दूल्हा बिकता है बाजार में …!

प्रस्तुत कहानी मेरे द्वारा लिखी व्यंग्य कथा संग्रह “आग़ाज़ – A Beginning” में संकलित है। यहाँ इसे उपलव्ध कराने का एक मात्र उदेश्य दहेज़ प्रथा से उत्पन विसंगति से समाज को परिचित कराना है। ….. शेखर
प्यारे साथियों दुआ, सलाम, नमस्कार, सबा खैर।
आज मैं आपको बाजार से अवगत कराने जा रहा हूँ। जी हाँ, बाजार जिसे आप शायद अन्य नामों से भी जानते होंगे। जैसे मंडी, हाट, आढ़त आदि आदि। बाजार ऐसी जगह है जहाँ पर 16 शृंगार से लेकर 9 संस्कारों तक की सभी वस्तुएं आसानी से खरीद बिक्री के लिए उपलब्ध हो जाती है।
इसी क्रम में मैं आज “दूल्हा बाजार” का जिक्र कर रहा हूँ। संयोग से मुझे भी इस बाजार में खुद का खरीदार ढूंढने का मौका मिला था। जी हाँ साहब, यहाँ अंधे लुढ़े-लंगड़े सब बिकते हैं, बस खरीदार चाहिए। बात उस जमाने की है जब मैं जवान हुआ करता था। वैसे तो जवान आज भी हूँ परंतु कुंवारा नहीं। जब मैं लगभग 28-30 साल का हुआ तब घर वालों ने मुझे बैठा दिया बीच बाजार में बिकने की खातिर। आखिर मैं भी क्या करता?
वैसे तब तक मैं अनेक हसीनाओं की बगियां का पूष्प चुन चुका था। सो ज्यादा कष्ट नहीं हुआ।
मेरा नाम दिलखुश कुमार है। मैं सोनभद्र शहर से हूँ। हिंदुस्तान का एकमात्र ऐसा जिला जिसकी सीमाएं चार भिन्न राज्यों से मिलती है। प्रत्येक राज्य की अपनी विशेषता है और उन विशेषताओं को समेटे बिहार, झारखंड, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश तथा छत्तीसगढ़ के संगम के रूप में सोनभद्र अपने आप को प्रस्तुत कर रहा है।
कुछ समय के उपरांत जैसे-जैसे बाजार में मेरी रंगत बढ़ी, खरीदार आने शुरू हो गए। कोई खरीदार बिहार से होता तो कोई झारखंड से, कोई उत्तर प्रदेश का निवासी होता तो किसी के तालुकात मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ से।
जिस तरह से भिंडी बाजार में टमाटरों को दबा दबा कर जांचा परखा जाता है उसी प्रकार से मेरा भी परीक्षण किया जाने लगा। तब मुझे एहसास हुआ बगीचे के माली के सामने फूलों को तोड़ना कितना मुश्किल होता होगा।
कोई खरीदार मेरी ऊंचाई पूछता तो कोई मेरी चौड़ाई। एक बात कॉमन थी, सभी खरीदारों ने कोरे पन्ने पर छपी डिग्रियों के बारे में अवश्य पूछा था। वही ऊंची ऊंची डिग्रियां जिसे प्राप्त करने में मेरा तेल पसीना निकल गया था। उन्हीं डिग्रीयों के बलबूते ही अनेक खरीदार ऊँची कीमत देकर भी मेरा सौदा करने को लालायित थे।
मेरे बेचनहारों ने सवा ढ़ाई दिन तक माथापच्ची करके एक बहुत ही उम्दा रेट लिस्ट तैयार किया था। उसमें बारीकी से जोड़ तोड़ किया गया था। जूते की ब्रांड से लेकर मोटर कार की रंग रंगत तक सभी कुछ का बहुत ही उम्दा तरीके से बखान किया गया था। मिलाजुला कर 40-50 बक्सों का जुगाड़ था।
संयोगवश एक ख़रीदार ने मेरे दरवाजे पर दस्तक दी और शुरू हुआ मेरा मोल भाव कार्यक्रम। मेरे बेचनहारों ने बढ़ चढ़कर मेरी बोली लगाई। ब्लैक कलर की कार, 10 तोला सोना, 25 लाख रुपये कैश, गुक्की के जूते, रॉलेक्स की घड़ी, टीवी, फ्रिज़, वाशिंग मशीन, माइक्रोवेव आदि आदि।
