कुछ राजनीतिक कविताएं
राजीव चौधरी “सहरा”
1
मुल्क की उस अवाम के लिए वो,
निज़ाम आख़िर, कैसे अपना हो।
जिसके लिए वहां रोटी कमा लेना,
और जी लेना ही एक सपना हो।
2
लोग जो ख़ैरख़्वाह थे अपने मुल्क के,
रोड़े कुछ कम नहीं उनकी राह में थे।
निगाहों में ख़्वाब जिनके तरक्की के,
वही लोग हुक्मरानों की निगाह में थे।
3
झूठ के आगे सच को सर पटकना पड़ा,
इंसाफ़ के लिए उसे दर-दर भटकना पड़ा।
तमाम झूठ बोला जो मुन्सिफ़ बन बैठा,
बोला जो सच उसे सूली पे लटकना पड़ा।
4
दम पे दौलत की कई सच्चाइयाँ तोड़ी गईं,
साज़िशन झूठ बयानी माज़ी से जोड़ी गईं।
जब शोरगुल चुन लिया नालों ने अपने वास्ते,
तब समंदर के लिए ख़ामोशियों छोड़ी गईं।
5
जुगनू की ही सही, रोशनी, के एहसास से तो जी लेंगे।
जाम-ए-ज़िंदगी छोटी सही उसे पूरा समझ के पी लेंगे।
पर उजालों के नाम पर कहीं अंधेरों के कारोबार हुए तो,
बहुत मुश्किल हो जाएगी अगर सब ज़ुबान सी लेंगे।
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