रोहित ठाकुर की कविताएँ

 रोहित ठाकुर की कविताएँ

[ कविता ]

कविता में भाषा को
लामबन्द कर
लड़ी जा सकती है लड़ाईयांँ
पहाड़ पर
मैदान में
दर्रा में
खेत में
चौराहे पर
पराजय के बारे में
न सोचते हुए  ।

[ रेलगाड़ी  ]

दूर प्रदेश से
घर लौटता आदमी
रेलगाड़ी में लिखता है कविता
घर से दूर जाता आदमी
रेलगाड़ी में पढ़ता है गद्य
घर जाता हुआ आदमी
कितना तरल होता है
घर से दूर जाता आदमी
हो जाता है विश्लेषणात्मक  |

[  गिनती  ]

किसी भी चीज को ऊँगलियों पर गिनता हूँ

उदासी के दिनों को

ख़ुशी के दिनों को

ट्रेन के डिब्बों को

पहाड़ को

नदी को

थाली में रोटी को

तुम्हारे घर लौटने के दिनों को

जब ऊँगलियों के घेरे से बाहर निकल जाती है गणना

तो अनगिनत चीज़ें गिनती से बाहर रह जाती है

इस गणतंत्र में  |

[ जाल ]

उस जाल का बिम्ब

जो छान ले तमाम दुःख

जीवन से

और

सुख की मछलियाँ

मानस में तैरती रहे

हम मामूली लोगों की

कल्पना में

रह – रह कर आता है ।

[ मेरी जेब खाली थी शेष नहीं था कुछ कहना ]

मेरे पास कुछ नहीं था
एक गुलमोहर का पेड़ था सरकारी जमीन पर
पास की पटरी से गुजरती हुई ट्रेन की आवाज थी
रिक्शा वालों की बढ़ती भीड़ थी
चिड़ियाँ नहीं थी उनकी परछाईयाँ दिखती थी
गिटार बजाता एक लड़का था जो खाँसता बहुत था
हम पानी में नहीं कर्ज में डूबे थे
हम कविताएँ नहीं गाली बकते थे
हमें याद है हमारे कपड़े में कुल मिलाकर पांच जेबें थीं
एक में कमरे की चाभी
दूसरे में घर की चिट्ठी
तीसरी – चौथी और पाँचवीं खाली |

[ शहर से गुज़रते हुए ]

शहर के अंदर बसता है आदमी
आदमी के अंदर बसता है शहर
आदमी घेरता है एक जगह
शहर के अंदर
शहर भी घेरता है एक जगह
आदमी के अंदर
जब शहर भींगता है
भींगता है आदमी
एक शहर से दूसरे – तीसरे
शहर जाता आदमी
कई शहर को एक साथ जोड़ देता है
अपने दिमाग की नसों में
जब एक शहर उखड़ता है
तो उखड़ जाता है आदमी
एक छोटा सा आदमी
बिलकुल मेरे जैसा
अपनी स्मृतियों में
रोज – रोज उस शहर को लौटता है
जहाँ उसने किसी को अपना कहा
उसका कोई अपना जहाँ रहता है
उस शहर में जहाँ लिखी प्रेम कविताऐं
जहाँ किसी को उसकी आँखों की रंग से पहचानता हूं
उस शहर में जहाँ मैं किसी को उसकी आवाज़ से जानता हूँ
उस जैसे कई शहर का रास्ता
मुझसे हो कर जाता है
हर शहर एक खूबसूरत शहर है
जिसकी स्मृतियों का मैंने व्यापार नहीं किया
मैं जानता हूँ
समय का कुछ हिस्सा
मेरे शहर में रह जायेगा
इस तरफ
नदी के
जब मेरी रेलगाड़ी
लाँघती रहेगी गंगा को
और हम लाँघते रहेंगे
समय की चौखट को
अपनी जीवन यात्रा के दौरान
अपनी जेब में
धूप के टुकड़े को रख कर
शहर – दर – शहर
पटना – बनारस – इलाहाबाद – जबलपुर – नासिका
हर शहर ही मेरा खेमा है अगले कुछ दिनों के लिये
किसी शहर को जिसे कोई समेट नहीं सका
इन शहरों के समानांतर
कोई कविता ही गुजर सकती है
बशर्ते उस कविता को कोई मल्लाह अपनी नाव पर
ढ़ोता रहे घाटों के किनारे
मनुष्य की तरह कविता भी यात्रा में होती है ।