मैंने पाया कि हिसाब किताब करने के उपरांत खरीदार को वस्तु महंगी जान पड़ी। सो वह जल्द आने की बात कहकर रफूचक्कर हो गया।
अब तक मेरे बेचनहार भी खरीदारों की काबिलियत देखकर मेरा दाम ऊंचा नीचा करना सीख चुके थे। फिर वह समय भी आ गया जब मुझे एक खरीदार ने ऊंचे दाम देकर खरीद लिया। अब मैं बिक चुका था। मेरी स्थिति एक गुलाम वाली हो चुकी थी। या फिर कहें उस से भी बदतर। जहाँ एक गुलाम को बार-बार खरीदा बेचा जा सकता था। वह आजादी भी मेरे पास नहीं रही। सारी जिंदगी के लिए बस मेरा एक मालिक मौला हो सकता था।
मैं बीच बाजार में बैठा बैठा सोच रहा था – काश! मैंने गलती नहीं की होती। मौकों को भुना लिया होता तो मुझे आज यह दिन देखना नहीं पड़ता। कुदरत का करिश्मा है कि वह हर किसी को एक मौका अवश्य देती है। मुझे भी मिला था, एक नहीं बल्कि अनेक।
आज फिर पुरानी यादें ताजा होने को आई। उसका मुस्कुरा कर चला जाना नजरें मिलते ही नजरें झुका कर शर्मा जाना। कदम से कदम मिलाकर हाथों को थाम लेना। कॉलेज का वह गुजरा जमाना फिर से याद आने लगा। ख़ैर, अब वह गुजरा जमाना था।
मेरे खरीदारों ने एक निश्चित समय सुनिश्चित किया। जब मेरी मुलाकात उस शख्सियत से करवाई जानी थी जिसके नाम से मेरी रजिस्ट्री होने वाली थी। सो मेरे बेचनहारों ने सजा धजा कर मुझे उनसे मिलने के लिए भेजा।
मैं नियत समय पर उनसे मिलने के लिए एक कॉफी शॉप में जा पहुंचा। पर वें नदारद थी। सो इंतजार मुझे ही करना था। वैसे भी व्यापार की बारीकी से मैं पहले से अवगत था। एक दुकानदार को ही खरीदार का इंतजार करना पड़ता है।
कुछ इंतजार के बाद इंतजार की घड़ियां समाप्त हुई और उनका दीदार हुआ। बातों की शुरुआत आम तरीके से नाम पूछने से हुई। इसके बाद काम की बारी आई। दो – चार इधर उधर की भी बातें हुई। ज्यादा बातें नहीं हो पाई। क्योंकि उसे खरीदारों ने चुप करा रखा था और मुझे मेरे बेचनहारों ने।
अंतत: रजिस्ट्री का समय निश्चित किया गया। पक्की रजिस्ट्री से पहले कच्ची रजिस्ट्री की बारी थी। मेरे खरीदारों तथा बेचनहारों ने एक दिन घर-परिवार, नाते-रिश्तेदारों के सामने हम दोनों की इंगेजमेंट कर दी। बिल्कुल वैसे ही जैसे ड्राइवरी लाइसेंस से पहले लर्नर लाइसेंस बनता है। अब हमारे संबंधों को आधे-अधूरे तरीके से समाज की रजामंदी मिल चुकी थी।
धीरे-धीरे एक दूसरे को जानने समझने का सिलसिला शुरू हुआ। हम घंटों एक दूसरे से बात करने लगे। वही बातें जो मैं अपनी प्रेमिका से किया करता था और वह अपने प्रेमी से। इन बातों में अंतर इतना मात्र था कि प्रेमिका की बातें सुनना शौक था जबकि यह एक मजबूरी।
समय के साथ प्रेम की बातें गहरी होती गई। एक अतृप्त प्रेम का सैलाब हमारे ज़ेहन में उपज़ चुका था। एक ऐसा सैलाब जिसमें तबाही की संभावना रत्ती मात्र शेष थी। बाबू , सोना जैसे शब्दों की जगह हाँ जी, ना जी जैसे शब्दों ने अपनी जगह बना ली थी। भ्रमरगीत ने अपना ताना-बाना छोड़कर प्रणयगीत को अपना लिया था।
