गौतम बुद्ध की शिक्षा में चक्र का महत्व
संजय श्रमण
सारनाथ में गौतम बुद्ध का पहला प्रवचन धम्मचक्र प्रवर्तन सूत्र वक्तव्य कहलाता है। यह उन्होंने अपने पांच भिक्षुओं कौण्डिण्य, वप्प, भद्दीय, अस्सजि और महानाम के सामने दिया था।
गौतम बुद्ध के बाद आचार्य वसुबंधु बहुत महत्वपूर्ण माने गए हैं, कई दार्शनिक ग्रंथों में इन्हें दूसरा बुद्ध भी कहा गया है। आचार्य वसुबंधु ने धम्मचक्र की व्याख्या ‘दर्शन के मार्ग’ के रूप में की है। इस दर्शन मार्ग का अर्थ होता है धारणाओं से मुक्त और विचारों से मुक्त होकर वास्तविकता को सीधे-सीधे देखना। इसे शून्यता में सीधे देखना भी कहा जाता है। उन्होंने इसे चक्र के रूप में निरूपित किया है क्योंकि यह बहुत तेजी से घूमता है, और लगातार विचार में घूमने वाले मनुष्य के मन और संसार को भी निरूपित करता है।
संसार को भी चक्र ही माना गया है, इसी से संसार चक्र या भव चक्र शब्द जन्मे हैं।
सर्वास्तिवादी आचार्य ‘आचार्य घोशक’ ने बुद्ध के अष्टांग मार्ग को धम्मचक्र के रूप में निरूपित किया है। बाद में महायानी दार्शनिको ने धम्मचक्र को एक रूपक की तरह इस्तेमाल करके राजा और राजसत्ता से भी जोड़ दिया।
भूमि पर राज करने वाले और दुनिया में धर्म का प्रचार करने वाले राजा को धम्मचक्र के सहयोगी के रूप में बताया गया है। यहीं से चक्रवर्ती सम्राट की धारणा आती है।
इस प्रकार धम्मचक्र को आगे बढ़ाने वाले राजा चक्रवर्ती सम्राट कहे गए हैं। यहाँ स्पष्ट होता है कि चक्रवर्ती सम्राट की धारणा एक बौद्ध धारणा है।