नदी की बहती धार
विमलेश गंगवार ,संस्कृत की भूतपूर्व प्रवक्ता हैं । इनके तीन उपन्यास और एक कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं ।विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में आपकी कहानियाँ ,कविताएँ और लेख प्रकाशित होते रहते हैं ।]
पर्वत-सा उत्तंग बन्धा, इस पर सरकारी काॅलोनी, उस पार बन्धे के नीचे बसी वस्ती। पोलिथीन, घासफूस, टाट-बोरों से बनी झोपड़ियाँ और उनके मध्य खड़ा पुरातन धना नीम का झबरीला पेड़। इसकी टहनियों पर चिडियों की चहचहाहट, उनके पंखों की फड़फड़ाहट, और चोंच कटकटाने की आवाजें।
तपती जलती दुपहरियों में कालोनी के सम्भ्रान्त लोग जब ए0सी0 में आराम कर रहे होते है तब बंधे की महिलाये नीम की शीतल छाह में बैठी बातें कर रही होती है। कोई आंचल में ढक कर अपने शिशु को दूध पिलाती है तो कोई खेलते और परस्पर अश्लील गालियों की बौछारें करते बच्चों को चुप कराती है। बड़ी बूढ़ियाँ नीम के नीचे बैठ बहू-बेटियों की कुटैंबो की चर्चा करती, लपलपाती लपट-सी बढ़ती महगाई की बाते, फलाने की बहू के बच्चा होने की बात तो फलाने……. की बेटी के बच्चा न होने की बात……… और न जाने कितनी बातें करतीं।
बरसात क्या प्रलय आ जाती है। पानी भर जाने पर बस्ती के लोग सामान लेकर बन्धे के ऊपर भागते है। हर साल यहीं झमेला, यही मुसीबत।
बीरा का पति हरीराम रिक्शा लेकर आधी रात से गया है। रेल आती है उस वक्त सवारियाँ ज्यादा मिल जाती है। हरीराम कल ही बीमारी से उठा है पर पेट की आग बुझाने को कुछ तो चाहिए ही। नदी की लपलपाती धार को देखर बीरा घबरा रही है। एक ओर पति के वापस न आने की चिन्ता, दूसरी ओर नदी की उफनती धार की चिन्ता।
गीली साड़ी बीरा को अब लिजलिजी लगने लगी। बरसात मंे कपडे़ भला कहां सूखते है। नन्हें के सभी कपड़े गीले पड़े है। नन्हें की छाती ठंड में जकड़ गयी है। खाँंसते-खाँंसते उसका बुरा हाल है। बीरा ने अपने रोते बच्चे को छाती से सटा लिया। यह बरसात भी गरीबों के लिए काल है काल………..।
बैनरों से ढकी गाड़ियाँ बंधे पर आ खड़ी होती है। लोग भीड़ लगा कर खड़े हो जाते है। ये लाउडस्पीकर पर चिल्लाते है- हम इन्सानी अन्तर को मिटाएंगे, बच्चों को निशुल्क शिक्षा और बीमारी का फ्री इलाज कराएंगे। गरीबों के लिए पक्के घर बनवाएंगे, महिलाओं को सिलाई-बुनाई सिखाकर उन्हें आत्म-निर्भर बनाएंगे, बेरोजगारों और नवयुवकों को रोजगार दिलवाएंगे।
मोहन काका का झुर्रियों से भरा और सूखे नारियल-सा पिचके गालों वाला चेहरा खिल उठता है। वीरा, सोना, शांति , सरला, मुन्नी, शिवरानी और बूढ़ी आजी सबकी आंखे चमकने लगती है।
काॅलोनी बनेगी तो हर बरसात में बन्धे पर चढ़ने और उतरने से तो फुरसत मिलंेगी। कितना कष्टदायी है गृहस्थी हटाना, बन्धे पर चढ़ना……..। और जब नदी घट जाए तो फिर पुराने ठिकाने पर लौटना।
मोहन काका बस्ती की बहू-बेटियों को कई-कई बार समझाते, देखा यह कागज, इसमें इसी ठिकाने पर मुहर लगानी है ………….।
नन्हा जोर-जोर से रोने गता है। वीरा ठंडी हथेली से उसकी दुखती पसली सहलाती है। अंधेरे में बैठी बीरा झोपडी की ओर बढ़ती नदी की धार को देखती है। सन्नाटे और अंधेरे को चीरती हुई रेल पुल से निकल गई। रेल की सीटी उसके कानों को झनझना गई। हांॅ पानी में झिलमिलाती ट्रेन की रोशनी उसे अच्छी लगी।
उमड़ती लहरे झोपड़ी की दीवारों से टकराने लगी थी। लोग सामान सहित बन्धे पर आ रहे थे। बन्धे के उस पार सरकारी कालोनी की मल्टी स्टोरी इमारतों में विद्युत बल्ब जगमगा रहे थे। वीरा ने आज दिया भी नहीं जलाया है। जलाये भी तो कैसे ? तेल कहां है दिये के लिए।
मोहन काका का बीटा वंशी रिक्शा लाता हुआ दिखाई दिया। वीरा का शक ठीक ही निकला। उसका पति हरीराम ही बैठा था। रिक्षे पर वीरा को देख वंशी बोला-
’’ भौजी बहुत तवियत खराब है हरी भैया की । ऐसे में रिक्शा लेकर क्यों गये थे घर से ?’’