अब वह समय भी नजदीक आ गया, जब मेरी पक्की रजिस्ट्री होनी थी। आखिर लर्नर लाइसेंस भी सिर्फ 6 महीने के लिए ही वैध होता है। मेरे बेचनहारों ने मुझे बहुत ही अच्छी तरह से सजा धजा कर घोड़ी पर बैठा दिया था। इस बार मेरे चेहरे पर पाउडर क्रीम भी चपोती गई थी। वैसे तो मेरी बारात बगल के जिले में ही जानी थी परंतु वह जिला दूसरे राज्य का था। मतलब इंटर – स्टेट मैरिज।
जी हाँ, आपने बिल्कुल ठीक सोचा। अब मैं बिहार का गुलाम, सो सॉरी, माफ कीजिएगा, “जमाई” बनने वाला था। ख़ैर, बिहार में एक प्रसिद्ध कहावत है –
“पूस की रात में जो जान बचाये, उसे रजाई कहते है।
बेटी के नखरे जो उठाये, उसे घर जमाई कहते हैं।“
वैसे तो मुझे बगल के जिले में ही रजिस्ट्री के लिए जाना था परंतु वह रास्ता काँटों कि सेज के समान था। वह अनेक राज्यों से होकर गुजरने वाला है। अगर मैं पक्की सड़क के रास्ते को अपनाता हूँ तो मुझे अपने गृहराज्य को छोड़कर पड़ोसी राज्यों छत्तीसगढ़ एवं झारखंड के नक्सल प्रभावित क्षेत्रों से होकर गुजरना पड़ता। तब कहीं जाकर मैं अपने ससुराल में पैर रख पाता।
अत: मेरे खरीदारों ने मुझे सचेत करते हुए कहा कि दहेज में मिली एसयूवी का भोकाल बनाने की आवश्यकता नहीं है। बारात घोड़ी पर ही आना अधिक सुरक्षित है। नई एसयूवी देखकर नक्सली कहीं छिन झपट ना कर ले। घोड़ी को वे हाथ भी नहीं लगाएंगे। खरीदारों की यह तरकीब मेरे बेचनहारों को रास आई। वैसे भी बिहारियों का दिमाग इन कामों में कुछ अधिक ही चलता है।
ढोल नगाड़ों की थाप के साथ मैं पहुंच चुका था अपने होने वाले ससुराल तक। अक्सर हर युवक युवती अपने यौवन काल में इसकी कल्पना अवश्य करते हैं। आज वह कल्पना साकार होने को आई। कुछ नाते रिश्तेदार नागिन डांस भी कर रहे थे। जबकि मेरे ससुराल के आसपास के लौंडे लपेटे के चेहरे पर से मुस्कान गायब थी। मुस्कान गायब भी क्यों ना हो? जिसकी खातिर रात के अंधेरे में चांद देखने के बहाने अपनी छतों पर वे मंडराते रहते थे। आज उस पर हमेशा के लिए ग्रहण लगने वाला जो है। शायद वे सभी मन ही मन गुनगुना रहे होंगे – “शादी से पहले हमार रहलु, मिलते मरद हमके भूल गईलू” ।
यह आधुनिकता की छाप है दोस्तों, पहले गांव मोहल्ले के लड़के लड़कियों को भाई-बहन माना जाता था। परंतु आज आशिकों की लिस्ट में पहला नाम उनका ही होता है।
जो भी हो अधिकांश युवक-युवतियों की यही मजबूरी है कि उनका विवाह दूसरे की प्रेमी – प्रेमिकाओं से ही मुनासर हो पाता है। सो मैं भी इस दौड़ में पिछड़ नहीं पाया। यह एक ऐसा दौड़ है दोस्तों, जिसमें हर युवा मन पिछड़ने के सपने संजोता है परंतु पिछड़ने की इस दौड़ में कुछ विरले ही विजयश्री का आलिंगन कर पाते हैं।
