कविता

 कविता

देखा
गद्य में भी पद्य में भी
सभी लिपियों के मध्य में भी
हाव में भी भाव में भी
शहर में भी गाँव में भी
साज सब ताल भर देखे
गवैया गाल भर देखे

घास को बढते देखा है
गाय को चरते देखा है
आग को बरते देखा है
सूर्य की तपती किरनों से
नीर को हरते देखा है
मोर भी चाल भर देखे
तलैया ताल भर देखे

समुन्दर के अथाह जल में
तरंगिनी होती लय जिसमें
न होता कुछ इसके वश में
नाव डगमग- डगमग होती
बढी जाती है पल-पल में
हवा भी पाल भर देखी
मछलियां जाल भर देखी

बारिशों का भी जल देखा
खेत में चलते नल देखा
फसल को भी फलते देखा
कृषक को आधी रातों से
चलाते हमने हल देखा
उपज को दाल भर देखा
गुजारा साल भर देखा

भैंस को दुहते देखा है
दही को मथते देखा है
कि मट्ठा बंटते देखा है
सुबह से काम रत माँ को
रात तक खटते देखा है
रिस्ता प्यार भर देखा
गाँव संसार भर देखा

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