कुंदन सिद्धार्थ की कविताएँ
बिहार के पश्चिमी चंपारण जिले के एक गाँव हरपुर में जन्म ।
संप्रति: आजीविका हेतु पश्चिम मध्य रेल, जबलपुर में कार्यरत
अक्षरा,आवर्त,समकालीन परिभाषा,वागर्थ,समकालीन भारतीय साहित्य पत्रिकाओं में तथा समकालीन जनमत के वेबसाइट पर कविताएँ प्रकाशित,हंस,धर्मयुग ;संडे ऑब्जर्वर, में वैचारिक आलेख प्रकाशित ! मध्यप्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन के मंचों पर काव्य-पाठ, गणेश गनी के संपादन में संयुक्त कविता-संकलन ‘यह समय है लौटाने का ‘ प्रकाशित, पहला काव्य-संग्रह शीघ्र प्रकाश्य ।
[ सबसे पवित्र दिन]
एक दिन
मेरी कविता के शब्द
किताबों से निकलकर खेतों को जानेवाली राह पकड़ लेंगे
थाम लेंगे खुरपी, हँसिया, हल, कुदाल और फावड़े
एक दिन मैं उन्हें बुआई, रोपाई, कटाई करते देखूँगा
एक दिन
मेरी कविता के शब्द
छोड़ देंगे कविता की देह
और गहरे धँस जायेंगे शोषण और गरीबी के खिलाफ
लड़ रहे हरेक आदमी की चेतना में
एक दिन मैं उन्हें लामबंद होकर
युद्धघोष करते देखूँगा
मेरी कविता के शब्द
एक दिन मुझसे माँग लेंगे छुट्टी हमेशा के लिए
और निकल पड़ेंगे कस्बों, गाँवों और शहरों के लोगों से मिलने
बोलने, बतियाने, पूछने उनका हालचाल
एक दिन मैं उन्हें बाजार में नून तेल लकड़ी का जुगाड़ करते
अस्पताल में किसी बलात्कार पीड़िता के सिरहाने बैठे
किसी झोपड़ी में बूढ़ी स्त्री के पाँव दबाते देखूँगा
एक दिन
मेरी कविता के शब्द
महज़ शब्द नहीं रह जायेंगे
आग बन जायेंगे
जिसकी लपट में जलकर राख हो जायेगा
आदमी के भीतर भरा हुआ दुनिया भर का कलुष
जो जाति, धर्म और देश के नाम पर
उन्हें पशुओं से भी नीचे गिरा देता है
एक दिन मैं अपनी कविता के शब्दों को
दुनिया भर के बम, बारूद और बंदूक की दुकानों में
आग लगाते हुए अट्टहास करते देखूँगा
कविता के शब्द
कविता में समा नहीं पा रहे दरअसल
उन्हें कैद नहीं, रिहाई चाहिए
एक दिन मैं उन्हें दुनिया को सुखी, सुंदर बनाने
और प्रेम से भर देने की अपनी जिद्द को
पूरी करते देखूँगा
वह दिन
मेरे जीवन का सबसे पवित्र दिन होगा
[ प्रेम संभाले हुए है ]
मैं कहीं भी जाऊँ
कुछ चीजें अनिवार्य रूप से साथ होती हैं
जैसे धूप, हवा, पानी और बादल
जैसे आग, धरती, पहाड़ और आसमान
जैसे खेत, नदी, बगीचे और पगडंडियाँ
जैसे रँग, फूल, पेड़ और चिड़िया
और आखिर में
जैसे प्रेम
क्योंकि ये सब रहें
और प्रेम न रहे
तो क्या भरोसा
मैं खो सकता हूँ सरेराह
भूल सकता हूँ अपना गंतव्य
भटक सकता हूँ रास्ता
ये सब रहें
और प्रेम न रहे
तो क्या ठिकाना
हो सकता है मुझे चक्कर आ जाये
और धड़ाम से गिर जाऊँ
किसी चौराहे पर
ये सब रहें
और प्रेम न रहे
तो कोई उम्मीद मत रखना मुझसे
यह भी हो सकता है
कि मैं तब गूँगा हो जाऊँ
कंठ हमेशा-हमेशा के लिए
हो जाये अवरुद्ध
शब्द न निकले
और मैं रोने लगूँ
साथ में न रहे प्रेम
तो कुछ भी घट सकता है अनिष्ट
जीवन जा सकता है
क्या पता ?
यह प्रेम है
जो संभाले हुए है मुझे
नहीं तो इस क्षणभंगुर संसार में
बिखरते देर नहीं लगती
[ प्रेम को बचाये रखने की जिद]
हाँ, मैं कवि हूँ
कवि हूँ ,क्योंकि दुख के खिलाफ हूँ
दुख के खिलाफ हूँ
इसलिए उन सभी चीजों के खिलाफ हूँ
जो दुख देती हैं
दुख चाहे कहीं से उठे
चाहे किसी दिशा से आये
सुंदर नहीं होता
जिस पर भी पड़े दुख की छाया
उसे असुंदर बना देती है
दरअसल
मैं दुख की छाया के भी खिलाफ हूँ
यूँ मैं दुनिया की हर उस चीज के खिलाफ हूँ
जो किसी को असुंदर बना देती है
वह चाहे दूब हो, फूल हो, पेड़ हो या हो पशु
वह चाहे पानी हो, हवा हो, चिड़िया हो या हो मनुष्य
कुछ भी असुंदर हुआ
पृथ्वी के माथे पर पड़ती हैं सलवटें
चिंता से भर जाती है पृथ्वी
उस मन के खिलाफ़ हूँ जो दुख के काँटे बोता है
उस मन के खिलाफ़ हूँ जो दुख के काँटे बटोरता है
दुख चाहे दिया जाये या लिया जाये
यह संसार का सबसे कुरूप व्यापार है
मैं इस तरह के हर व्यापार के खिलाफ हूँ
सुख के प्रेम में हूँ
सुंदरता के प्रेम में हूँ
ठीक उसी तरह
जिस तरह प्रेम के प्रेम में हूँ
चाहता हूँ दुनिया में सुख रहे
सुख रहे तभी बचेगा प्रेम
प्रेम बचे तभी संभावना बचेगी
दुनिया के सुंदर बने रहने की
हाँ, मैं कवि हूँ
प्रेम को बचाये रखने की जिद में
लिखता हूँ कविताएँ
[ देखना और हो जाना]
मैंने फूल देखे
और फूल हो गया
मैंने चिड़िया देखी
और चिड़िया हो गया
पेड़ देखे
पेड़ हो गया
नदी देखी
नदी हुआ
खेत देखे
खेत हो गया
यूँ मैंने सब कुछ देखा
और सब कुछ हुआ
सब कुछ देखने और होने के
इस खेल में मैंने पहली बार जाना
कि फूल होकर ही जाना जा सकता है
फूल का सौंदर्य
और सही जा सकती है
उसके झड़ जाने की वेदना
चिड़िया होकर ही
महसूस किया जा सकता है
उसकी उड़ान का मर्म
और जीवन बचाये रखने की उसकी जद्दोजहद
पेड़ हुए बिना नहीं भोगा जा सकता
उसके कटने का दर्द
अपने सूख जाने की चिंता से
हुआ जा सकता है उदास
नदी होकर ही
खेत की भूख-प्यास समझने के लिए
निहायत जरूरी है
खुद ही खेत हो जाना