अतः अब तक मैंने अपना मन बना लिया था कि मेरे नसीब में इन लौड़े लपेटों कि माशुका ही मुनासर है। इसी उधेड़बुन के बीच वरमाला के स्टेज तक मैं पहुंच चुका था। कुछ ही समय के उपरांत हाथों में वरमाला थामे दुल्हन का आगमन हुआ। मोहतरमा ने मौका मिलते ही पुष्पों का हार मेरे गले में डाल दिया। फिर मुंह भराई की रस्म हुई।
यह पहली बार था जब खरीदारों की ओर से मुझे कुछ प्राप्त हो पाया था। इससे पहले तो यह मौका सिर्फ मेरे बेचनहारों को ही मिला था। मेरा तो सिर्फ मीठा खिलाकर मुंह भराई की रस्म हुई जबकि मेरे बेचनहारों की तो तसल्ली से लिस्ट तैयार कर पेट भराई की रस्म की गई थी।
नियत समय पर सात फेरे की रस्म की गई। अब, मैं सात फेरे के सात कसमों रूपी जंजीर से जकड़ चुका था। दुल्हन के चेहरे पर मुस्कान साफ नजर आ रही थी। शायद वह यह सोच कर खुश हो रही होगी कि अब उसे बेचनहारों के सामने अपने रूप-लावण्य, ज्ञान-कौशल का प्रदर्शन नहीं करना पड़ेगा। वरना मजाल है जो दर्जनों बार परेड़ किये बगैर किसी ऐरे-गैरे, नत्थू-खैरे को लड़की पसंद आ जाए। हुजूर, यह दुनिया की ऐसी अकेली खरीदारी है जिसमें बेचनहारों को पसंद ना पसंद करने का अनोखा अधिकार है।
सारी रस्में समाप्त होने के बाद अब विदाई का वक्त आया। वही विदाई की रस्म जिसके बाद लड़की पराई मानी जाती है। “बाबुल का यह घर गोरी दो दिन का ठिकाना है।“ जैसे गीत संगीत ने इसे और भी चरितार्थ कर रखा है। मोहतरमा इस तरह से अपने नाते रिश्तेदारों से लिपट-लिपट कर रो रही थी जैसे वह मेरे साथ अपना घर परिवार बसाने नहीं मोह माया के संसार को छोड़कर हमेशा के लिए जाने वाली हो।
उसने बारी-बारी से सबसे विदा लिया। सिर्फ चंद लोगों को छोड़कर। चंद लोगों में ही वे लौंडे लपेटे भी शामिल थे जो कभी उसके आशिक – प्रेमी होने का दंभ भरते थे। ना वे आशिक – प्रेमी में इतनी कुब्बत थी कि वे सरेआम अपनी माशूका के आँसुओं के सैलाब को बहने से रोक पाते और ना ही इस मोहतरमा में इतना दम था कि अपने प्रेमी से लिपट कर रो ही पाती। अगर इन दोनों में इतना दम खम होता तो रोने धोने की नौबत आती ही नहीं।
वैसे प्रेम विवाह का कोई तजुर्बा मुझे नहीं है। आप स्वयं ही प्रेम विवाह उपरांत विदाई की रस्म का अवलोकन कर सकते हैं।
ठीक ही कहा गया है –
“दिल की बातें जुबान से नहीं कही जाती। वह तो आँखों के फँसानों से बयां होता है।“
शायद जिस तरह से मोहतरमा का इश्क़ अंखियों के इशारों से परवान चढ़ा होगा। आज उस इश्क़ की विदाई भी इन्हीं इशारों के साथ हो गई होगी। लौंडे लपेटे को मोहतरमा का यह इशारा अवश्य रास आया होगा। चाहे दुनिया इसे समझे या फिर ना समझे।
अब वह मोहतरमा विदा होकर मेरे घर आ गई थी। एक सजी – धजी खूबसूरत दुल्हन के रूप में। छिटपुट रस्में यहाँ भी निभाई गई। हंसी मजाक के साथ समय गुजरते-गुजरते सुहागरात की वेला भी आ गई। वही वेला जिसका इंतजार हर एक पति पत्नी को बरसों से रहता है। “मन का मिलन होने में तो वर्षो लग जाते हैं परंतु तन का मिलन ही सुहागरात की अंतिम परिकाष्ठा है।“ अतः मुझे भी इस हवन कुंड में आहुति देने का अवसर मिला था।
