दिसंबर की वो सर्द रात ,तत्कालीन समय का रूपक ।

 दिसंबर की वो सर्द रात ,तत्कालीन समय का रूपक ।

मयंक यादव
ज़ाकिर हुसैन हॉल,कैंपस बी जामिया नगर,नई दिल्ली-110025

दिसंबर। वो महीना जो अंतिम है। वो महीनाजो पतझड़ का है। वह महीना जो थक चुका है। जो अकेलापन देता है, पेड़ के सूखे पत्ते नीरसता देते हैं। सर्द हवाएँ और खाली सड़के जैसे कदमों को जड़ कर देती हैं। जिस महीने में मन के साथ-साथ तन पर भी अनायास सा बोझ लद चुका है। ऐसा बोझ जो सिर्फ तलाश में है एक किरण के। जो दोनों बोझो को उतार कर फेंक देगी। या हम यूँ सोचें की यह महीना आश्वासन देता है। ढांढस देता है। कि, “सब शुरु से शुरू करना ।” इसी आश्वासन पर हम सब टिके हैं। कि यह खराब गया तो क्या? अगला बेहतर होगा। उससे अगला और बेहतर, और शायद उससे अगला और बेहतर। हम जैसे कितने ही लोग कसमें खाते हैं, कि एक जनवरी से ये लत छोड़ देंगे। लेकिन कौन कितना छोड़ पाता है, यह सभी को पता है। ” दिसंबर की वो सर्द रात ” भी लेखक और इस पूरे मानव सभ्यता की एक ऐसी ही रात थी। जब सभी को लगा कि, इससे बुरा और क्या हो सकेगा? लेकिन जैसे हम लोगो की कसमे टूट जाती हैं? जाने-अनजाने में, हैं शायद वैसे ही टूट जाती हैं, अनेक सीमाएँ, दुर्दशा कि विर्भत्सना की द्वेष की और अत्याचार की। लेकिन ये सब कैसे जाने-अनजाने में होता है? इसी प्रश्न के उत्तर के लिए शायद कवि तेज प्रताप नारायण जी ने कविता लिखी। तेज प्रताप जी कवि होने के साथ-साथ एक कथाकार, व्यंग्कार तथा उपन्यासकार भी हैं। साथ में एक प्रशासनिक अफसर भी हैं। जो शायद शासन और प्रशासन से थक भी चुके हैं और शायद एक हद तक जनता से भी।इंदिरा जी ने कहा था कि, “लोग अपने अधिकार तो याद रखते हैं, पर कर्तव्य भूल जाते हैं।” लेकिन ये अधिकार और कर्तव्य केवल शासन-प्रशासन या केवल जनता के लिए नहीं है अपितु दोनों के लिए हैं। जितनी जवाबदेही उस जैसी तमास रातों के लिए सरकार की है, उतनी या शायद उससे कहीं ज़्यादा हमारी और आपकी हैं। थी। रहेगी। इसी कर्तव्य और अधिकार की झलक अपनी कविता कर्तव्य और अधिकार मे कवि दिखाना चाहते हैं * “लोकतंत्र की बड़ी-बड़ी बातें सभी को चाहिए उनके लोकतांत्रिक अधिकार जो हैं बहुरंगी और विविध प्रकार कर्तव्यों का विचार नहीं कौंधता कर्तव्यों के प्रति कोई चेतना नहीं” *

जिस प्रकार के कर्तव्य और अधिकार हमारे देश और समाज के प्रति हैं। ऐसे ही कुछ कर्तव्य हमारे धर्म हमें करने को कहते हैं।पर हम सभी धर्म तो मान लेते हैं, धर्म की नहीं मानते। जैसे हम महापुरुषो के पीछे तो चलते हैं, पर अगर कुछ कदम उनके पद चिन्हों पर भी चल लें, तो इस समाज और हमारा उद्धार हो जाए। जैसा कि हिलायत अल- औलिया 10/208, में लिखा है।
“जो अपने आप को जान लेता है, अपने खुदा को जान लेता है।”

लेकिन हम सब चूक गए, अपने ईश्वर को जानने में, क्योंकि हमने खुद को नहीं जाना। इसी में कवि एक कल्पना करता है। “यदि मंदिर, मस्जिद व होते ।”