’’मैने तो मना किया था माने तब न ? कहकर वीरा ने पति के मुरझाए मुख और रूखी काया को देखा ……….. तो आंसू ढुलक आए उसकी आखें से-
बन्धे पर पड़े बांस के खटोले पर हरीराम को उसने लिटा दिया। पड़ोसिन काकी चाय ले आई बनाकर ……. अच्छा ही हुआ उसके घर में तो आज चीनी भी नहीं थी।
’’हरीराम का घर बह गया, वह देखों बांस गया बहकर…….. नीचे से आवाजें आ रही थी। वीराने पति को चाय का गिलास पकड़ा दिया’
पूरी गहस्थी बह गयी तो क्या होग? पिछली वर्ष बाढ़ में बहा सामान तो अब तक खरीद नहीं पाई है …… वीरा ….।
बस्ती का युवक मुरली पलंग सिर पर रखे ऊपर दौड़ा आ रहा था। काकी कपड़ो की गठरी सिरपर रखे हाथ में वर्तनों से भरी बाल्टी लिये दौड़ीचली आ रही थी। बांस का टट्टर, पालीथीन के फटे अधकटे टकुड़े, अल्यूमीनियम की परात, नन्हे का टूटा खटोला लिए बस्ती के लोग बंधे पर चले आ रहे थे।
वीरा ने राहत की सांस ली। सबने उसकी गृहस्थी को बहने से बचा लिया। अजी यह बड़े लोग झूठ क्यों बोलते है इस बार कालोनी बनवाने की बात करते है और ………… ।
बूढ़ी आजी के समझ में नहीं आ रहा था कि वीरा को क्या जवाब दे। ’’हमारी बस्ती वही जा रही है कौन आ रहा है हमारा हाल पूछने’’ वीरा फिर बोली।
’’मैने सिंह साहब के टी0वी0 पर सुना है कि सरकार दवाइया, खाने का सामान, माचिस, चीनी और दूध बंटवाएगी’’ मुरली बोला।
टी0बी0 पर सुना है तो बात सच्ची होगी, मुरली भैया, दूध बट जाय तो मेरे नन्हे का पेट भर जायेगा…………..।
वीरा पूरी बात भी नहीं कह पायी थी कि हरीराम क्रोध से चिल्लाया। भिखारी है तूँ, दूध मिलेगा मुझे सुबह रिक्शा लेकर जाऊगा, चार पैसे लाऊगा, ऐसे ही थोड़े पड़ा रहूंगा खटोले पर ………..।
भगवान ने खाने के लिए मुह एक और कमाने के लिए हाथ दो दिये है न………….। खबरदार इन बड़े लोंगों के बातों का भरोसा किया तो ।
वोट की रितु निकल जाने पर सब भूल जाते है ये लोग …………। वीरा अपने पति के दुर्बल तन में सबल मन को देखकर सिहर उठी। मोहन काका अवरूद्ध कंठ से बोले बेटा हम गरीबों का धन हमारा यही मनोबल है। दुखों को झेलने की यही क्षमता यही हमारी शक्ति है। हमे मेहनत करना आता है, हम किसी के मोहताज नहीं
अंधेरी रात में सांय सांय करती पानी की आवाज और झींगुरों की आवाज बड़ी भयानक लग रही थी। कच्चे घर के पानी में गिरने की आवाज से सन्नाटा टूट गया।
नदी की तेज धारा ने वीरा के घर का मलबा अपने आगोस में ले लिया। काले गहरे पानी में दो एक दीपकों की परछाई झिलमिला रही थी। नन्हा वीरा की छाती की गरमी पा अब सो गया था।