दो किलो आम

 दो किलो आम

कल्याण सिंह आंध्रप्रदेश में रहते हैं ।बी टेक हैं और साहित्य की इंजीनियरिंग भी भलीभांति करते हैं ।पढ़िए इनकी यह इंजीनियर्ड कहानी ।

जैसा कि गर्मी का मौसम था तो दिनेश ड्राइवर ने पहले से ही कार का A .C चालू रखा था।
वो मेरे व्यवहार से पूरी तरह वाकिफ़ था कि साहब इंस्पेक्शन पर गए है जरूर गरम होकर ही आएँगे।

इधर मेरे आते ही दिनेश ने गाड़ी का दरवाज़ा खोल दिया।
दिनेश ! चलो – पीछे बैठते ही मैंने बोला।
गांव की सकरी सड़को को चीरते हुए हम कब मुख्य मार्ग पर आ गए , समय का पता ही नहीं चला।

ट्रिन … ट्रिन …
निकल लिए ? – उधर से सुनीता का फ़ोन आया।
हां निकल लिया हूँ।
सुनो ! आते समय वहाँ से आम लेते आना।सुना है वहाँ आम बहुत बढ़िया मिलते है।
और कोई फरमाइश ! – एक मुस्कान भरी आवाज़ में।
नहीं , जल्दी घर आईये।
जी बहुत जल्द ! बोलते ही फ़ोन कट गया।

अरे दिनेश ! यहाँ पर अच्छे आम कहाँ मिलते है ?
सर ! थोड़ा सा आगे जाने पर मेन बाज़ार में बहुत तरह के आम मिलते है।
अच्छा ! चलो रोक देना जब बाज़ार आये।
बिल्कुल सर !

जैसे ही थोड़ा सा आगे निकले ; वैसे ही बाएं तरफ आम बेच रही ; एक बुज़ुर्ग महिला पर नज़र गयी।
दिनेश ! वो उस आम वाली के पास रोको।
सर ! मगर इसके पास तो सिर्फ एक ही तरह के आम है ? आगे बाजार में बहुत तरह के आम मिल जाएंगे।
नहीं ! इसी के पास चलो।
जी सर ! – बोलते हुए कार सीधे आम बेच रही महिला के सामने रुकी।
इधर हमारी गाड़ी को रुकता देख , बुज़ुर्ग महिला अपने हाथ में दो आम लिए एकदम से अपने स्थान पर खड़ी होकर, हमलोग को बुलाते हुए – आओ बाबू साहब ! बहुत मीठे आम है। सीधे बगीचे से तोड़ के लाये है।
दिनेश ! जाओ आम ले लो – इतना बोलते ही मैं महिला के आमों को देखने लगा।
वहां का दृश्य तो देखने ही वाला था। चारों तरफ सूखे हुए नीम के पत्ते फैले हुए थे और उन पत्तों के बीच में पांच फिट लम्बी और चार फिट चौड़ी जगह एकदम साफ़ सुथरी सी थी। जिसके बीच में दादी एक छोटे से पत्थर पर बैठे , दो फ़टे हुए बोरों पर रखे हुए आमों और उसको तौलने के लिए तराजू से ! अपने जीवन – यापन को चलाने के लिए कड़ी धूप से जूझ रही थी। और उनके पास एक छोटा सा लड़का नीम के पेड़ से गिरे निमकौड़ी बीनकर खा रहा था।
” कहो दादी आम कइसे बा ? ” – दिनेश ने वहां के स्थानीय बोली में पूछा।
तीस रुपइया किलो साहब !
ज्यादा बा ! पिछवा त अबहीन पच्चीस में देत रहा।
नाहीं साहब ! इ बहुत मीठा बा, सीधा बगीचा से तोड़ के लाए बाई।
दिनेश ! मोल भाव मत करो , जितने का दे रही है उतने का ले लो – मैंने कार से बोला।
उधर दिनेश आम छांटने लगा , तभी मेरी नज़र बगल में गन्ने के जूस के ठेले पर पड़ी। एक वृद्ध आदमी सर पर पगड़ी बाँधे लकड़ी के एक फट्टे पर बैठे किसी ग्राहक की तलाश में इधर – उधर देख रहे थे।
इतने में वहां एक गाड़ी ने दस्तक दी। उसमें से तीन लोग नीचे उतरे , जिसमें से एक के हाथ में सिगरेट और बचे दो लोग मोबाइल पर लगे हुए थे।
ए बुढ़ऊ ! जल्दी से तीन गिलास ताज़ा जूस बनाओ – एक ने मोबाइल पर बात करते ही बोला।

इतना सुनते ही ! वृद्ध आदमी हाथ से चलने वाली गन्ना पेरने वाली मशीन को साफ़ करने लगे।