रात के दो ढाई पहर बितने के उपरांत मेरा दुल्हन के कमरे में पदार्पण हुआ। दुल्हन सुहागरात की सेज पर बैठे-बैठे मेरा चिंतन कर रही थी। मैंने माहौल को रोमाँचक बनाने के लिए दो-चार प्रेम भरी बातें की। फिर हम दोनों सो गए अगली सुबह से अपने नए जीवन का आग़ाज़ करने की बचनवध्द्ता के साथ।
मुझे अगले दिन ही काम धंधे के लिए अपने कर्म स्थान पर वापस जाना पड़ा। एक सरकारी अधिकारी को इतनी छुट्टी कहाँ जो महीनों हनीमून मना सके। मेरे बेचनहारों ने मोहतरमा को भी मेरे साथ जड़ दिया। मजबूरन सुहागरात के अगले दिन ही मुझे नई नवेली दुल्हन को साथ लेकर अपने कर्म स्थान के लिए रवाना होना पड़ा। मेरे बेचनहारों की इस करतूत से मोहतरमा थोड़ी नाराज थी। मैंने अपने कर्म स्थान पर दो कमरे का एक फ्लैट ले रखा था। सरकारी क्वार्टर की दशा जगजाहिर है।
आपको अच्छे से पता है कि एक कुंवारे युवक के घर की दशा दुर्दशा कैसी हो सकती है। मोहतरमा को घर के दर्शन होते ही उसका पारा सातवें आसमान पर था। आख़िर क्यों न हो? घर तो उसे ही सजाना सवारना था। जरा सी नोकझोंक के साथ मोहतरमा ने उस घर में रहना स्वीकार किया।
जब मैं शाम को घर वापस लौटा तो पाया कि मोहतरमा टीवी शो देखने में मशगूल है। वह टीवी पर प्रसारित होने वाले लोकप्रिय सीरियल “100 दिन सास के” देखने में खोई हुई थी। खुदा का शुक्र है अभी तक सीरियल वालों ने पतियों के लिए कोई एक्सपायरी डेट तय नहीं कि। नहीं तो “एक्स हस्बैंड” की कतार लग जाती।
नए घर में मोहतरमा का पहला दिन था। शादी-ब्याह के चक्कर में वह थक भी गई होगी। यह सोचकर शाम का खाना किसी अच्छे से रेस्टोरेंट में खाने की मैंने सोची। डिनर करने के उपरांत हम जल्द ही वापस घर आ गए। मैं अपने ऑफिस का काम निपटाने में मशगूल हो गया और वह सोने के लिए बेडरूम में चली गई।
कुछ समय के उपरांत मेरे ज़ेहन में प्रेम-राग उमड़ पड़ा। मैं अपना काम अधूरा छोड़ कर बेडरूम में उपस्थित हो गया। परंतु यह क्या मोहतरमा तो निंद्रा के आगोश में समा चुकी है। मेरे लिए अब कोई जगह शेष नहीं थी। काश! ऐसा होता, सुहागरात को जो कुछ भी खामियां शेष रह गई थी, उसे हम आज पूरा कर पाते। इन्हीं अधूरे अरमानों को संजोते संजोते ना जाने कब मैं भी निद्रा के आगोश में समा गया, पता नहीं चला।
सुबह जब मैं उठा तो पाया की 9:00 बज चुके हैं। मोहतरमा अभी भी सोई हुई थी। मैं झटपट में तैयार हुआ। पहले तो सोचा मोहतरमा को नींद से जगा लूँ। शायद वह नाश्ता तैयार कर देगी परंतु कुछ सोच कर रुक गया। मैं ऑफिस के लिए निकल चुका था। परंतु मोहतरमा अभी तक निद्रा देवी से लिपटी पड़ी थी।
आज ऑफिस में कुछ ज्यादा ही काम था। जब मैं कैंटीन में लंच के लिए गया तो बेटर ने भी फब्तियां कसना शुरू कर दिया। क्या साहब, लगता है मैडम नाराज हैं? पहले दिन ही बिना लंच दिए भेज दिया। उसके बाद क्या था? मैं अपने सहकर्मियों के बीच हंसी का पात्र बन गया। कोई कहता- तुम्हारी सुहागरात में ही कमी रह गई होगी, तो कोई कहता- शायद लड़की कुछ ज्यादा ही हाई-फाई है वरना ऐसा थोड़े ही होता है। पहले दिन ही भूखा रहना पड़े।