*न कोई हिन्दू होता व कोई मुसलमान होता
न कोई बेधर्मी होता न कोई काफिर होता
जन्नत पाने का ख्वाब होता न दोज़ख का डर होता
इंसान होता और इंसानियत होती।”
बहुत संभावना है कि हम बटे न होते। धर्म के आधार पर। क्योकि हम हैं, अमीबा के वंशज तो बटना हमारी फितरत है। हम धर्म के आधार पर न बटते, तो निश्चित ही हम किसी और तरह से बँटते, बल से, लिंग से या अर्थ से। ना बटना अंततः कल्पना मात्र ही है।

हर क्षेत्र में एक मानक है, सर्वश्रेष्ठ होने का। कही पर जन्म तो कही पर कर्म। जन्म इसपे ज़्यादा हावी है क्योकि एक ही पीढ़ी में, पुत्र जन्म से इसलिए श्रेष्ठ है क्योकि पिता कर्म से थे। एक ऐसा ही मानक हिंदी में भी है। हर विधा में है। हम बाते आसानी से समझना चाहते नहीं हैं। आसान रास्ते पर भी हम चाहते हैं कि लीक से थोड़ा हट जाए, झाल झंखार में से रास्ता बनाए। लिखें वो जो समझ न आए। लिखे वो जो थोड़ी मेहनत करवाए। और पढ़ना भी वही है, जो थोड़ी सी डिक्श्वरी पल्टवाएँ। उसी तथाकथित सर्वश्रेष्ठ की बात “लेखन के सन्दर्भ में” हुई है।

  • कविता कौन सी अच्छी, जो लोगो के दिलों को भाती हो
    या वह जो डिवश्वरी में खोजे गए तासमी शब्दों से बनी हो
    और अहंकार से तनी हो
    कि मैं किसी भाषा वैज्ञानिक के दिमाग की उपज हूँ।*

हर लेख, कविता उपन्यास या कोई भी पंक्ति पढ़ने के बाद पाठक के मन में लिखने वाली की एक छवि बनती है।वह छवि उसके हर कृति, हर पूर्ण विराम, अल्प विराम में एक सी रहती है। वह अपने लेखन से ही पहचाना जाता है। तेज प्रताप जी भी, * मेरी कविताएँ ही मेरा परिचच * में उसी पहचान की नेम प्लेट गढ़ते हैं

  • मेरा परिचय मेरी कविताएँ ही हैं
    जो मेरे जिंदा होने का प्रमाण हैं
    गलत तरीके से लिखे गए इतिहास के खिलाफ हैं
    जातिवाद के खिलाफ हैं, वर्ण और वाद के खिलाफ है।*

लेकिन समय के साथ-साथ व्यक्ति अपनी पहचान खोता जा रहा है। एक तरफ लोगो हर परिधि सिर्फ अपने तक सीमित रह गई है। जिसमे सिर्फ वह है उसका स्वार्थ, और परिवार के नाम सिर्फ पत्नी और बच्चा और यह परिधि इससे भी ज्यादा सिमटती चली जा रही है।यहीं हाल ही में एक शब्द सिचुएशनशिप बड़ा प्रासांगिक हो रहा है। यह शब्द नई पीढ़ी के लिए ज़्यादा उपयोग हो रहा है। जो आश्वस्त नहीं है, अपने संबंधों को लेकर । जिन्हें समय-समय। पर एक स्पार्क चाहिए। * दुनिया 13 इंच* वही कविता है, जो इस नए संबंद्ध को कागज़ पर उकेरती हैं।

  • फेसबुक पर ही, इश्क करता है किसी अनजाने प्रोफाइल की सुंदर फोटो पर अपनी जान छिड़‌कता है
    घर पर इंतज़ार करतीपत्नी से
    कोई मतलब नहीं
    वर्चुअल रियल हो गया
    रियल अनरियल
    दुनिया सीमित हो गयी
    13 इंच के भीतर चौकोर सी। *

