गाँव के गबरू जवान…?
देश के प्रतिष्ठित इंजीनियरिंग कॉलेज आई ई टी लखनऊ से बी टेक् और फिर उत्तर प्रदेश शासन से रिटायर्ड (वीआर एस) दिनेश कुमार सिंह ,लखनऊ से प्रकाशित ‘डे टू डे दैनिक’ के उपसंपादक हैं ।समाज के उपेक्षित वर्गों को यथा सम्भव सहायता भी देते हैं ।
गाँवके गबरू जवान अब गोबरैले कीड़े होते जा रहे है हिरण और चीते की तरह कुलाचे भरने की उम्र में कीड़ो मकोड़ो की तरह रेंगते नज़र आते है।
जब मैं गाँव जाता हूँ तो कुछ नही बहुत कुछ बदला नज़र आता है,अपने गांव में बिताए दिनों के माहौल के बारे में सोचता हूँ और आज का माहौल देखकर लगता है आज गांव की पूरी की पूरी युवा आबादी, घोर लंपटई की गिरफ्त में है। पढ़ाई -लिखाई से नाता टूट चुका है।
देश-दुनिया की कुल समझ व्हाट्सएप से बनी है। दिन भर फेक न्यूज़ मे घूमते रहते हैं । वहां पाकिस्तान माफ़ी मांगता है और चीन थरथर कांपता है। दहेज में बाइक मिली है, भले ही तेल महंगा हैं, धान-गेंहू बेच, एक लीटर भरा ही लेते हैं और गांव में एक बार फटफटा लेते हैं।
अपने से ज्यादा दूसरे के कामों मे ज्यादा झाँक ताँक करते हैं । हमेशा इसी चक्कर मे रहते हैं कि कैसे दूसरों का नुक़सान कर दें या दूसरे को नीचा दिखा दें , इसी मे अपनी जीत समझते हैं ।
गंवई माफिया और छुटपुटिये नेता उनका इस्तेमाल करते हैं। उन्हें आखेट कर किसी न किसी जातीय – धार्मिक सेनाओं के पदाधिकारी बना कर, अपनी गिरफ्त में रखते हैं।
हमारे गांव से अक्सर कुछ युवाओं के फ्रेंड रिक्वेस्ट आते हैं। उनकी हिस्ट्री देखिए तो सिर पर रंगीन कपड़ा बांधे ,जयकारा लगाते, मूर्ति विसर्जन या किसी आयोजन में नशा करते फोटो मिलेगी। सुबह गुटका और शाम दारू से गुज़रती हैं ।
यह है नई पीढ़ी!
इसी पर है देश का भविष्य।
एक बीमार समाज।
ऐसी पीढ़ी अपने बच्चों को कहां ले जा रही?जमीन-जायदाद इतनी नहीं कि ठीक से घर चला सकें या बीमारी पर इलाज हो। तो इनके लिए बेहतर जीवन क्या है? ये किसी औघड़ सेना के सचिव हैं, तो किसी धार्मिक संगठनों में फंसा दिए गए हैं।
इनकी पीढियां अब उबरने वाली नहीं। दास बनने को अभिशप्त हैं ये। इन्हें हम जैसों की बातें सबसे ज्यादा बुरी लगती हैं। इनका कोई स्वप्न नहीं। घमण्ड इतना कि आईएएस,पीसीएस,इंजीनियर,डॉक्टर उनकी जेब में होते हैं।
एक अपाहिज बाप के जवान बेटे को दिनभर चिलम और नशा करते देख कर टोका था, तो उसकी मां बोली-“हमार बेटवा का, जो मन करी उ करी, केहू से मांग के न पियत?”
अब ऐसे मर रहे समाज में जान फूंकना आसान काम नहीं है?
शिक्षा बिना बात का असर नहीं हो सकता।
अब सवाल उठता है कि जिस समाज को सचेतन ढंग से बर्बाद किया गया हो, शिक्षा से वंचित किया गया हो तो यह सचेतन गुलाम बनाने का कृत्य है। यह अमानवीय भी है,और शातिराना भी।
गुलाम बाहुल्य समाज, दुनियाभर में निम्न ही रहेगा,बेशक कुछ की कुंठाएं तृप्त हों।
यह किसी जाति धर्म या किसी वर्ग की बात नही, गाँवो का पूरा का पूरा युवा गलत दिशा में चल पड़ा है उसका मुख्य कारण है अशिक्षा,बेरोज़गारी,और सरकार की नीतियां!
फिलहाल ये उबरने से रहे।