सहकर्मियों ने सफल शादीशुदा जीवन के लिए अनेक नसीहते दे डालीं। इन सब नसीहतों से निपटने के बाद मैंने मोहतरमा को फोन किया। शायद वह भूखी होगी। पर यह क्या? मोहतरमा ने बताया कि उसने तो लंच ऑनलाइन मंगा कर खा लिया है। भला हो इन ऑनलाइन वालों का। वरना ऐसी हाई फाई लड़कियों का खुदा ही मालिक है।
ऑफिस से अब मैं घर आ चुका था।
मैंने पाया की शाम के खाने का भी कोई इंतजाम मोहतरमा ने नहीं किया है। सब्जियां फ्रिज में पड़ी पड़ी मुझसे क्षुब्ध हो गई है। वे सभी मुझसे शिकायत कर रही थी। कब उन्हें कांटा तराशा जाएगा, कब उन्हें मसालों के साथ भुना जाएगा और कब उन्हें प्लेटों में सजाकर परोसा जाएगा?
मैंने अपने प्रिय सब्जियों की यह शिकायत मोहतरमा को कह सुनाई। उसने मुझ पर कटाक्ष करते हुए नसीहत दी कि कामवाली को रख लों या फिर ख़ुद किचेन की बागडोर संभाल लो। पर उससे इसकी अभिलाषा ना रखो। आखिर उसने मुझ से विवाह किया है गुलामी थोड़े ही की है। मोहतरमा की कटाक्ष भरी बातें सुनकर गुस्सा आना लाजमी था। परंतु इसे मैंने उसका बचपना समझ कर माफ कर दिया।
रखने को तो मैं कामवाली बाई रख सकता था परंतु मैं अपने घर गृहस्थी में किसी तीसरे का प्रवेश नहीं चाहता था। मेरा मानना था कि पति पत्नी को सिर्फ एक दूसरे पर डिपेंडेंट होना चाहिए ना की किसी तीसरे पर।
अब मजबूरन मुझे किचेन की जिम्मेदारी संभालने थी। आखिर मैं कितने दिनों तक होटल ढाबों के बलबूते अपनी क्षुधा को तृप्त कर सकता था। वैसे भी मैं नहीं चाहता था कि समाज में हास्य का पात्र बनूँ। कुछ महीनों तक यूँ ही चलता रहा। मैं खाना पकाता रहा और वह खाना खाती रही। हद तो तब हो जाती जब मुझे उसके सूट-बूट को भी साफ सुथरा करना पड़ता। मेरी माँ, चाची अक्सर मुझसे बहू के बने हुए व्यंजनों के बारे में पूछती। मजबूरन मुझे झूठ बोलना पड़ता।
एक दिन मेरी प्यारी भाभी मेरे घर आ धमकी। भाभी का यह पहला मौका था। जब वह मेरे कर्म-स्थान पर आई थी। वैसे भी कुंवारे देवरों के पास भाभियाँ कहाँ जा पाती है। मुझे बहुत खुशी हुई परंतु भेद खुलने की आशा से डर भी लगने लगा।
उनका सप्ताह भर तक रुकने का प्रोग्राम था। मैंने एक-दो दिन तक मोहतरमा के तबियत खराब होने का झूठा बहाना बनाया। भाभी मेरे साथ नए-नए व्यंजनों को बनाने की रिहर्सल करने लगी। वह बड़े जतन से व्यंजन बनाती और बड़े ही प्यार से मुझे और अपनी देवरानी को खिलाती। किसी तरह से मैंने भाभी के आँखों पर आवरण का पर्दा डाले रखा। खुदा ही गवाह है मुझे क्या-क्या मशक्कत करनी पड़ी थी।
आज मेरी प्यारी भाभी वापस जा रही है। सो हम उन्हें स्टेशन तक छोड़ने के लिए गए। शायद इसके पीछे मेरा निहित स्वार्थ था। अपनी आँखों से देखकर तसल्ली कर सकूं कि अब खतरा टल चुका है। पर यह क्या?
