रचना चौधरी का लेख

 रचना चौधरी का लेख

दहेज के लिये हुई हत्याएँ हों, बलात्कार हो या मानसिक अथवा शारीरिक प्रताड़ना से उपजी आत्महत्यायें हों। स्त्री जीवन की इन तमाम त्रासदियों को देखने- सुनने के बाद अमूमन हम सभी निकल पड़ते हैं दोषी को ढूंढने। पर वास्तविकता में कुछ दोष ऐसे होते हैं जिसे किसी अकेले के मत्थे नहीं मढ़ा जा सकता। यहाँ तो हर स्तर पर दोषी खड़े हैं । बेटी को तो बचपन से ही ऐसी नज़र दी जाती है और ऐसी नज़र से देखा जाता है कि इज्जत, मान सम्मान का सारा दारोमदार उसी के काँधे पर है। पैदा होते ही रख दी जाती है उसके सिर पर लिहाज की एक टोकरी, जिसमें समेटती जाती है वो अपने इर्द गिर्द फैली सारी मैल और बुहारती रहती है अपने साफ आंचल से सारी गंदगी। बाद इसके एक दाग़ भी न हो उसके श्वेत आंचल पर।
कौन है भला जिसने कभी हौले से अपना हाथ उसके कच्चे से काँधे पर धरकर अपलक आसमान की तरफ देखते हुये कहा हो कि ___
ये आसमान उतना ही तुम्हारा है जितना कि इन पंछियों का। हाँ ! तुम हो जिम्मेदार , पर सबसे पहले अपने आत्मसम्मान और अपनी खुशियों के प्रति । तुम्हें अधिकार भी है और तुममें वो काबिलियत भी कि फैलाकर अपनी संभावनाओं के पंखों को उड़ सको इस खुले आसमान में। पर सबसे पहले अपने इन कच्चे कांधों को पकने दो ज्ञान और आत्मविश्वास की आंच में । बेशक तुम लिहाज रखो , कर्तव्य निर्वहन करो किन्तु सिर्फ़ उचित का । पर उससे भी पहले उचित-अनुचित, सही-गलत के भेद को समझ सको इतनी सम्भावना खुद में बाकी रखो।
और जिस किसी भी बेटी से ये बातें कही गयी हैं वो कुछ भी हों न हों मगर कभी भी बेचारी नहीं होतीं ।

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