लोक और आधुनिकता के समन्यवक हबीब तन्वीर
लेखिका ,ऋतु रानी , केंद्रीय विश्वविद्यालय महेंद्रगढ़ ,हरियाणा में शोधार्थी हैं ।
भारतीय रंगमंच कहते ही हमारे जहन में शास्त्रीय रंगमंच की एक छवि उभरकर आती है। लेकिन ‘लोक’ को भारतीय रंगमंच का पर्याय बनाने में हबीब तनवीर के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता है। देखा जाए तो हबीब तनवीर ने शास्त्रीय रंगमंच की तकनीक के बजाए उसकी आत्मा की पहचान की। उन्होंने अपने नाटकों में लोकधर्मी को ऐसी कलात्मक ऊँचाई प्रदान की कि वह नाट्यधर्मी का स्थानापन हो गया। हबीब तनवीर ने छतीसगढ़ी लोक संस्कृति, लोक नाट्य ‘नाचा’ की शैली और उसके तत्वों के आधार पर एक ऐसी रंगदृष्टि का विकास किया जिसे देश और दुनिया में व्यापक स्वीकृति और सम्मान मिला। हबीब तनवीर ने अपने नाटकों के माध्यम से परंपरा में एक रचनात्मक हस्तक्षेप किया। वे लिखते हैं, ‘मैंने विचार किया कि आप ऐसा कुछ भी महत्वपूर्ण नहीं कर सकते जब तक आप अपनी जड़ों से न जुड़े और अपनी परम्पराओं की पुनर्व्याख्या न करें। साथ ही, परम्पराओं का उपयोग एक ऐसे माध्यम के रूप में करें जो आज के आधुनिक संदर्भों और समकालीन संदर्भों को अंतरित कर सके।’
हबीब तनवीर मानते थे की लोक रंगमंच और बोलियों का रंगमंच ही सबसे सशक्त है। उनकी रंग चेतना उस सोच पर आधारित है जहाँ लोक परम्पराओं की अपार सृजनात्मक क्षमताओं और ऊर्जा का स्वीकार्य है। यही कारण है कि वे इन परम्पराओं से गीत–संगीत, शैली कुछ भी लेने में जरा भी हिचकते नहीं। ‘आगरा बाजार’, ‘मिट्टी की गाड़ी’, ‘गाँव का नाम ससुराल मोर नाम दामाद’, ‘अर्जुन का सारथी’, ‘राजा चंबा और चार भाई’, ‘चरनदास चोर’, ‘शाही लकड़हारा’, ‘जानी चोर’, ‘प्रह्लाद नाटक’, ‘भारतलीला’, ‘चंदैनी’, ‘जमादारिन’, ‘बहादुर क्लारिन’, ‘देवी का वरदान’, ‘सोन सागर’, ‘मंगलु दीदी’, ‘हिरमा की अमर कहानी’ आदि उनके ऐसे नाटक हैं जहाँ उनकी शैली की छाप देखी जा सकती है।
हबीब तनवीर का रंगकर्म जीवन की पूर्णता का पर्याय है। इसमें हँसी, खुशी, दुःख, वेदना, जीवन, मृत्यु सब शामिल है। बचपन से ही उनका रुझान कला एवं अभिनय की तरफ रहा। यही कारण है कि पढाई बीच में ही छोड़ कर बम्बई चले आये। बम्बई का जीवन उनके व्यक्तित्व के निर्माण का पहला भाग था। अपने बम्बई प्रवास के दौरान हबीब तनवीर ने न केवल रेडियो के निर्देशक पद का कार्यभार संभाला अपितु ‘फिल्म इंडिया’ पत्रिका के सहायक संपादक भी हुए। साथ ही फिल्मों में अभिनय करने के अपने बचपन के शौक को भी पूरा किया। उस जमाने में ‘इप्टा’ की चेतना ने हबीब तनवीर का ध्यान खींचा और वे इससे जुड़ते चले गये।
इप्टा के साथ काम करते हुए लोक की गतिशील ऊर्जा ने उन्हें गहरे तक प्रभावित किया था। इस प्रभाव ने ही बाद में हबीब को उनके मंचीय मुहावरे तक पहुँचाया। ‘लोक’ उनके यहां जीवन का हिस्सा है। उन्होंने अपने नाटकों में न केवल छत्तीसगढ़ी ‘नाचा’ की शैली लो लिया अपितु पंडवानी गायन, पंथी नृत्य, सुआ गीत, चन्दैनी जैसी लोक नाट्य शैलियों और विभिन्न प्रदेशों के आनुष्ठानिक प्रयोगों, लोक कथाओं आदि को भी शामिल किया। वे अपनी आधुनिक राजनीतिक समझ को पारम्परिक प्रदर्शन की ऊर्जा के साथ अंतःक्रिया करने देते हैं। उनके नाटकों में रंग संगीत भी एक शक्ति थी। वे करवा, बदरिया, विहाव इन लोक धुनों का प्रयोग करते थे। वास्तविकता में उन्होंने छत्तीसगढ़ की लोक रीतियों, अनुष्ठानों और परम्पराओं को अपनी रंगदृष्टि में पूरा स्थान दिया है। उनके इस साहस और संघर्षपूर्ण व्यक्तित्व के पीछे परम्परा की सही पहचान और उनकी आधुनिक विश्व दृष्टि थी। नवजागरण की धारा ने अपनी बेहतरीन अभिव्यक्तियों में इस आधुनिक को स्वतंत्रता, समानता तथा भाईचारे की जनतांत्रिक बुनियाद पर स्थापित करने की कोशिश की है। हबीब का नया थियेटर, इसके सफल उदाहरणों में से है, जो न पश्चिमविरोधी है और न ही परम्परावादी।