भाभी ने मेरा हाथ पकड़ा और स्टेशन के दूसरे छोर पर एकांत में ले गई। जब मोहतरमा ने रोकने की कोशिश की तो भाभी ने चेतावनी देते हुए कहा – यह देवर-भाभी के बीच का सीक्रेट है। वहाँ तुम्हारी कोई जरूरत नहीं।
भाभी ने बड़ी ही गौर से मेरी तरफ देखा। आज तक उन्होंने मुझे इस तरह से कभी नहीं घुरा था और ना ही कभी उन्हें मुझे एकांत में ले जाने का मौका मिला था। सो मैं भी नासमझ बनकर सिर्फ उन्हें देखता रहा। तभी उन्होंने मुझसे कहा – दाई से पेट नहीं छुपाया जाता बेटे। तुम क्या समझे, मुझे पता नहीं चल पाएगा। अपनी पत्नी को सपोर्ट करना अच्छी बात है परंतु सर पर चढ़ाना गलत। आगे तुम खुद समझदार हो।
अब मेरे आँखों में आँसू आ गयें। दिल तो कर रहा था भाभी से लिपट कर अपनी सारी दुख भरी कहानी कह सुनाऊ परंतु दिमाग कुछ और इशारे कर रहा था। तभी ट्रेन का भोपू बज़ उठा। मैंने भाभी से वादा लिया कि वह यह राज कायम रखेगी।
लौटते वक्त मेरे जेहन में भाभी की बातें बार-बार हिचकोले लगा रही थी। मुझे डर लग रहा था कि अगर यह भेद नाते रिशतेदारों को पता चल गया तो फिर मेरी क्या हैसियत रह जाएगी?
मुझे खामोश पाकर मोहतरमा ने पूछा – आखिर भाभी से क्या क्या सीक्रेट बातें हुई? मैंने बात को टालते हुए जबाब दिया – कुछ भी ख़ास नहीं, बस यूँ ही।
मैं मोहतरमा को आवास पर छोड़कर ऑफिस चला गया। अभी भी भाभी की कही बातें मेरे कानों में गूँज रही थी।
उधर भाभी घर पहुंच चुकी थी। भाभियाँ देवर से किए वादे को कहाँ निभा पाती है सो मेरी भाभी निभा पाती। उन्होंने घर पहुंचते ही नमक मिर्च लगाकर मेरी व्यथा कह सुनाई।
बस क्या था? मेरे बेचनहारों ने लंका दहन की तैयारी शुरू कर दी। उन्होंने मुझे फोन पर ही लताड़ा। मैं कुछ भी जवाब देने की स्थिति में नहीं था। सोच विचार कर मैंने भी मन बना लिया था कि अब मोहतरमा से वाद विवाद करना पड़ेगा।
मैं ऑफिस से घर वापस आ चुका था। मोहतरमा टीवी सेट पर “100 दिन सास के” सीरियल देखने में व्यस्त थी। अब मैंने बात छेड़ी।
मोहतरमा का दो टूक जवाब था – उसके माता-पिता ने इतना दान दहेज घर का काम करने के लिए नहीं दिया है। मेरे माता-पिता ने तुम्हारी हर जायज-नाजायज माँग को सलीके से पूरा किया है। इसके बाद उसने पूरी लिस्ट बारीकी से गिना दिया। एक पुरुष होने के नाते मेरे स्वभाव में उबाल आना लाजमी था। मैंने भी पलटवार किया – यह दान दहेज तुम्हारे माता-पिता ने कोई खैरात में नहीं दी है। उन्हें सरकारी नौकरी वाला दामाद चाहिए था। जिससे समाज में अपना रौब झाड़ सकें। इसलिए ही उन्होंने भारी-भरकम रकम चुकाई है।
