मेरी डायरी के कुछ पन्ने….
डॉ गौरव कुमार
[ पिता]
बारिश की मार में,
छाते कि तरह,
ठिठुरती ठंढ में ,
गर्म कंबल की तरह,
गर्मियों की लु में,
शीतल जल की तरह,
कड़कती धूप में,
घनी छांँव की तरह,
मकान की दिवारों में,
मजबूत छत की तरह,
और हर कठिन राह में,
जो बनकर कंधा ,
सबका सहारा होता है
वो एक पिता होता है।
वो एक पिता होता है।
मारकर भुख अपनी जो,
पेट सबका भरता है,
अपने कपड़ों से पहले,
तन बच्चों का ढकता है,
सह लेता है सारे ग़म,
ना कुछ घर में कहता है,
खाकर राहों की ठोकर,
जो ना उफ़ तक करता है,
जिसे अपने सुख दुख
की परवाह नहीं,
जो बच्चों की खातिर जीता है,
उनकी राहों के,कंकड़ चुन,
खुद कांटों पर चलता है,
बच्चों की खुशियों की खातिर,
हर बार जो जीता मरता है,
वो एक पिता होता है।
वो एक पिता होता है।
[ मेरी बेटी ]
मेरी बेटी की मुझको,
बहुत याद आती है,
दिन हो या रात हो,
उसकी याद सताती है,
आवाज़ उसकी कानों में,
मिश्री सी घोल जाती है,
उसकी एक आहट से,
सारी खुशियां आ जाती हैं,
रोती है वो जब जब,
मेरे दिल को भी रूलाती है,
हंस कर, मुस्कुरा कर,
मेरे दुख वो भुलाती है,
हर रिश्ते को नई जान,
उससे मिल जाती है,
जीवन को नया मकसद,
मेरी बेटी दे जाती हैं,
मेरी बेटी की मुझको,
बहुत याद आती है।
हर एक भोली सुरत में,
अब देखता हूं उसको,
कोशिश तमाम करता हूं,
रोकने की खुद को,
मन तो मान जाता है,
पर आँखे नम हो जाती हैं,
तन्हा रहूँ या भीड़ में,
उसकी, हर बात याद आती है,
घर के हर एक कोने में,
नई जिंदगी आ जाती है,
जब जब मेरी बिटिया “श्री”,
लक्ष्मी सी घर में आती है।
मेरी बेटी की मुझको,
बहुत याद आती है।
जब जब मैं दुर जाता हूँ,
चुप रहके भी दिल रोता है,
पी जाता हूं अपने आँसू,
पर मुश्किल से दिल सम्भलता है,
अब समझ पाया हूं, क्या?
कलेजे का फटना होता है,
बच्चों से दुर रहकर, क्या?
माँ बाप का तड़पना होता है,
क्यूं , हर बाप की दुलारी,
ये बेटियांँ होती हैं,
क्यूँ , खुशहाल है वो आँगन,
जहाँ बेटियांँ चहकती हैं।
चाहता हूं रहना,
हमेशा उसके पास ही,
और जीना उसका,अपना
बचपन उसके साथ ही,
पर मेरी जिम्मेदारीयाँ,
उससे दूर लेकर जाती हैं,
मेरी बेटी की मुझको,
बहुत याद आती है,
मेरी बेटी की मुझको,
बहुत याद आती है।