कैलाश मनहर की कविताएँ

प्रकाशित कृतियाँ:–

कविता की सहयात्रा में, सूखी नदी, उदास आँखों में उम्मीद, अवसाद पक्ष, अरे भानगढ़(कविता संग्रह ),हर्फ़ दर हर्फ़ (ग़ज़ल संग्रह) तथा मेरे सहचर::मेरे मित्र(संस्मरणात्मक रेखाचित्र)

[ ऐन उसी वक़्त ]

झपट्टा मारने के लिये 

फड़फड़ा रहा है बाज़

कबूतरों ने आँखें मूंद ली हैं 

शुतुरमुर्गों के सिर ज़मीन में धँस रहे हैं 

मोर आँसू टपका रहे हैं अपने 

पाँवों को देखते 

मोरनियाँ कर रही हैं विलाप 

और कौए व्यस्त हैं 

बकवादी बहस में 

उधर हँस 

पुरस्कार लेने जा रहे हैं 

सुसज्जित 

ऐन उसी वक़्त एक चिड़िया 

अपने पंख तौल रही है 

बाज़ की पीठ पर बैठने को 

[  तनाव पूर्ण शान्तिः]

हर पाँच फुट पर सड़कें फौज़ियों से भरी हैं 

आम लोग घरों में बंद हैं

तथाकथित स्थिति पूरी तरह नियन्त्रण में है 

तनावपूर्ण शांति है अभी

बच्चे दूध के लिये तरस रहे हैं और मायें भी

पूरे पाँच दिन से भूखी हैं

पिताओं के चेहरे पर उदास मुर्दानग़ी छाई है

इस प्रदेश में जन्म लेकर

जैसे  ग़ुनाह कर दिया है यहाँ के बासिन्दों ने

आज के मुबारक दिन भी

जबकि गले मिल रहे हैं मुल्क के तमाम लोग

खौफ़ के साये में दुबके हैं

हमेशा मुस्कराते रहने वाले हमारे भाई-बहिन

जबकि  राजधानी में इधर

शाह के चेहरे पर है कुटिलता का विजय-दर्प

[ सहज असहजता ]

“भाषा को भ्रष्ट होने से बचाइये”

उन्होंने कहा तो 

मुझे अच्छा लगा और

“हाँ अभिजात्यता ने उसे 

बहुत बिगाड़ दिया है”

मुझे यही सूझा उनके समर्थन में

“अरे नहीं,अभिजात्य शिष्टता ही 

तो जरूरी है भाषा में”

उन्होंने समझाने की कोशिश की

“लेकिन वे बहुत बेईमान लोग हैं 

बहुत झूठ बोलते हैं”

“देखिये बेईमान और झूठा 

नहीं कहना चाहिये 

किसी को बिना प्रमाण के

भाषा को होना जरूरी है 

प्रामाणिक भी सदैव”

“लेकिन वे ठग भी हैं

लुटेरे भी और हत्यारे भी हैं”

मैंने अपनी बात कहनी चाही 

पूरी ताक़त से

“ओह!आप समझते क्यों नहीं

भाषा में इतना ज़ोर से नहीं बोलते 

और क्रोध करना 

शोभा नहीं देता भाषा को 

सहज होना चाहिये”

तभी अचानक पता नहीं कि 

क्यों मैं असहज हो उठा और 

गला पकड़ कर उनका 

हाथ उठाया ही था मैंने कि

“अरे,अरे,क्या करता है बदमाश,

गुण्डा कहीं का,

मारेगा क्या मुझे अरे दुष्ट?”

वे चीखने लगे 

और अभिजात्यता,शिष्टता,प्रामाणिकता,

सहजता और धैर्य जैसे बहुत से शब्द 

निरर्थक हो गये उनके हित में 

विवशतापूर्ण 

  [ और मैं ]

लाईब्रेरी में

बहुत पहले रखी हुई किताब

जो 

सिर्फ़ दीमकों का खाद्य बनी

और मैं

गाँव का

वर्षों पहले सूख चुका कुआँ

जो है

विषैले सरीसृपों का आवास 

और मैं

दूर तक

पसरी हुई लम्बी-काली  सड़क

जिसे

रौंदती जाती तीव्रगति गाड़ियाँ 

और मैं

मरुस्थल में

भटकता हुआ प्यासा हरिण

हर कहीं

चमकती हुई  मृग-मरीचिका

और मैं

अकेलापन

गहराती हुई रात और बारिश

दूर कहीं

टिमटिमाती है प्रकाश-किरण

और मैं

[ इल्तिजा ]

बात इतनी-सी है कि

मुझ से तुम नफ़रत न करो

मुल्क़ मेरा भी है

मुझ को भी हक़ से रहने दो

वतन-परस्त हूँ मैं भी

यक़ीं करो मुझ पे 

मेरी ज़मीन

मेरी जान बख़्श दो भाई 

हाँ मुसलमान हूँ

हिन्दोस्तानी हूँ लेकिन 

इल्तिज़ा है कि

तुम गद्दार मत कहो मुझ को 

दिल पे एक चोट-सी लगती है

मुझ पे शक़ न करो

दीन-ओ-ईमान है 

अल्लाह निगाहबान मेरा II