मोहतरमा का जवाब था – जब तुम मुंह खोलकर अपना रेट बता सकते हो तो हम क्या सरकारी नौकरी वाला दूल्हा की भी चाहत नहीं कर सकते? इसी सरकारी नौकरी के दम पर तुम सुंदर, सुशील, गुणवती और न जाने क्या-क्या गुणों से युक्त लड़की की फरमाइश करते हो। चाहें ख़ुद की शक्ल छुछुंदर जैसी क्यों न हो। फिर इसी सरकारी नौकरी के दम पर दर्जनों लड़कियों को रिजेक्ट करने से भी नहीं घबराते।
मोहतरमा यहीं पर नहीं रुकी। आगे उसने मेरी औकात बताते हुए कहा – तुम खुद ही साक्षी हो, नौकरी से पहले तुम्हारे पास कितने रिश्ते आया करते थे और उस समय तुम्हारा रेट लिस्ट किया था?
मेरे पास इसका कोई जवाब नहीं था। जब मैंने यह बात मेरे बेचनहारों को बताई तो वे आग बबूला हो गए। उन्होंने तुरंत ही खरीदारों से इसकी शिकायत की कि उनका माल डिफेक्टिव है। परंतु खरीदारों ने माल वापस मंगाने से मना कर दिया।
खरीदारों ने जवाब दिया – जो कुछ भी उनकी लाड़ली बेटी ने कहा है वह अक्षरशः सही है। उन्होंने मुझे इतना ऊंचा दाम देकर इसलिए ही खरीदा था कि उनकी बेटी खुश रह सके। अगर उन्हें अपनी लाड़ली बेटी को दासी ही बनाना होता तो फिर इतना दान दहेज क्यों देते? आख़िर सरकारी नौकरी वाला ही दूल्हा क्यों?
मेरे पास समझौता करने के अलावा और कोई चारा नहीं था। मजबूरन मैंने यथार्थ को स्वीकार किया। अब मैं समझ चुका था – “दूल्हा बिकता है बाजार में ” की कहावत मेरे साथ चरितार्थ हो चुकी है। चूँकि मैं जेंडर बैलेंस एंड इक्वलिटी पर विश्वास करता हूँ। इसलिए मुझे मोहतरमा का पक्ष अधिक मजबूत व तर्कसंगत लगा। उसकी कही बातें यथार्थ के काफी करीब थी। मेरे बेचनहारों एवं खरीदारों ने मेरा सौदा किया था। जिसमें दोनों ने सिर्फ अपना-अपना मुनाफा देखा था।
प्रेम, समर्पण और विश्वास जैसी कोई भी क्वालिटी इस रिश्ते में मौजूद नहीं थी। प्रेम, समर्पण और विश्वास के बलबूते ही हम पत्थर में भी भगवान ढूँढते हैं। मोहतरमा भी इनके अभाव में सिर्फ अपना सुख चाहती थी और मैं अपना। मैं इस लायक़ भी नहीं बचा था कि उसे हमारे रिश्ते कि दुहाई दे सकूँ। जिस रिश्ते कि शुरुआत ही स्वार्थ से हुई हों, उस रिश्ते में प्रेम, समर्पण और विश्वास कैसा?
आप समझ सकते है की मेरी स्थिति “जोरू का गुलाम” वाली हो चुकी थी।
मैं दूल्हा बाजार की इस दौड़ में अव्वल आया था।
दोस्तों, सावधान हो जाइए। कहीं अगला नंबर आपका तो नहीं ….!