पत्रकारिता बनाम चाटुकारिता

 पत्रकारिता बनाम चाटुकारिता

तेज प्रताप नारायण

पत्रकारिता एक जिम्मेदाराना कार्य है एक जिम्मेदार पत्रकार का काम सही तथ्य को जनता के सामने प्रस्तुत करना, तमाम अफवाहों के बीच सच्चाई खोजकर समय से पूरे तथ्यों के साथ बिना पक्षपात के रिपोर्टिंग करनी होती है
पर क्या आज के पत्रकार अपने पत्रकारिता धर्म का निर्वाह कर रहे है ?
हिन्दी प्रदेश आंरभ से ही रूढ़ियों तथा परम्पराओं का ऐसा साहित्यिक जंजाल रहा जहाँ पत्रकारिता के क्षेत्र में कुछ विशेष वर्गों का ही आधिपत्य रहा है ।

सरकार और प्रशासन से पहले ही वंचित समूहों का मोह-भंग हो चुका है । एक आख़िरी उम्मीद की किरण पत्रकारों पर टिकी थी, वो भी अब सरकार-प्रशासन से गलबहियां करती नज़र आ रही है । हम जानते है ऐसा सब मामले में नही होता है । भारत के शासक वर्गों का कब्जा हर जगह है पत्रकारिता भी इससे अछूता नहीं है । आजकल किस खबर को कितना तरजीह देना है, किसकी ग्राउंड रिपोर्टिंग कैसी करनी है उसके प्रभाव को नाप-तौल कर ही खबर परोसी जा रही है । इससे भयावह स्थिति और क्या हो सकती है !

मीडिया लोकतंत्र का चौथा स्तंभ होता है । लेकिन जब यह चौथा खम्भा ही क़रीब क़रीब अलोकतांत्रिक हो तब? ऐसी पत्रकारिता ,पत्र,अख़बार या मीडिया हाउस से क्या आशा की जाए ? जब मीडिया कुछ लोगों के हाथों की कठपुतली बन जाए तब इस कठपुतली को जैसा नचाया जाएगा यह वैसा नाचेगी । छाप मेरी बुलबुल तुझे पैसा मिलेगा तो फिर मीडिया ,अख़बार या टी वी चैनल वही छापेंगे या दिखाएंगे जो आका लोग कहेंगे,फ़िर क्या ग़लत और क्या सही ? तब पत्रकारिता नहीं चाटुकारिता होगी । तब सामाजिक न्याय,अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता आदि पत्रकारिता के आदर्श न रहकर जुमले हो जाते हैं फिर सच को झूठ और सच को झूठ बनाने का खेल शुरू हो जाता है ।
इसका मूलभूत कारण पत्रकारिता के क्षेत्र में हर तबके के लोगों का पर्याप्त प्रतिनिधित्व न हो पाना और मीडिया का व्यवसायिक हित। चूँकि पत्रकारिता भी सामाजिक चेतना का एक सशक्त माध्यम होती है लेकिन अपर्याप्त प्रतिनिधित्व के कारण सामाजिक समस्याओं और बदलाव की ख़बरें अख़बारों में सही तरीके से प्रस्तुत नहीं की जाती हैं । आदिवासियों,दलितों और पिछड़ों की जायज़ आवाज़ या तो दबा दी जाती है या अलग तरह से प्रस्तुत की जाती है ।जिस वर्ग के लोग पत्रकारिता में नहीं होंगे उनकी आवाज़ को क्यों आगे बढ़ाया जाएगा ? वैसे भी भारत का समाज कोई आदर्श समाज तो है नहीं जो अपवादों को छोड़कर परहित के लिए कुछ करना चाहता हो । इसका सीधा मतलब है कि अपना और अपने वर्गहित ही साध्य होंगे जिसका पत्रकारिता सिर्फ़ एक साधन भर होगी।

