, मुसलमान जैसी छत्तीस कौमें हैं; परन्तु इन कौमों में किसी तरह की रंजिश नहीं हैं ,न ही किसी तरह का वर्ग विभाजन |सभी कौमें भौतिक शरीर (क्षिति, जल, पावक, गगन, समीर) और गुणों (सत,तम और रज) से निर्मित हैं जिन्हें अपने कर्म और ज्ञान के बल पर मनुष्यत्व  की ओर आगे बढ़ना है | कबीर के इसी लोकधर्म को आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने मनुष्यधर्म  का विकास बताया है | इन कौमों के अतिरिक्त गाँव का व्यक्ति या तो शिल्पकार है या किसान | वह बेकार बैठा नहीं | किसान खेती करता है |पशुओं को पालता है | कुत्ता, बकरी, भेंड़, घोड़ा, गाय आदि उनके पालतू पशु हैं | महुआ, आम जैसे तमाम छायादार और रेंड जैसे नाजुक लकड़ियों वाले पेंड़ हैं | कबीर के इस लोक में सावन के महीने  में पेंग भरते हुए झूले, धान की खेती करता हुआ किसान, ताल में पुरइन के पत्ते, कमल या कुमुदनी खिलती हुई मिल जाएगी |मलयानिल के चन्दन की तरह सुगन्धित शीतल वायु गाँव को शीतलता प्रदान कर रही होगी | गाँव चोर–डाकुनों के  भय से मुक्त है | जाड़े के दिनों में देर साँझ तक जागते हुए बच्चों तथा गाँव के सिवान से भूकते हुए कुत्तों को सुनकर  कबीर का ह्रदय आह्लादित हो उठता है | सिवान में भूंकते हुए कुत्तों से चोर के आने का अनुमान लगाकर वह प्रसन्न होते हैं | कबीर  के लिए चोर  भगवान का रूप है| इसलिए चोरी करने वाले व्यक्ति के प्रति किसी तरह का कलुषित भाव नहीं है| गायत्री स्पीवाक ने “कैन सबाल्टर्न स्पीक” में चोर जैसी संज्ञा को पहचान (आइडेंटिटी )के रूप में चिन्हित किया है| उनका मानना  है कि चोर ,डाकू ,आतंकवादी जैसे शब्दों का इस्तेमाल कर हम किसी विशेष व्यक्ति को एक खास तरह की पहचान निर्मित करते हैं | कबीर इस तरह की आइडेंटिटी के प्रति सजग रचनाकार हैं, किन्तु उनके यहाँ प्रयोग दूसरे अर्थ में है –
                              खिन कूँट जब सुनहा भूँका,तब हम सगुन विचारा
                              लरके-परके सब जगत हैं ,हम घर चोर पसारा हो राम
     कबीर के लोक में केवल किसान या शिल्पकार ही नहीं हैं; बल्कि  महुए की शराब बनाने वाले लोग भी हैं | हाल ही में बिहार सरकार ने महुए की शराब को पूर्ण प्रतिबन्धित कर महुए द्वारा उतारी जा रही शराब को अपराधिक मामलों  में गिना है | इन संगीन और अपराधिक काम करने वाले व्यक्तियों के शराब बनाने जैसी कला को स्वीकार करते हुए कबीर ने इसे आत्मा और परमात्मा के रूपक के रूप में प्रयोग किया है   –
                               गुड़ करिज्ञान ध्यान करि महुआ
                         भव भाठी करि भारा
बरसात का दिन लोक के लिए भयावह है |आकाश में उठते हुए जिन काले बादलों को देखकर महानगरों में बसने वाले बारिश- प्रेमियों का ह्रदय  आनंद से सराबोर होने लगता है ,उन्ही बादलों को देखकर गाँव के लोग भयभीत हो जाते हैं | उनके लिए हर क्षण मौत मुँह बाये  हुए बैठी रहती है | घर गिरने का डर, साँप, बिच्छू, गोजर,आदि के घर में घुसने का डर छावनी-छप्पर  के टूट जाने का डर आदि हमेशा बना रहता है |बरसात के दिनों में कबीर का ह्रदय भयभीत हो जाता | यह लोक के अधिक निकटता  के कारण संभव हो सका –
                             इब न रहूँ माटी के घर मैं
                             इब मैं जाइ रहूँ मिली हरि से
                             छिनहर घर अरु झिरहर टाटी
                             घन गरजै कापै मेरी छाती |  

