किसान केंद्रित कविताएँ

तेज प्रताप नारायण की अलग अलग विधाओं में कई पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं ।इन्हें सरकारी और गैर सरकारी संस्थाओं के कई सारे सम्मानों /पुरुस्कारों से नवाजा जा चुका है।जिसमें कविता के लिये भारत सरकार का मैथिलीशरण गुप्त सम्मान ,कहानी के लिये प्रेम चंद सम्मान के साथ कई अन्य पुरुस्कार शामिल हैं ।कई कविता संग्रहों और एक साझा उपन्यास का संपादन भी कर चुके हैं ।वार्षिक काव्य पत्रिका मशाल के संपादक भी हैं । प्रस्तुत है उनकी किसान केंद्रित कुछ रचनाएँ जिन्हें हाल में ही लिखा गया है।

【किसान दिवस】

सुना है
आज किसान दिवस है
दिवस जो भी हो
मगर ,किसान हर दिवस में सिर्फ़ विवश है
नीतियों से पस्त है
और पूरी की पूरी व्यवस्था भ्र्ष्ट है
मतलबपरस्त है

किसान की किसी को फ़िक़्र नहीं है
उसकी मेहनत का तो बिल्कुल ज़िक्र नहीं है
व्यवस्था के नाम पर अव्यवस्था फैली है
दिन अँधेरे में है और रात उजली है

सुना है
आज किसान दिवस है
आज अखबारों में कुछ कॉलम छपेंगे
वातानुकूलित बुद्धिजीवी बहसें केरेंगे
कुछ न्यूज़चैनल भी घड़ियाली आँसू बहाएंगे

हो सकता है ,सत्ता से राब्ता रखने वाले कुछ बड़े किसान
सम्मानित हो जाएं
उन्हें कुछ सरकारी अवार्ड मिल जाए
लेकिन इससे कुछ भला नहीं होगा
खेतिहरों का
खेतों में पसीना बोने वाले हलधरों का
उनका हल टूटा ही मिलेगा
उनका बैल भूखा ही मिलेगा

सुना है
आज किसान दिवस है
कुछ लोग कुछ लिखकर
किसानों पर एहसान करेंगे
और किसान के ऋण से उऋण होंगे

सुनो ! आज किसान दिवस है
सुनाई नहीं पड़ता
आज किसान दिवस है
बहरे हो क्या ?
आज किसान दिवस है ।

【किसान】

एक बित्ते ज़मीन के लिये
थाना,कोर्ट, कचेहरी एक कर देने वाला किसान
आपस में लड़ जाने वाला किसान
एक दूसरे का सिर फोड़ देने वाला किसान
क्यों सत्ता से लड़ नहीं पाता ?

खेतों ,बागों और चौपालों में
बक बक करने वाला किसान
पटवारी, लेखपाल से लेकर
गल्ले के दुकानदार से
अपनी बात कह नहीं पाता

वह पैदा करता है
गेंहू ,धान,
गन्ना, उरद
सरसों ,चना
अरहर
मटर, गोभी,आलू,प्याज
लेकिन
वह नेता पैदा कर नहीं पाता

मेहनती होता है किसान
जाड़ा ,गर्मी हो या बरसात
डाले रहता हैइनके गले में हाथ
कैसी भी दिक़्क़त हो
इनका फैलता नहीं हाथ
लेकिन ,हज़ार, दो हज़ार रुपयों के सरकारी अनुदान के लिये
इनका हाथ रुक नहीं पाता

किसान जानता है
कि बीज को कितना भिगोना है
किस खेत में गेहूं और
किस खेत में धान बोना है
लेकिन राजनीति के खेत में
क्या बोना है
यह फैसला कर नहीं पाता

यही कारण है
शायद
वह मेहनत का सही फल नहीं पाता ।

【मुझे आश्चर्य होता 】

उग आयें हैं हर चौराहे पर
कुकुरमुत्ते की तरह बाज़ार
जिसमें है बिचौलियों की भरमार

खरीद केंद्रों पर कमीशनखोरी के अनगिनत अजगर
जो मुँह बाये खड़ें हैं
मेहनत के फल को निगल रहे हैं

