लोक आस्था का पर्व ‘ नवा

तेज प्रताप नारायण

लोक आस्थाएं तमाम तरह के अंधविश्वास, टीम- टाम से अलग होती हैं ।यदि ऐसे कहा जाए कि लोक आस्थाएं प्रकृति के विभिन्न अंगों-उपांगो के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने के उपकरण हैं ,तो शायद गलत न होगा। शायद लोक प्रकृति से इतना जुड़ा हुआ है कि उससे बिना संवाद किए उसका हृदय आह्लाद से परिपूर्ण नहीं हो पाता होगा।

लोक त्योहारों की एक और विशेष बात है कि इसमें प्रकृति और इंसान के मध्य सीधा संवाद होता है ,किसी मध्यस्थ की ज़रूरत नहीं होती है और कोई भी लोक त्यौहार हो वह हत्या उत्सव नहीं होता है । चाहे वह छठ हो या मकर संक्रांति या कोई अन्य लोक पर्व । लोक का उल्लास,लोक का आनंद और धरती के प्रति उनका समर्पण ही लोक पर्वों के मूल में हैं। बिना शोर शराबे के बेहद शांत तरीके से ये पर्व मनाए जाते थे जब तक इनके साथ बाज़ार नहीं जुड़ा था । लेकिन जो त्यौहार बाज़ार से जुड़ा उसका विकृत रूप सामने आने लगता है ।आस्था हाशिए पर चली जाती है और टंट-घंट केंद्र में आ जाता है।

कुछ लोक पर्व अभी बाज़ार की चपेट में नहीं आए हैं उनमें से एक पर्व है नवा का पर्व ।नवा ,नव से बना है जिसका अर्थ नए से है । कहने का तात्पर्य यह है कि नवा का पर्व नव निर्माण का या नूतनता/नवीनता का पर्व कहा जा सकता है । यह वर्ष में दो बार मनाया जाता है एक बार भादों के महीने में और दूसरा माघ के महीने में ।भादों में धान में बालियां आ रहीं होती हैं और माघ में गेंहू की बालियां आ रहीं होती हैं ।

स्पष्ट रूप से नवा एक फसली त्यौहार है जब खेत धान या गेंहू से सजे होते हैं ।धरती, धानी रंग की साड़ी पहनकर प्रकट होती है तो ऐसे में धरती पुत्रों का मन क्यों न हिलोर मारे ? खेतों में गेंहू या धान लहलहा उठते हैं और ढोलक पर अपने आप थाप पड़ने लगती है और एक अद्भुत संगीत का सृजन होता है जिसे बस महसूस किया जा सकता है ,उसके बारे में लिखा नहीं जा सकता है ।

नवा की ख़ास बात यह बहुत ही सरल तरीके से मनाया जा सकता है , बाज़ार जाने तक की ज़रूरत नहीं पड़ती है ।किसान के पास वह सब कुछ होता है जो इसे मनाने के लिए ज़रूरी है। नवा के दिन ,चावल , उड़द की दाल, उड़द का वड़ा और सब्जी ,बस इतना ही चाहिए । कायदे से तो सब्जी भी नहीं चाहिए ।

शाम के वक्त यह त्यौहार मनाया जाता है ।शाम के भोजन के वक्त यह पकवान बनाकर सब लोग एक साथ बैठकर खाते हैं ।एक साथ बैठकर खाना इसमें बहुत ज़रूरी माना जाता है । खेत से धान या गेंहू की कुछ बालियां लाई जाती है नवा के प्रतिनिधि के रूप में । भोजन शुरू करने से पहले बालियों का कुछ अंश ,घी आदि के साथ मिलाकर प्रकृति को हवन के रूप में अर्पित किया जाता है और सब मिल बैठकर एक साथ खाना खाते हैं ।

इसके बाद सभी लोग गांव के हर घर में जाकर बड़े- बूढ़ों का आश्रीवाद लेते हैं । आशीर्वाद स्वरूप बड़े-बूढ़े कहते हैं
” नवा धरो पूरान खाओ ” मतलब नया रखो और जो पुराना संचित हो उसे खाओ ।यह त्यौहार एक बड़ी सीख यह भी देता है कि सब कुछ खर्च नहीं कर देना ,संचय करके भी रखना है ।
आज बड़े भाई साहब से बात हो रही थी तो उन्होंने बताया कि इस बार सूखे का यह आलम है कि नवा धरने का आशीर्वाद फलीभूत नहीं होने वाला है ।बरसात हो नहीं रही है और फसलें सूख रहीं हैं ।अब नया नहीं होगा तो पुराना कब तक चलेगा ? नया क्यों नहीं हो रहा है , सूखा क्यों पड़ गया ? इन सारे प्रश्नों से टकराने की फुर्सत किसके पास है ?

ख़ैर,नवा पर्व की सबको शुभकामनाएं ।

नवा धरो पुरान खाओ

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