मुंशी प्रेमचंद को याद करते हुए
डॉ अनुराधा ओस
मुंशी प्रेमचंद को स्मरण करना एक युग को स्मरण करना है, वे हिंदी साहित्य का एक युग थे ,31 जुलाई 1880 को वाराणसी के लमही नामक गाँव में जन्मे मुंशी प्रेमचंद ने हिंदी साहित्य जगत में नई परिपाटी को जन्म दिया।
प्रेमचंद का नाम धनपत राय था वे नवाबराय के नाम से लिखते थे,साहित्य में यथार्थ वादी परम्परा की नींव उन्होंने रखी,प्रेमचंद से पहले हिंदी साहित्य में तिलिस्म और पौराणिक साहित्य लिखे और पढ़े जाते थे,उन्होंने इस परंपरा को तोड़ा और साहित्य को जनसाधारण के खुरदुरे यथार्थ को उठाया,नारी विमर्श पर लिखा।
माता का नाम आनन्दी देवी तथा पिता का नाम मुंशी अजायबराय था,उनके तीन संताने थी,श्रीपत राय, अमृत राय, कमला श्रीवास्तव, उनके पुत्र अमृत राय आगे चलकर हिंदी साहित्य के नामचीन लेखक बने,उन्होंने मुंशी प्रेमचंद के अधूरे उपन्यास ‘मंगलसूत्र’को पूरा किया तथा ‘कलम के सिपाही’ के नाम उनकी जीवनी भी लिखी,मुंशी प्रेमचंद प्रगतिशील परम्परा का समर्थन करते थे,तथा वे आर्यसमाज के विचारों से काफी प्रभावित थे,इसी परंपरा के चलते उन्होंने पहली पत्नी के न रहने पर दूसरा विवाह ,बाल -बिधवा शिवरानी देवी से विवाह किया।
शुरू में उन्होंने उर्दू में लिखा तदन्तर वे धीरे -धीरे हिंदी में लिखने लगे,1898 में वे मैट्रिक की परीक्षा पास कर स्थानीय विद्यालय में शिक्षक नियुक्त हुए,बी.ए. करने के बाद वे शिक्षा विभाग में इंस्पेक्टर नियुक्त हुए,1921 में महात्मा गांधी केआह्वाहन पर उन्होंने नौकरी से इस्तीफा दे दिया और पूर्ण रूप से साहित्य सेवा से जुड़ गए।
कुछ महीने ‘मर्यादा’पत्रिका का कार्यभार संभाला,छः साल तक ‘माधुरी’पत्रिका का सम्पादन किया,1930 में बनारस मेंअपना ‘ हंस ‘पत्रिका शुरू किया,1932 में ‘जागरण’ नामक पत्र निकाला,
उन्होंने कुछ समय मुंबई में जाकर फिल्मों के लिए लेखन भी किया उन्होंने मोहन भवनानी की अजंता सिनोटोन कम्पनी में कहानी लेखन किया,1934 में प्रदर्शित ‘मजदूर ‘नामक फ़िल्म की पटकथा लिखी, लेकिन फिल्मी दुनियां का रहन-सहन।उन्हें रास न आया ,और वे जल्द बनारस लौट आये।
1915 से कहानियां लिखना मूल रूप से शुरु किया,उन्होंने 15 उपन्यास,300 से अधिक कहानियां,3 नाटक,10 अनुवाद,7 बाल पुस्तकें, हजारों पृष्ठों के संपादकीय ,भाषण आदि लिखे।
उनकी रचना ‘सोजे वतन'(राष्ट्र का विलाप)को 1910 में हमीरपुर के तत्कालीन कलेक्टर ने जनता को भड़काने वाली रचना बताकर ‘सोजे वतन’
की सारी प्रतियां नष्ट करवा दी और उनके लेखन प्रतिबंध लगा दिया,बाद में वे नाम बदलकर ‘प्रेमचंद’ के नाम से लिखने लगे, गोदान,गबन,सेवासदन,निर्मला,प्रेमाश्रम, कफ़न पूस की रात,ईदगाह, रंगभूमि, पंच परमेश्वर, नमक का दरोगा,बूढ़ी काकी,ठाकुर का कुँआ, दो बैलों की आत्मकथा, बड़े घर की बेटी,प्रेमा,प्रेम प्रसून,प्रेम पचीसी,संग्राम,कर्बला,प्रेम की वेदी,आदि उनकी प्रसिद्ध कृतियाँ हैं, ‘गोदान’ को कृषि जीवन का महाकाव्य कहा जाता है, जिसका अंग्रेजी भाषा मे अनुवाद हुआ,8 अक्टूबर 1936 को 56 वर्ष की आयु में उनका निधन हुआ।
शुरुआत में उन्होंने उर्दू में लेखन किया उसके बाद धीरे- धीरे वे हिंदी भाषा में लिखने लगे,उर्दू की चुस्त लोकोक्तियों तथा मुहावरों का प्रयोग प्रचुरता से मिलता है। उनकी भाषा सहज,सरल,तथा
व्यवहारिक है, तथा अद्भुत व्यंजना शक्ति विद्यमान है, भाषा पात्रों के अनुसार परिवर्तित हो जाती है।उन्होंने वर्णात्मक ,व्यंग्यात्मक, विवेचनात्मक, चित्रात्मक शैली दिखाई देती है।व्यवहारिक शैली का एक उदाहरण देखिए–‘बूढ़े ने पगड़ी उतारकर चौखट पर रख दी,और रोकर बोला,हजूर एक निगाह देख लें,बस एक निगाह!लड़का हाथ से चला जायेगा,हजूर सात लड़कों में यही एक बच रहा हजूर’ ।व्यवहारिक शैली का मार्मिक उदाहरण हमने देखा,उन्होंने कहा कि ‘सूखी रोटियां सोने की थाल में परोस देने से पूरियां नही बन जाएंगी,अर्थात जीवन में जो कुछ है ,सत्य-शिव-सुंदर है, उसी को दर्शाना मुख्य उद्देश्य होना चाहिए।
उन्होंने घटना प्रधान कहानियों के स्थान पर चरित्र प्रधान कहानियों को अधिक महत्व दिया,ईदगाह में बाल मनोविज्ञान, ठाकुर का कुँआ में सामाजिक अन्याय, सवा सेर गेँहू ,पूस की रात में महाजनी सभ्यता का विकराल रूप,बेटों वाली विधवा में बेटों का छल,प्रपंच,बुजुर्ग पीढ़ी के अकेलेपन के दर्द को दर्शाता गया है।
गोदान में होरी और धनिया के माध्यम से कृषक जीवन की समस्याओं का चित्रण किया है ,दो कथाएं साथ- साथ चलतीं हैं.शहरी और ग्रामीण जीवन की ,
अपने दरवाजे पर गाय बंधी होने की इच्छा लिए ,एक किसान के जीवन का मार्मिक चित्र उकेरा है मुंशी प्रेमचंद ने।उनकी कहानियों को मरणोपरांत ‘मानसरोवर’के आठ खंडों में प्रकाशित हुई।