हबीब तनवीर लोक नाटकों को साथ ले कर चलते हुए आज के संदर्भ में आधुनिक नाटककार इसीलिए बन पाए कि उन्होंने समाज की समस्याओं का बारीकी से अध्याय किया और उसके निदान के लिए अपने नाटकों को माध्यम बनाया। उन्होंने इतिहास, परम्परा और आधुनिक भाव-बोध को भी अपनाया। लेकिन वे बंद आँखों से भारतीय रंगमंच पर आधुनिक बोध को नहीं देख रहे थे। उन्होंने पश्चिम की उस आधुनिकता (जिसमें परम्परा को आधुनिकता के विपरीत समझा जाता था) को अस्वीकार कर अपना रास्ता परम्परा और आधुनिकता के बीच उनके मिश्रण में तलाशा। इसीलिए वे पारम्परिक शैली की तरफ मुड़ते हैं। लेकिन शैली के प्रयोग मात्र से हमें यह नहीं समझ लेना चाहिए वे पारम्परिक नाटक कर रहे थे। वे तो बस उन रंग तत्वों का इस्तेमाल भर करते हैं। इसीलिए नामवर सिंह कहते है ‘हबीब के नाटकों में लोक की स्थानीयता का बहुत विराट स्वरूप है, लेकिन उनके नाटक-लोक नाटक नहीं है, वैज्ञानिक सोच के साथ परिमार्जित आधुनिक नाटक है।’
यह आधुनिक बोध व्यक्तित्व के स्वतंत्र विकास का हामी है। उसमें किसी प्रकार की अपरिवर्तनशील, रूढ़ीगत भावना के लिए स्थान नहीं है। अपनी जड़ों की पहचान, नवीनता की स्वीकृति, तर्क, गतिशीलता, मानवतावादी दृष्टिकोण, संघर्ष की चेतना आदि का भाव नीहित है। इस दृष्टि से हबीब तनवीर के नाटक भी इसका अपवाद नहीं हैं। समकालीन भातीय रंगमंच पर वे जन-साधारण के हितों और आकांक्षाओं के प्रतिनिधि के रूप में उभर कर सामने आते हैं, हाशिए के लोगों के सवालों को केंद्र में लेकर आते हैं। अपने लगभग सभी नाटकों में उन्होंने समाज, धर्म, संस्कृति, राजनीति आदि की समस्याओं एवं प्रश्नों को उठाया है। ‘आगरा बाजार’ अपनी प्रतीकात्मकता में तत्कालीन राजनीतिक अस्थिरता के समय आम आदमी के बीच व्याप्त हताशा, कुंठा और असमंजस की स्थिति का चित्रण करता है। इस नाटक के आरंभ में लिखा है ‘है अब तो कुछ सखुन का मेरे कारोबार बंद … जब आगरे की खल्क का हो रोजगार बंद’। यही बात ‘आदमीनामा’ में भी दिखाई देती है। ‘मिट्टी की गाड़ी’ पहली बार एक साधारण आदमी के नायकत्व का बोध कराता है। यह चारुदत्त और गणिका बसंतसेना की रोमांटिक प्रेम कथा ही नहीं है, उसके साथ अत्याचारी राजा पालक के विरुद्ध शर्विलक की राजनीतिक चेतना का भी बिंदु है। ‘बहादुर कलारिन’ में तो हबीब तनवीर द्वारा लोककथा की एक नितात आधुनिक व्याख्या हुई है। इस नाटक में मनुष्य मन का गहरा स्वभाव देखने को मिलता है। आधुनिक युग में व्याख्यित ‘इडिपस काम्प्लेक्स’ का समन्वय इस लोक कथा में दिखता है।
हबीब तनवीर की दृष्टि लगातार अपने समय की राजनीतिक, सामाजिक स्थितियों पर थी।। आपातकाल के बाद ‘चरनदास चोर’ में रानी की निरंकुशता तत्कालीन स्थितियों में और भी व्यंग्यात्मक हो जाती थी। यह नाटक एक चोर के सत्य के आग्रह की लोक कथा है जो आधुनिक और सामाजिक विसंगतियों को उभारने में भी सफल रहा। इसमें सत्य और सत्ता के संबंधों पर टिप्पणी की है। एक चोर सत्य पर अडिग रहता है और सत्ता अपना ऐब छुपाने के लिए उसकी हत्या कर देती है। जबकि ‘हिरमा की अमर कहानी’ में वे आदिवासियों के जीवन की विसंगतियों को उठाते हैं। हबीब तनवीर के अन्य नाटकों की तुलना में इसमें राजनीतिक तत्त्व सबसे ज्यादा है, लेकिन अफ़सोस यह है कि इस नाटक की कम ही चर्चा हुई। सच्चाई तो यह है कि आज भी भारत में आदिवासी प्रश्न अनसुलझे हैं।
