काग़ज़ के फूल : कला का माउंट एवरेस्ट

 काग़ज़ के फूल : कला का माउंट एवरेस्ट

लेखक : संजीव कुमार गंगवार

प्रकाशन: बोध रस प्रकाशन

समीक्षा: तेज प्रताप नारायण

काग़ज़ के फूल : कला का माउंट एवरेस्ट

पिछले दिनों अमजद ख़ान का एक छोटा सा इंटरव्यू देखा था, जिसमें अमजद ख़ान का कहना था कि 3 घंटे में जो दर्शक फिल्म देखने आता है उसे यथार्थ से अलग सपनों की दुनिया दिखाया जाना चाहिए जिससे वह अपने दुख दर्द भुलाकर थोड़े समय के लिए ही सही अमीरी,सुख आदि के साथ रह सके । अमजद ख़ान के शब्दों को थोड़ा सा व्याख्यायित करें तो लगता है फ़िल्मों में लफ्फाज़ी ज़्यादा ज़रूरी है ।

बिल्कुल इन्हीं दिनों मैं संजीव कुमार गंगवार की किताब ” “कागज़ के फूल-ए डिवाइन जर्नी ऑफ एन आर्टिस्ट” भी पढ़ रहा था और गुरुदत्त की फिल्मों के साथ रूबरू होने की कोशिश कर रहा था । उनके कला पक्ष और भाव पक्ष को समझने की कोशिश कर रहा था।

सच कहूं तो संजीव जी की किताब ने गुरुदत्त जी और उनकी फिल्मों के बारे में जानने की उत्सुकता बढ़ा दी।

संजीव जी की किताब से पता चला कि गुरुदत्त की ” ” “कागज़ के फूल ” न सिर्फ़ गुरुदत्त की सर्वोत्तम कलाकृति है बल्कि सर्वकालीन कलाकृतियों में इसका नाम है । फिल्म की स्टोरी और कलापक्ष इस तरह है कि इसमें कोई कमी नहीं निकाल सकता है। किस दृश्य को कितना दिखाना है,संकेतों का प्रयोग कहां होना है और कितना होना है ,गीत ,संगीत संवाद , पात्र और कहानी सब एक दूसरे के साथ सम्पूर्ण रूप से सिंक हैं । लेकिन इन सबके बावजूद यह फिल्म थियेटर में ज़्यादा न चल सकी। दर्शकों को छोड़ दीजिए,फिल्म समीक्षकों तक ने इसे फ्लॉप घोषित कर दिया ,मजबूरन गुरुदुत्त को भी ख़ुद ही इसे मृत्यु शिशु कहना पड़ा ।

” काग़ज़ के फूल ” का न चलना गुरुदत्त के लिए किसी सदमे से कम नहीं था ।इसी फिल्म के बाद गुरुदत्त ने निर्देशन से किनारा कर लिया ।उसके बाद उनकी दो फिल्में ज़रूर आईं जिनमे वो निर्देशक नहीं थे लेकिन उनकी कलात्मकता को साफ़-साफ़ देखा जा सकता है ,ये फिल्में थीं साहेब ,बीवी और गुलाम एवं चौदहवीं का चांद ।

संजीव एक prolific writer हैं और कई विधाओं में अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज़ करा चुके हैं ।उपन्यास, जीवनी,शायरी,मोटिवेशनल किताबें और व्यंग्य आदि आदि ।इनकी मैंने तीन चार किताबें पढ़ी है ।संजीव अपनी सभी किताबों में पढ़ने वाले को कुछ न कुछ विशेष देकर जाते हैं ।इस किताब में भी संजीव ने गुरुदत्त जैसे महान फिल्मकार के जीवन के पन्नों को बहुत ही सूक्ष्मता और गहराई से देखा है ।मेरी गुरुदत्त से जान पहचान इनकी किताब के माध्यम से और गहरी हो गई लगती है ।साथ ही फिल्म बनाने के दौरान तमाम तरह की अड़चनों और राजनीतिक पैतरेबाजी का भी पन्ना दर पन्ना उद्घाटन होना भी फिल्म निर्माण के बारे में एक नई दृष्टि दे जाता है ।

” काग़ज़ के फूल ” और ” प्यासा” फिल्मों के ज़रिए गुरुदत्त क्रमशः एक निर्देशक और एक शायर के संघर्ष को सामने लाने का प्रयास करते हैं । लेखक संजीव , गुरुदत्त की फिल्मों के सूक्ष्म संसार को परत दर परत पाठकों के सामने खोल कर रख देते हैं । उदाहरण के लिए काग़ज़ के फूल में गुरुदत्त स्वेटर के प्रतीक के प्रयोग द्वारा नायक की ज़िंदगी में चल रहे अच्छे और बुरे दिनों को रुपायित करते हैं ।कई बार साधारण दर्शकों का इन पर ध्यान ही नहीं जाता है लेकिन इन संकेतों का कितना गहरा अर्थ है ?

