डॉ कर्मानन्द आर्य की पाँच कविताएँ

 डॉ कर्मानन्द आर्य की पाँच कविताएँ


मरम्मत

फिलहाल, मेरा जूता टूट गया है
इसे ठीक कराना है
बाहर भारी बारिश है

पानी बरस रहा है
नदी ने जूता नहीं पहना है
जबकि उसको भी दूर जाना है

फिलहाल, उधेड़बुन में हूँ
आखिर जूता
बार बार क्यों टूट जाता है मेरा
नदी का नहीं टूटता

बादल का जूता उससे भी पुराना है
और उस मोची का जूता
जो कल्पना में बहुत ऊँचा चलता है
मेरी तरह क्यों नहीं टूटता

उन पक्षियों का जूता
जो फुदकते हैं अधिकतर
क्यों नहीं होता खराब

जूता पहनाना
जूते मारना
जूते चढ़ाना
जुतियाना
जैसे मुहावरे शामिल हैं हमारी भाषा में
फिर भाषा का जूता चकाचक क्यों रहता है

जैसे बारिश शामिल है
मेरी उधेड़बुन में
मेरा जूता भी शामिल है
मेरे जीवन में

बाहर बारिश है
फिलहाल मेरा जूता टूट गया है
मुझे जूता ठीक कराने जाना है

जीवनी

हमनें निन्यानबे में दसवीं पास किया
दो हजार चार में बीए
दो हजार छः में एम ए हिंदी
फिर दो हजार बारह में नौकरी मिली
चौदह साल लगे

खून पसीना एक कर दिया
कभी एक समय ही रोटी खायी

कांशीराम जी ने सतहत्तर में विचार किया
मायावती जी से मिले
चौरासी में बसपा बनाई
पंचानबे में अट्ठारह साल बाद
एक दलित महिला मायावती को
देश के सबसे धधकते प्रदेश की मुख्यमंत्री होने का मौका मिला

एक लंबा संघर्ष, जातीय अपमान
और बहुत सारी जिम्मेदारियां

वे जिनके बाप दादों ने
हड़प ली थी हमारी जमीन
छीन लिया था सुख चैन

वे कहते हैं
मायावती एसी कमरे में बैठ कर क्या करती हैं
वे जनता के बीच क्यों नहीं उतरती हैं

कवि तुम भी एसी वाली कविता लिख जाते हो
समाज में कोई उससे बदलाव भी पाते हो

यह एक ठूंठ की जीवनी है
जिसके पत्ते बहुत हरे थे कभी

परिवर्तन

अवसर की समानता मिली तो
हमने उनके किये कराए पर थूक दिया
जहर ही ज्यादा था
जो अब तक हमने पिया

वे हमें लंगड़ा कहते
गूंगा और बहरा समझते
शूद्र गंवार पशु नारी समझते
हम चुप

वे हमें ढेढ़ समझते
हमारे हक़ मार लेते
हमारे घर में घुस आते
हम चुप

वे हमें घूरते
हमारे किये को कमतर आंकते
हमसे ताली थाली बजवाते
हम चुप

अवसर की समानता मिली
हमारा स्वाभिमान जाग उठा
हमने कहा चलो जहर बांटकर पीते हैं
हमारे घर चलो, हमारी तरह जीते हैं
अब वे चुप

लोहा लोहे को काटने लगा
वह भी अवसर की समानता हमसे बांटने लगा

बोलो दद्दा

…………..

बोलो दद्दा
कब तक हम चुप रहें तुम्हारे पाप पर
बोलना ही होगा तुम्हारे बाप पर

बाप की मीठी कमाई
आपने भी खूब खायी

बोलो दद्दा
कब तक झुंठलाओगे अपने आप को
क्या कभी गलत कहोगे अपने बाप को

मनुवाद, वर्णवाद, जातिवाद
है सबसे बड़ा आतंकवाद
जातंकवाद पर मुंह कब तक छिपाओगे
कभी तो सच के करीब आओगे

बोलो दद्दा
अम्बेडकर ने क्या कहा था
न बदलने का नाम ब्राह्मण है
रूढ़ चलने का नाम ब्राह्मण है

क्या भेदभाव वाली परंपरा ही अपनाओगे
कब तक तुलसी को अपना हथियार बनाओगे

बोलो दद्दा !