            बहरहाल कबीर  लोकजीवन के कवि हैं| लोक के रीति-रिवाज़ से वाकिफ हैं, उन्हें परिवार के टोटेम की समझ है | उनके काव्य में प्रयुक्त कृष्ण,राम,शिव, आदि को ईश्वर के रूप  में न देखकर टोटेम के रूप में देखा जाना चाहिए| हालाकि टोटेम मानने से एक कठिनाई भी है | लोग अपने-अपने टोटेम के प्रति कट्टर होने लगेंगे और संगठनवाद का विकास होगा | कबीर के समय में हिन्दू और मुस्लिम दो बड़े मज़हब के लोग थे; धर्म का केन्द्रीयकरण बढ़ता जा रहा था जिसके कारण हिंसा व साम्प्रदायिकता का उभार तेज़ी से हुआ| कबीर ने इस धर्म के केन्द्रीकरण को तोड़ते हुए विकेंद्रीकृत किया तथा जनसामान्य को  मनुष्यत्व की ओर अग्रसर होने का सन्देश दिया | गंगा जल से प्राप्त पवित्रता को ठुकराया और गंगा स्नान के लिए जाने वाली उन कुलीन महिलाओं पर तंज कसा जो घर में परपुरुष की अस्पृश्यता से बचती हैं –
                   चली है कुलबोरनी गंगा नहाय
                   सतुवा करा इन बहुरी भुंजाइन ,घूँघट ओटे भसकत  जाय
                    गठरी बांधिन,मोटरी बांधिन ,खसम के मुंडे दिहिन धराय
                     बिछुवा पहिरिन औंठा पहिरिन ,लात खसम के मारिन धाय
                    गंगा न्हाइन जमुना न्हाइनउ नौ मन मैल लिहिन चढ़ाय
                     पांच-पच्चीस कै धक्का खा इन ,घर हूँ की पूंजी आई गँवाय  

लोक  में विवाह के अपने अपने संस्कार हैं| कबीर  मुसलमान होते हुए भी हिन्दुओं के  वैवाहिक संस्कार से भलीभांति परिचित हैं |  बारात का आगमन, द्वारपूजा, मंगलाचार आदि हिन्दू संस्कार से ग्रहण करते हुए कबीर आत्मा और परमात्मा के मध्य माधुर्य भाव को स्वीकार करते हैं | शादी के बाद बारात का कोई अर्थ न रह जाना या दुल्हन की विदाई का विनोदात्मक जिक्र  कबीर को लोक से मिला हुआ है | इसे सीखने के लिए वह किसी पंडित के पास नहीं गये |  पति- पत्नी के बीच प्रेम का  ऐसा मनोहर जिक्र शायद ही किसी भक्त कवि ने किया हो-
                        दिन दस नैहर खेली ले ,ससुर निज भरना
                        बहियाँ पकरि पिय ले चले ,तब उजर न करना
                        एक अंधियारी कोठरी ,दूजे दिया न बाती
                        लेहीं उतारी ताहीं घरां,जहाँ संगि न साथी

दुल्हन की चुनरी मायके में गन्दी हो गयी है | उस चुनरी को धोने वाला कोई धोबी नहीं है और न ही कोई दूसरी चुनरी | एक ही  चुनरी है| यह लोक में व्याप्त दरिद्रता को भी दर्शाता है | बहरहाल दुल्हन की इस दागी चुनरी पर ससुराल के लोग व्यंग कर रहे हैं | यह व्यंग विनोदपूर्ण है जोकि लोक में ही संभव है, उससे बाहर नहीं –
                             नैहर में दाग लगाय आय चुनरी
                              ऊ रंगरेजवा कै मरम न जनै,
                             तन कै कुण्डी ज्ञान कै संदन
                              साबुन महंग  बचआय न नगरी
                             पहिरी ओधिके चली ससुरारिया
                             गाँव के लोग कहत हैं बहुत है फुहरी …
कबीर को फागुन का महीना अधिक पसंद है | वह उसके लिए उत्साही हैं  –
                       ऋतू फागुन नियरानी ,कोई पिया से मिलावे
                       पिया को रूप कहाँ लग बरनुं ,रुपहिं मांहि समानी

           वर्तमान  भारत में तीव्र शहरीकरण के विकास के कारण  लोक संस्कृतियाँ विलुप्त होती जा रहीं हैं |कबीर के पदों को गाने वाले लोग धीरे –धीरे शहर की ओर बसते चले गये या जो  गाँव में  बचे भी हैं उनके अन्दर लोक को लेकर पहले जैसी अनुभूति नहीं रह गयी | कहने का अर्थ है कि अंतर्विरोध के कारण लोकधर्म के मूल्यों के बीच कबीर को बचाए रख पाना मुश्किल हुआ है | इन सब कठिनाइयों के बावजूद कौशाम्बी जिले के चरवा नामक गाँव में प्रभात फेरी के समय  तथा बीहड़ ग्रामीण इलाकों में कबीर के पदों को अपनी भाषा में बदलकर आज भी लोग  गाते हैं | इधर 2010 ई. के बाद उग्रवाद का उभार तेज़ी से हुआ जिसके कारण सामूहिक हिंसा, धर्मान्धता, कट्टरता आदि का फैलाव हुआ है और भारत को  पूर्ण सांस्कृतिक राष्ट्र बनाने की कोशिश की जा रही है | ऐसे समय में कबीर अधिक प्रसांगिक हो जाते हैं | उनके विचार अँधेरी गुफा में मशाल का काम करते हैं और उससे एक ऐसा दीप्तिलोक रचते हैं जिससे मनुष्य का पथ आलोकित हो जाता है | इसीलिए वे मानव चित्त के अग्रगामी प्रणेता हैं |

सुशील द्विवेदी
सम्पादन एवं स्वतंत्र लेखन
नई दिल्ली- 110025
सम्पर्क- susheeld.vats21@gmail.com

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