इन नए संबंधों का प्रभाव मित्रता पर भी पड़ा है। मित्रता के मूल्यों का विघटन भी हो गया है। इस वर्चुअल दुनिया में मित्रता के पैमाने दूसरे हैं। संबंद्धों के पैमाने दूसरे हैं। जब एक समय पर बच्चें किसी अंजान की तरफ देखने से कतराते थे, वहीं अब उनके साथ वह एक दम सहज हैं। एक ऊपरी दृष्टि से देखने पर पता चलता है कि यह तो अच्छी बात है।जो संवाद की समस्या, झिझक थी, वह दूर हो गयी। लेकिन संबद्ध के कई स्तरों का विघटन लगातार जारी है। हम किसी के भी साथ तुरंत जुड़ जाते है। बिना एक दूसरे को सोचे समझे। अलग भी यूँही होते हैं कि कभी साथ थे ही नहीं। लोगो को इमोशनलेस और पेशनलेस बनाने के लिए इस वर्चुअल दुनिया पूर्ण रूप से उत्तरदायी है। * सच्चा मित्र * एक ऐसे मित्र की तलाश है, जो शायद कल्पना ही है।

न मेरे जाति से,
न मेरे धर्म से
न ज्ञान मेरे ज्ञान से,
व कर्म से व मेरे लुक से,
व पासबुक से
स्टेटस की परिभाषा से
न मेरे पुरुष होने से या स्त्री होने से बल्कि इन सबसे परे,
जो इंसान होने के नाते सम्मान दे
और साथ दे। *

कवि तेज प्रताप जी की कविताओं में बिंबों और प्रतीकों की उलनहीं है। उनका कुछ खास रिश्ता नहीं है, इन विधानों से। वे मानव चेतना के कवि हैं, जो महसूस करते हैं, देखते हैं, बस उसी को उकेरते

हैं। आलोक जी की ये पंक्तियाँ सदा जीवंत हैं।
एक बार और मिलने के बाद भी
एक बार और मिलने की इच्छा
पृथ्वी पर कभी ख़त्म नहीं होगी

  • तुम * कविता भी एक ऐसी ही अधूरी मुलाक़ात है।जो अपने आप को कभी दोहरा ना पायी।

लाओ थोड़ा और देख लेने दो ख़ुद को कनखियों से चोरी भरी नज़रों से देख लेने दो मुझे जी भरकर अपनी नज़रों में बसा लेने दो थोड़ा एक बार और देख लेने दो।

कवि तेज प्रताप जी की कविताएँ एक विशेष विषय के कारण हैं। कोई भी बेतुकी सी बात के कारण नहीं। उनके विषय चयन में एक परिपक्वता है। ऐसे विषय जो अक्सर लोगों की नज़रो से छूट जाते हैं। यह संग्रह तत्कालीन समय का रूपक है, जो इन कविताओं में उभर कर बाहर आता है। जो समाज की बेचैनी और छटपटाहट को दर्ज करता है। इन सभी रचनाओ से इतिहास, साहित्य ,कला, भाषा सभी मानविकी विषयों का ज्ञान झलकता है। उपन्यास, व्यंग्य संग्रह और कई काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकें हैं। इन्ही विषयों की जानकारी के कारण ही ना उनका मन विचलन से बच गया। पुराने कवियों और उपन्यासकारो, व्यंगकारों को पढ़ते समझते न केवल हिंदी के अपितु अंग्रेज़ी के भी वे कभी अपनी लीक से विचलित नहीं हुए हैं,और न ही किसी बनी बनाई लीक पर आँख मूद कर चलते आए हैं। उसी का परिणाम है, यह दिसंबर की वो सर्द रात। इस काव्य संग्रह में उनके मन की उथल-पुथल भी दिखती है। जहाँ वे एक ओर गाँव की ओर भाग जाते हैं, तो इसरी और शहर की। वे एक ही कविता में जहाँ किसी से बिछुड़ने के लिए दुःखी हैं,तो अगली पंक्ति में खुश।
हो सकता है तुम मुझे न मिलो दोबारा इस तरह आमने-सामने बैठने का मौका न मिले लुका छिपी का खेल न हो पर तुम्हारे साथ बिताए गए कुछ पल भी अद्भुत हैं. मेरे जीवन के अमूल्य सुख हैं।
मेरे जीवन के अमूल्य सुख हैं…..