यदि अख़बारों या मैगज़ीन के लेखों का सर्वे किया जाए तो यह पता चलेगा कि दो ,चार प्रतिशत लेख ही दलितों और बहुजनों के मुद्दों से संबंधित लेख होते हैं । भारतीय दलित आंदोलन इतिहास किताब के अनुसार जनवरी 1996 से सितंबर 1996 के बीच में टाइम्स ऑफ इंडिया और हिंदू अख़बारों में दलित सवालों पर क्रमशः 0.55% और 0.85% लेख थे ।इससे स्थिति बिल्कुल साफ़ हो जाती है ।

इतिहास में पीछे जाया जाए तो 1780 में पहला भारतीय समाचार पत्र बंगाल गज़ट का आदर्श वाक्य था -‘सभी के लिए खुला, फिर भी किसी से प्रभावित नहीं ।’लेकिन बाद के समाचार पत्रों को देखें तो ऐसा बिल्कुल नहीं है विशेष कर हिंदी समाचार पत्र । ख़ास बात यह है कि यह प्रवृत्ति लगातर ज़ारी है चाहे वह अख़बार हो या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया। कुछ लोग तर्क देते हैं कि बहुजन तबके में लोग हैं ही नहीं जो मीडिया में आ सके ,तो क्या यह समाज की ज़िम्मेदारी नहीं कि वह हर तबके में ऐसे लोग पैदा करे,सबको आगे बढ़ने का मौक़ा दे जो हर क्षेत्र में भागीदारी कर सकें ।
अख़बार केवल ख़बर भर के लिए नहीं होते हैं ।उसे सामाजिक ,राजनीतिक और सांस्कृतिक परिवर्तन का वाहक बनने की ज़रूरत है ।पत्रकारिता को समाज और देश का पहरेदार होना चाहिए न कि चाटुकारिता इसका मूल लक्षण होना चाहिए ।
अच्छी ख़बर यह है कि सोशल मीडिया के आने से स्थिति ज़रूर बदली है ।अब बहुजन वर्ग के लोग यू ट्यूब चैनल जैसे माध्यम का प्रयोग कर पत्रकारिता में कदम रख रहे हैं। नेशनल दस्तक और नेशनल जनमत जैसे यू ट्यूब चैनलों के लाखों फॉलोवर्स हैं ।गाँव, कस्बों की ख़बरें भी राष्ट्रीय स्तर पर दिखाई जा रही हैं ।सोशल मीडिया सामाजिक उथल पुथल की ख़बर को बिना मिर्च मसाला लगाए लोगों तक पहुंचा रही है ।फेसबुक पर लोग अपनी बातें लिख रहे हैं ,व्हाट्सएप, इंस्टाग्राम सामाजिक ,राजनीतिक और साहित्यिक उथलपुथल और विमर्श को आगे बढ़ाने में सहायक हो रहा है ।लोग अपनी बात कहने के लिए यू ट्यूब,इंस्टाग्राम या फेसबुक पर लाइव आकर लोगों के सीधे रूबरू हो सकते हैं । मीडिया के इन टूल्स का सही से प्रयोग करके भी देश की बहु संख्यक जनता मीडिया के सामंती चरित्र का मुक़ाबला कर सकती है ।बशर्ते हम शोर और आवाज़ में अंतर करना सीख लें ।हालाँकि मीडिया का प्रभुत्ववादी चेहरा कभी नहीं चाहेगा कि बहुसंख्यक लोग सदियों से उनके प्रभुत्व वाले क्षेत्र में हस्तेक्षप करें ।रोज़ रोज़ नए तऱीके इज़ाद किए जाते हैं सोशल मीडिया को सेंसर करने का ।उद्देश्य साफ़ है मीडिया का प्रभुत्ववादी चेहरा न बदले ,लोगों को समुचित प्रतिनिधित्व न मिले और पत्रकारिता के नाम पर चाटुकारिता चलती रहे और मीडिया के दलालों की ज़ेबें भरती रहें ।