कविता

हमारी किताबों में
वे लोग आखिर बार बार क्यों आते हैं
जिन्होंने छीन लिया हमसे खेत
हमारी शिक्षा और संपत्ति हड़प ली
बार बार क्यों याद आते हैं उनके कुत्तचेहरे
जिनके ऊपर थूककर
गुजर जाने का मन करता है
जिनके सौ बीघे के बरक्स
हमारे पास घर बनाने की जमीन नहीं
उन्हें दफनाने का मन न करे तो क्या करे
आप कहोगे कवि तुम घृणा करते हो
घृणा कविता का व्यापार नहीं
कविता प्रेम सिखाती है
सिखाती है आदमियत
मैं कहता हूं
आप अपनी कविता के बारे में फूलन से पूछिए
जिसने दम्भ की हत्त्या की
आप एकलव्य से पूछिए
जिसने ज्ञान के बड़प्पन को नकारा
अपनी कविता के बारे कबीर से पूछो
जिसने तुम्हारी कविता के हरम्पन पर पीएचडी की है
तुम्हारे वर्चस्व को ललकारा है
मुझे नहीं पता
हमारी प्रार्थनाओं में ये किसके शब्द हैं
जो आर्तनाद कर रहे हैं सदियों से
हमारी अनुगूंजों में ये किसकी छतें हैं
जिनकी चिंगारियां कभी खत्म नहीं होती
वे कौन से कुएँ हैं
जो गहरे होकर भी खाली हैं
वे कौन से रास्ते हैं
जहां फूलों से अधिक बियाबान हैं काटें
वे कौन पंडुक हैं
जो कभी उल्लास का गीत नहीं गा पाते तुम्हारे कारण
क्यों भाई ! किसने मरोड़ दी है उनकी गर्दन
जो जार्ज फ्लायड की तरह जीवन की भीख माग रहे थे
हमारी कविताओं में हत्यारों के
कविता की निशानियां क्यों हैं
क्या कविता कार्य कारण के संदर्भ में बात नहीं करती है
मैं नहीं जानता
कलम ज्यादा ताकतवर है कि बंदूक
पर जानता हूँ
हम खेत के लिए संघर्ष कर रहे हैं
हम संस्कृति के लिए संघर्ष कर रहे हैं
हम हिस्सेदारी के लिए संघर्ष कर रहे हैं
हम वतन के लिए संघर्ष कर रहे हैं
विनय नहीं
बगावत है हमारी कविता
जिन्होंने हमारी शिक्षा और संस्कृति हड़पी
उनके अंत का घोषणा पत्र लिख रहे हैं हम
यह हमारा संविधान है
यह हमारी कविता

【खेद है 】

खेद है
आज भी जाति के समर्थक मौजूद हैं
वे हँस रहे हैं, खिलखिला रहे हैं
हँसी ठहाका लगा रहे हैं
लोगों को चिढ़ा रहे हैं
खेद है

खेद है
कश्मीर से कन्याकुमारी तक
जाति एक है
जाति के समर्थक एक हैं
जाति का तांडव एक है

वे लोग जो पढ़े लिखे लगते हैं
वे लोग जो सबसे पहले जगते हैं
वे लोग जो कच्छा धारी हैं
वे लोग जो धर्माधिकारी हैं

वे आज भी जाति में गोता लगाते हैं
गीता की तरह उसे पवित्र बताते हैं
खेद है

ब्राह्मण हैं जातिवादी
राजपूत हैं उसके आदी
यह बनियों का व्यापार है
शूद्र तो बेजार है

शूद्र अपना धर्म निभाता है
राम को कलेजा फाड़ कर दिखाता है

पर एक दिन आयेगा
जातिवादी अपना कलेजा फाड़ कर दिखायेगा
अपने पूर्वजों के पाप को पछतायेगा

खेद है
यह हो नहीं सकता

क्योंकि ब्राह्मण जाति के खिलाफ नहीं है
राजपूत जाति के खिलाफ नहीं है
इनका पोषक बनिया यहां सिर नवाता है
खेद है
शूद्र इनके झांसे में फंस जाता है

तक क्या जाति का सपना अधूरा रहेगा
समानता का सपना अधूरा रहेगा
क्या सभी को बराबर न्याय नहीं मिल पायेगा

क्या सदियों सदियों
जाति का ब्राह्मण ऐसे ही मुस्करायेगा ?