चले चलो !!

 चले चलो !!

‘उपलब्धियां’ मात्र ‘सफ़लता प्राप्ति’ तक सीमित नहीं है ।
यह एक यात्रा है ठीक वैसे ही जैसे पहाड़ की चोटी तक पहुंचना । किसी भी पहाड़ की चोटी पर पहुंचना, तभी सम्भव है जब कदम दर कदम हम चलते चलें। क्या पता भटकाव मिले, क्या पता घूम फिरकर एक ही जगह वापिस आ पहुंचे। मग़र हर बार भले ही रास्ता बदलें, विश्राम लें, हताश हो रोकर सुस्ता लें, मगर फिर से चलना न छोड़ें। न ! न! इसका ये मतलब बिल्कुल नहीं है कि हम चोटी तक पहुंच ही जायेंगे। हाँ! संभावना जरूर बढ़ जायेगी मगर यदि फिर भी न पहुंच सके तो भी उन ऊबड़ खाबड़ पथरीले रास्तों पर अपरिचित भयों से गुजरकर,आसमान को और करीब से देखकर ,अनेक तनावपूर्ण स्थितियों का सामना करके, विविध वनस्पतियों की अद्भुत सुगंध को मन मस्तिष्क में भरकर जो जिजीविषा, जो साहस, जो नवीन दृष्टिकोण अंकुरित होंगे क्या वो ‘उपलब्धियां’ नहीं ! याद रहे __ किसी गंतव्य पर पहुंचना अवश्य ही क्षणिक या कुछ दिनों के लिए संपूर्णता का अनुभव देता है , मगर हमारी प्रवृत्ति वहां ठहरने की होती ही कहाँ है ?? क्या हम नये की तलाश में आगे नहीं निकल जाते। अंततः हम चलना ही तो चुनते हैं विभिन्न गंतव्यों के बहाने।
निराशाओं में निराश होना ठीक है , पर ठहरना नहीं।
अनजाने ही सही पर यदि हम अपने चुने लक्ष्य की जगह ‘असफलता’ के गंतव्य पर पहुंच गए तो क्या ??? पहुंचते हम कहीं भी मगर कहाँ हम वहाँ ठहरने वाले थे !!!
तो फिर ___ चले चलो !! 😊

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