सामाजिक ,सांस्कृतिक
राजनीतिक,प्रशासनिक भ्र्ष्टाचार के दबाव में
बिकती रहती हैं फ़सलें सस्ते भाव में

लेकिन
मंडी तक पहुँचते ही फसलों में सुर्खाब के पर लग जाते हैं
फल हो या अनाज सबके दाम उड़ने लगते हैं

उत्पादक और
ग्राहक होता है
हाशिये पर
बिचौलियों की मौज होती है

मुझे आश्चर्य नहीं है कि
नहीं मिलता है अनाज का सही मूल्य
मुझे आश्चर्य होता यदि
किसानों को मिलते कुछ ईमानदार
जो बनते उनके उत्पाद के खरीदार ।

【तुम्हारा साथ】

तुम्हारा साथ उतना ही ज़रूरी है
जितना रोटी के लिये पिसान
अन्न के लिये किसान
विकास के लिये विज्ञान

जितना ज़रूरी है ,
जंगल के लिये पेड़
नदी के लिये पानी
इंसान के लिये जवानी

जितना ज़रूरी है
रिश्तों के लिये एहसास
ज़िन्दगी के लिये प्रकाश

तुम्हारा साथ उतना ही ज़रूरी है
जितना धरती को घूमने के लिये सूरज का गुरुत्व बल
किसान के लिये हल
पहलवान के लिये बल

जितना ज़रूरी है
बच्चों की मासूमियत,
धरती के लिये
सूरज और चाँद की अहमियत

जितना ज़रूरी है ,
गुलशन के लिये गुल
गुल के लिये सुगन्ध
इंसान का ख़ुद से अच्छा सम्बन्ध

तुम्हारा साथ उतना ही ज़रूरी है
जितना
बच्चे के लिये माँ का आँचल
जीवन के लिये जल
पेड़ के लिये फल

जितना ज़रुरी है
पानी के लिये हाइड्रोजन और ऑक्सीजन
देश के लिये उसका जन
पानी के लिये बादल
राजनीति के लिये ,राजनीतिक दल

तुम्हारा साथ बहुत ज़रूरी है ।

【जब सोचता हूँ गाँव 】

जब सोचता हूँ गाँव
तो मन में आने लगती हैं तस्वीरें
हरेपन की ,सादगी की
भूख की, ग़रीबी की
कंधों पर हल लादे किसान की
बेरोज़गार नौजवान की

जब सोचता हूँ गाँव
तो धरती ख़ुश होने लगती है
हवा शुद्ध होने लगती है
बादल गरजने लगते हैं
सावन बरसने लगते हैं

जब सोचता हूँ गाँव
बहुत कुछ दिखने लगता है
आग का जलता अलाव
सामंत वाद का असली स्वभाव
दलाली का प्रभाव

जब सोचता हूँ गाँव
याद आते हैं अनगिनत चेहरे
बिताए थे जो हमने वो पल सुनहरे
आम,बरगद की छाँव
जिसके नीचे रहता था मेरा गाँव

जब सोचता हूँ गाँव
तो सुनता हूँ कोयल का गाना
चिड़ियों का चहचहाना
अरहर के खेत में छिपी मूंगफली
कैसे रात के अँधेरे में रातरानी खिली ?

जब सोचता हूँ गाँव
तो फूट जाता है
विचारों का सोता
बहने लगती है एक नदी
बनने लगता है कोई सागर

गाँव पर
एक क्षणिका क्या ?
एक कविता क्या ?
बड़े शास्त्र लिख सकता हूँ
कोरे कागज़ के अनगिनत पन्नों को
गाँव के दर्द से बयां कर सकता हूँ

वह गाँव जहाँ
विकास का जल नहीं पहुँचा
वह गाँव जहाँ
समस्याओं का हल नहीं पहुँचा

वह गाँव जो कटा है
देश से बंटा है
जैसे देश के भीतर कई देश
हैं
वैसे हर गाँव के भीतर कई गाँव हैं ।

Related post

Leave a Reply

Your email address will not be published.