शुरुआत में मैंने अमजद ख़ान का ज़िक्र फिल्मों के बारे में उनकी सोच को लेकर किया था लेकिन गुरुदत्त की फिल्में मनोरंजन के साथ दर्शकों का साक्षात्कार तमाम तरह की सामाजिक विसंगतियों से कराती हैं और कई बार फिल्म के पात्र और दर्शकों का एकाकार भी हो जाता है । दर्शक को लगता है यह तो मेरी ही कहानी है ,या मेरी ही बात तो है। संजीव बताते हैं कि गुरुदत्त की फिल्मों में यह तमाम बातें स्वाभाविक रूप से आती हैं ।
दरअसल किसी फिल्म ,किताब का चलना या न चलना कई सारे कारकों पर निर्भर करता है । यदि फॉर्मूला के अनुसार कुछ नहीं होता है तो वह कार्य जोखिम भरा हो जाता है ।

चाहे फिल्म हो,साहित्य हो या जीवन के अन्य क्षेत्र ।जब भी समय से आगे की कोई चीज़ या लीक से हटकर कुछ कहने या करने का प्रयास होता है तो रिजेक्शन का खतरा बढ़ जाता है । काग़ज़ के फूल भी इसका एक उदाहरण है जिसको समझने के लिए विशेष दृष्टि और फोकस चाहिए ।

संजीव ने गुरुदत्त के फिल्मों के माध्यम से उनके जीवन को समझने की कोशिश की है । हालांकि यह ज़रूरी नहीं है कि किसी की कलाकृति उसके जीवन का प्रतिबिंब हो लेकिन कृति में कलाकार की सोच ज़रूर प्रतिबिंबित होती है ।
लेखक ने लेखन शैली को लेकर कई प्रयोग किए हैं ।मसलन शुरू में तो लगता है गुरुदत्त के जीवन पर कोई उपन्यास लिखा जा रहा है लेकिन थोड़ा आगे बढ़ने पर यह शैली बदल जाती है।

काग़ज़ के फूल शीर्षक का ही अपने आप में गहरा अर्थ है जो कृत्रिमता की ओर संकेत करता है ।कोई भी कृति महान तभी होती है जब उसमें शामिल किया गया हर तत्व, मसलन संवाद,नृत्य,गीत,दृश्य,परिदृश्य आदि सभी एक संतुलित मात्रा में इंटीग्रेट किया गया हो और यदि कहीं बिखराव है तो वह भी इंटीग्रेशन का ही भाग होना चाहिये ।

एक आम पाठक की हैसियत से मुझे संजीव जी की किताब ” काग़ज़ के फूल” कई दृष्टियों से एक नायाब कृति लगी ,जिसे पढ़े जाने की ज़रूरत है।यह हमारी संवेदना को विस्तारित करते हुए गुरुदत्त के व्यक्तिव ,उनकी फिल्म निर्माण की शैली और उनसे जुड़े हुए व्यक्तियों के बारे में नई जानकारी प्रस्तुत करती है । यह किताब संजीव जी के गहन शोध और चिंतन मनन का परिणाम लगती है ।संजीव जी ने तथ्यों और साक्ष्यों के माध्यम से अपनी बात कही है जिस कारण इस फिल्मों के हिसाब से एक ऐतिहासिक किताब कहा जाना चाहिए ।

मुझे बस थोड़ी सी कमी लगी । पहला कहीं-कहीं किताब में दोहराव आ गया है और दूसरा लेखक गुरुदत्त जी को लेकर कहीं-कहीं ही सही थोड़ा इमोशनल दिखे जिससे कई बार ऑब्जेक्टिविटी लूज करने का खतरा सा लगा ।
बोध रस प्रकाशन ने बड़े मनोयोग से किताब छापा है ,प्रूफ रीडिंग और थोड़ी कसी होती तो बेहतर रहता ।लेकिनकुछ भी पूर्ण नहीं होता है,कहीं न कहीं कुछ न कुछ तो रिक्त रह ही जाता है।

मैं लेखक संजीव गंगवार जी को उनकी इस ऐतिहासिक किताब के लिए बधाई देता हूं।

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