लक्ष्मीकांत मुकुल की कविताओं में प्रकृति से साहचर्य की परिणति


लक्ष्मीकांत मुकुल हिंदी के उन कवियों में से हैं जिनकी चेतना किसान जीवन के कठोर यथार्थ से उत्पन्न है.जब अधिकतर कवि शहरी जीवन के इर्द-गिर्द उत्पन्न घुटन,टूटन और बिखराव को अपनी कविता के अंकुरण के लिए आधार-भूमि बना रहे वहीं लक्ष्मीकांत मुकुल किसान,किसानी,फसल और किसान और फसलों के मारे जाने का दर्द एवं टीस को अपनी अभिव्यक्ति का आधार बनाए हैं.खासकर शाहाबाद के सहारे पूरे देश के किसानों की खबर ले रहे हैं.इनकी खासियत है कि ये ‘धान की प्रजातियों’का वर्णन इतने मनोयोग से करते हैं कि मेरे देखे समकालीन कोई हिंदी का कवि ऐसा चित्रण करते दूर-दूर तक दिखाई नहीं देते;पर अफसोस यह कि ये प्रजातियाँ उजड़ती चली गईं और ‘पूँजिपतियों’ने पैकेट का बीज से बाजार को पाटकर इनकी जान ले ली.और यही क्रम लगातार जारी है और उन पर किसी का किसी तरह का हस्तक्षेप नहीं है.आखिर किसान की बात कौन सुन रहा है ?इस स्थिति को देखें तो लक्ष्मीकांत किसानों की चिंता करने वाले,उनके जीवन व संस्कृति की खबर लेने वाले कवियों में से हैं.शाहाबाद का एक और कवि कुमार वीरेंद्र ने भी अपनी कई कविताओं में किसान जीवन के कई परत को उकेरा है.किंतु लक्ष्मीकांत की ‘हरेक रंगों में दिखती हो तुम’मदार से लेकर अप्रैल की सुबह में धीमी हवा डुलती चाँदनी की हरी पत्तियों की धवल कीर्तिगान गा रही है और साथ में ‘लोकगीतों’की छंटा से मन को रोमांचित कर रही है.’बभनी पहाड़ी”पीली साड़ी में लिपटी बसंती बहार की टहनी’ से एक अद्भुत वातावरण बुन रही है जिसे सिर्फ व सिर्फ किसान ही बुन सकता है.
‘वसंत का अधखिला प्यार’कविता यादों के कुहासे चीरती हुई स्निग्ध मुस्कान से तन-मन और हृदय को पूरी तरह सराबोर करती हुई ‘तरकुल’वृक्षों की मनोरम दृश्यों से ‘प्रेयसी’की याद दिलाती है और कवि ‘वनतुलसी’के मादक गंध से रोमांस अनुभव करता है.और इनके बिंब लंबी जीवन यात्रा की ओर इशारा करते हुए ‘समय की क्रूरता’की ओर इशारा करता है.और कोमल कल्पनाएँ तेज धूप में झुलसा जा रही हैं .’जहर से मरी मछलियाँ’कविता मछलियों की अनेक नस्लों के सहारे ‘चिलवन की कैद’से आजाद होने की कथा कहती है .और यह आजादी मनुष्य को भी बहुत प्यारी है जिसे पाने के लिए वह युगों से संघर्ष करता रहा है.यह संघर्ष मुकुल जी की कविताओं की जान है.’कुलधरा के बीच मेरा घर’ पूरखों की यादों को जीवंत बनाती है.पर चमगादड़ों की आवाज डरा भी जाता है .यह इतिहास का एक सच है और इसे स्वीकारने की जरूरत है.कार्तिक महीने और पीडिया गीत हमारी संस्कृति के महान् अंग रहे हैं और बैलों की घंटियों की टुनटुनाती आवाज उस महान् संस्कृति को पुष्ट करने में सहायक है पर दुख इस बात की कि कोई उसे सच में पाना नहीं चाहता.खासकर वह वर्ग जो ‘हल की मूठ’पकड़ने में अपनी नीचता समझता है.पर लक्ष्मीकांत मुकुल ‘घिस रहा है धान का कटोरा’के सहारे इस मिथ से लड़ते हैं और कृषि कर्म को गौरव की नजर से देखते हैं.वे लिखते हैं-“हिल हिल घिस रहा है धान का कटोरा
अपनी अकूत खाद्य संपदा ,
अपना स्वाद ,गंध ,नैसर्गिकता
मिट्टी की सुवास
अन्न तृप्ति की पहचान की बुनियाद
बचाने का भरसक प्रयास करता हुआ!”
लक्ष्मीकांत मुकुल का जन्म बक्सर के धनसोई के पास सैसड़ के मैरा गाँव में हुआ.वे अपनी आँखों से बक्सर,आरा,भभुआ और सासाराम को देखे व भोगे.दिनारा,नोखा और करगहर इनके जीवन में रचे बसे जगह हैं और इनकी कविताएँ इनसे लबालब भरी हुई हैं.’धान का कटोरा’कहे जाने वाला यह क्षेत्र कई उतार चढाव के गवाह रहे हैं पर पूँजी और बेरोजगारी की मार ने इस क्षेत्र को बदहाल बनाने से नहीं चूका.लक्ष्मीकांत मुकुल की यह कविता इसी दर्द से उपजी है जहाँ प्रकृति की रक्षा के साथ किसान और उसके परिवार की चिंता कवि के महान् लक्ष्य हैं और पानी,पोखर,शीशम ,शंख,सीपी,हंसुआ,खुरपी व कुदाल के सहारे वह वितान रच रही है.
जहाँ हाईब्रिड की मार को वह असधारण मान रहा है और इस अत्याचार ने फसलों को मौलिक नहीं रहने दी इसका नतीजा यह हुआ है कि वह अपनी प्रकृति से बिल्कुल कट गया.मनुष्य में भी कृतिमता आ गई और वह अपनी सुगंध खोता गया पर प्रेम व प्रकृति विविधता के संसर्ग से ही खिलते हैं पर अपनी मौलिकता की गंवाकर नहीं बल्कि बचाकर.कवि अपनी तमाम कविताओं में इस मौलिकता को बचाना चाहता है.पर उसका यह बचाव पक्ष यथास्थितिवाद नहीं है,बल्कि प्रकृति की अपनी संतुलन को बिगाड़ने की चाह रखने वाले के प्रति विद्रोह है और कवि इस विद्रोह को द्वंद के सहारे जी रहा है.

हरेराम सिंह, रोहतास ,बिहार

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