तभी उसमें से एक ने एकदम चिल्लाते हुए आवाज़ में – ए बुढ़ऊ ! अभी तक जूस नहीं बना ?
साहब ! बस दो मिनट में बन जाएगा।
इतना बोलते हुए मशीन में गन्ना लगाकर हैंडल घुमाना शुरू कर दिया, लेकिन कुछ ही देर में हैंडल की रफ़्तार भी उम्र की तरह धीमी हो गयी।
साहब ! बस दो मिनट में आती हूँ। – बोलते हुए दादी पीछे से हैंडल पर ज़ोर देकर धीमी रफ़्तार को अपनी ज़िन्दगी की तरह तेज़ कर दिया। पहला भोग भगवान को भेट करके जैसे ही हैंडल चलाना शुरू किया।
अरे बुढ़ऊ! जब काम करने का दम नहीं है , तो जाकर घर बैठ। – उसमें से एक ने चिल्लाते हुए बोला। चल यार आगे कहीं और पी लेंगे , इसने पूरा समय खराब कर दिया। इतना बोलते ही तीनों गाड़ी में बैठकर जाने लगे।
और पीछे से दादी गिड़गिड़ाते हुए बोली – रुक जाइये साहब … …
फिर थोड़ी सी मायूसी से बोलने लगी – आज तो लगता है कि आज जूस की बोहनी नसीब नहीं होगी।
मैंने घड़ी में समय देखा तो दोपहर के चार बजे थे। इधर मन ही मन कुछ सोचते हुए कि मैं यहाँ अपना सब काम करके घर निकल रहा हूँ। और अभी इनकी बोहनी नहीं हुई है। अचानक मेरे मन की ज़ुबान से निकल ही पड़ा – दिनेश जरा दो गिलास गन्ने का जूस भी बोल दो। इतना बोलते हुए मैं कार से नीचे उतरते हुए सीधा जूस के ठेले के पास रुका।
इधर दिनेश भी आम का थैला कार में रखते हुए जूस के ठेले के पास आ पंहुचा। और गन्ना पेरने में उनकी मदद करने लगा।
अरे साहब ! ग्राहक तो हमारे लिए भगवान का रूप होता हैं हमसे इतना बड़ा पाप मत करवाइये। – दादी एक मुस्कान के साथ दिनेश को रोकते हुए बोली , फिर जूस पेरने में दादा जी की मदद करने लगी।
अरे दादी ! ग्राहक नहीं तो बेटा ही समझ लो – दिनेश ने एक माँ की ममता पर विजय का अपना पंचम लहराते हुए बोला।
इतने में दादी थोड़ी सी उदासी भरी आवाज़ में –
अब क्या बताये साहब ! जिसके मदद की जरूरत है वो तो … मैं तो ऊपर वाले से यही कामना करती हूँ कि जहाँ कही भी मेरे बाल – बच्चे हो , उनको ज़िन्दगी की हर मुसीबत से लड़ने की हिम्मत दे।

और मैं दोनों के बीच के संवाद को चुपचाप सुन रहा था।
दादी ! कितने बच्चे है आपको ? – सामने से मैंने पूछ लिया।
साहब ! दो बेटे थे लेकिन अभी एक ही बेटा है।- उदासी भरी आवाज़ में बोली।
एक ही बेटा ?
हां साहब ! बड़ा बेटा को तो भगवान ने जितने दिन के लिए भेजा था वह अपने दिन पूरे करके और सबके दिलों में अपनी कमी छोड़कर जहां से आया था। वही चला गया – इतना बोलते ही उनकी आँखो से आँसू की बूँदे टपकने लगी।
बहुत दुःख की बात है और उनके बाल बच्चे ? – मैंने उदास भरी आवाज़ में पूछा।
बहू तो हम सभी के पेट भरने के लिए घर-बार सम्हाली हुई है।और एक नाती जो हम लोग के जीवन में उम्मीद की किरण बनकर , रोज हम लोग को यहां ले आया करता है। – निमकौड़ी बीन रहे बच्चे की तरफ इशारा करते हुए बोली।
छोटा बेटा कहां है ? – मैंने अपने जेब से बिस्किट का पैकेट उस बच्चे के हाथ में रखते हुए। खा लो बेटा ! उस समय बच्चे की आँखों में उत्पन्न हो रहे विस्मयकारी भाव देखते ही बनता था।

साहब ! हमारे पालन – पोषण में कुछ कमी रह गयी थी। तभी वो हम सब से रूठ कर परदेश में रहता है। छोटा बेटा पढ़ने में अच्छा था। तो बड़े बेटे ने अपने बड़े भाई होने का फ़र्ज़ निभाते , उसको बाहर पढ़ाने के लिए हम सभी से लड़ कर सारी जमीन बेच दी। सोचा था कि पढ़ लिख कर बड़ा आदमी बनेगा और हम दोनों के लिए अंधे के आँख की लकड़ी बनेगा। लेकिन जब छोटे बेटे की बारी आयी तो वो हमलोगों को पराया बना दिया। अब ज़मीन कुछ रही नहीं तो यही जूस और फल बेचकर अपने बड़े बेटे की कमी को पूरा कर रहे है।
क्या तुम भी शुरू हो जाती हो ? – दादा जी पीछे से डाँटते हुए बोले।

शुरू क्या होना ! साहब अच्छे आदमी है तो बस अपने दिल का हाल बता रही हूँ।
दादी रहने दीजिये ! मैं अब आप के दुःख को और नहीं खुरेदूँगा – मैं जूस का गिलास ठेले पर रखते हुए बोला।

क्या दुःख साहब ! मेरे को हाथ जोड़ते हुए बोलने लगी – आज आपके दो किलो आम की कृपा से ही हमारे घर का चूल्हा जलेगा।