उदारीकरण के बाद उससे हुए विकास के खोखले दावों की हकीकत बताने के लिए ‘सड़क’ नाटक तैयार किया। इस नाटक के आदिवासी पात्र बताते हैं कि सड़क के आगमन से उनके जंगली जानवर, पेड़, फल इत्यादि समाप्त होते जा रहे हैं। देखा जाए तो इस आधुनिक विकास से केवल सामान्य जीवन ही नहीं उनकी संस्कृति भी प्रभावित हो रही है। ‘जहरीली हवा’ में भी वे दिखाते हैं किस प्रकार व्यापक जनसंहार के बाद विकास के सूत्रधार जनता को दयनीय स्थिति में डाल कर छोड़ देते हैं। उनके सभी नाटकों में आधुनिक संवेदना दर्शक को छूती चली जाती है।
नब्बे के दशक के बाद सांप्रदायिक उन्माद ने भी समकालीन जीवन को सबसे अधिक प्रभावित किया। उसे केंद्र में रखकर हबीब तनवीर ने ‘जिस लाहौर नइ देख्या’ और ‘एक औरत हिपेशिया भी थी’ का मंचन किया। हबीब अपने समय की सांप्रदायिक शक्तियों के उभार और सत्ता के साठ उनके गठजोड़ के दुष्परिणामों की चिंता से भी वे जूझ रहे थे। इसीलिए उनकी अंतिम प्रस्तुति ‘राजरक्त’ धर्म और राज-सत्ता के संबंधों और टकराव पर ही आधारित है। इस नाटक में एक धर्मांध पुरोहित धर्म की रुढियों को चलने देने के लिए राज-सत्ता को ही पलट देना चाहता है। वहीं जाति प्रथा की विडंबना को ‘पोंगा पंडित’ के माध्यम से व्यक्त किया जिस कारण इस नाटक और स्वयं हबीब तनवीर पर प्रतिक्रियावादियों ने हमले भी किये, लेकिन वे कभी रुके नहीं।
हबीब तनवीर का ‘नया थियेटर’ अपने रंग-प्रयोगों के 50 दशकों में अपने नाटकों के प्रदर्शन के अलावा व्यावसायिक और शौकिया कलाकारों के लिए व्याख्यान, प्रदर्शन, संगोष्ठी, प्रशिक्षण, पाठ्यकर्म और कार्यशालाओं का भी आयोजन करता रहा है। उनकी रंग प्रक्रिया का एक अत्यंत महत्वपूर्ण पक्ष यह भी रहा कि उन्होंने विफलताओं, विरोधों और कटु–आलोचनाओं की चौतरफ़ा मार सहते हुए भी अपनी रचनात्मक ज़िद नहीं छोड़ी। वे अपनी विफलताओं के कारणों को बारीकी से देखते-परखते हुए उन्हें लगातार तराशते रहे और अन्ततः सफलता की राह निर्धारित की। उनकी कुछ प्रस्तुतियां बेशक सफल नहीं रही हो इसके बावजूद भी इस तथ्य को अस्वीकार नहीं किया जा सकता कि उनकी सफल प्रस्तुतियों का मूल्यांकन समकालीन भारतीय रंगमंच की उन उपलब्धियों की ओर इंगित करता है, जो अंतर्राष्ट्रीय नाट्य-फलक पर पूर्व-स्थापित और सर्व–स्वीकृत नाट्य अवधारणाओं तथा मान्यताओं को कलात्मक चुनौती देने में समर्थ सिद्ध हुई हैं।
हबीब तनवीर के नाटकों का कथ्य मानव की संवेदना को छूता है, प्रश्न करता है और अपनी प्रस्तुति में लोक को जीवंत कर देता है। यह आधुनिक रंगमंच और लोक रंगमंच का मिला जुला प्रयोग है। उन्होंने साबित किया है कि आधुनिक संवेदना से युक्त नए कथ्य को भी पारम्परिक रंग-शैलियों में पूरी क्षमता के साथ संप्रेषित किया जा सकता है। उन्होंने ‘नाचा’ के तत्वों और लोक कलाकारों के साथ एक नया रंग संश्लेष गढ़ा जो लोक और समय कालीन, ग्रामीण और आधुनिक, स्थानिक और वैश्विक सब एक साथ था। अतः इनके नाटकों का समग्र मूल्यांकन आवश्यक है क्योंकि ये अपनी शैली, तकनीक और प्रस्तुतिकरण की दृष्टि से देशज है, लेकिन कथात्मक रूप से विश्वजनीन, आधुनिक, सम-सामयिक।
ऋतु रानी