लोक और आधुनिकता के समन्वयक हबीब तनवीर’(1 सितम्बर 2024, जयंती विशेष)

 लोक और आधुनिकता के समन्वयक हबीब तनवीर’(1 सितम्बर 2024, जयंती विशेष)

By :Dr Ritu Rani, (Researcher & Assistant Professor ,Hindi )

भारतीय रंगमंच कहते ही हमारे जहन में शास्त्रीय रंगमंच की एक छवि उभरकर आती है । लेकिन ‘लोक’ को भारतीय रंगमंच का पर्याय बनाने में हबीब तनवीर के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता है । देखा जाए तो हबीब तनवीर ने अपने नाटकों में छत्तीसगढ़ी लोक संस्कृति, लोक नाट्य ‘नाचा’ की शैली और उसके तत्वों के आधार पर एक ऐसी रंगदृष्टि का विकास किया जिसे देश और दुनिया में व्यापक स्वीकृति और सम्मान मिला । हबीब तनवीर ने अपने नाटकों के माध्यम से परंपरा में एक रचनात्मक हस्तक्षेप किया है । वे लिखते हैं ‘मैंने विचार किया कि आप ऐसा कुछ भी महत्वपूर्ण नहीं कर सकते जब तक आप अपनी जड़ों से न जुड़े और अपनी परम्पराओं की पुनर्व्याख्या न करें । साथ ही, परम्पराओं का उपयोग एक ऐसे माध्यम के रूप में करें जो आज के आधुनिक संदर्भों और समकालीन संदर्भों को अंतरित कर सके ।’ हबीब तनवीर मानते थे की लोक रंगमंच और बोलियों का रंगमंच ही सबसे सशक्त है । उनकी रंग दृष्टि में लोक परम्पराओं की अपार सृजनात्मक क्षमताओं और ऊर्जा का स्वीकार्य है । यही कारण है कि वे इन परम्पराओं से गीत-संगीत, शैली कुछ भी लेने में हिचकते नहीं थे । ‘आगरा बाजार’, ‘मिट्टी की गाड़ी’, ‘गाँव का नाम ससुराल मोर नाम दामाद’, ‘अर्जुन का सारथी’, ‘राजा चंबा और चार भाई’, ‘चरनदास चोर’, ‘शाही लकड़हारा’, ‘जानी चोर’, ‘प्रह्लाद नाटक’, ‘भारतलीला’, ‘चंदैनी’, ‘जमादारिन’, ‘बहादुर क्लारिन’, ‘देवी का वरदान’, ‘सोन सागर’, ‘मंगलु दीदी’, ‘हिरमा की अमर कहानी’ आदि उनके ऐसे नाटक हैं जहाँ उनकी शैली की छाप देखी जा सकती है ।
हबीब तनवीर का रंगकर्म जीवन की पूर्णता का पर्याय है। इसमें हँसी, खुशी, दुःख, वेदना, जीवन, मृत्यु सब शामिल है । बचपन से ही उनका रुझान कला एवं अभिनय की तरफ रहा । यही कारण है कि पढाई बीच में ही छोड़ कर बम्बई चले आये । बम्बई का जीवन उनके व्यक्तित्व के निर्माण का पहला भाग था । अपने बम्बई प्रवास के दौरान हबीब तनवीर ने न केवल रेडियो के निर्देशक पद का कार्यभार संभाला अपितु ‘फिल्म इंडिया’ पत्रिका के सहायक संपादक भी हुए । साथ ही फिल्मों में अभिनय करने के अपने बचपन के शौक को भी पूरा किया । उस जमाने में ‘इप्टा’ की चेतना ने हबीब तनवीर का ध्यान खींचा और वे इससे जुड़ते चले गये । इस प्रभाव ने ही बाद में हबीब को उनके मंचीय मुहावरे तक पहुँचाया । ‘लोक’ उनके यहां जीवन का हिस्सा है । उन्होंने अपने नाटकों में न केवल छत्तीसगढ़ी ‘नाचा’ की शैली लो लिया अपितु पंडवानी गायन, पंथी नृत्य, सुआ गीत, चन्दैनी जैसी लोक नाट्य शैलियों और विभिन्न प्रदेशों के आनुष्ठानिक प्रयोगों, लोक कथाओं आदि को भी शामिल किया । उनके नाटकों में रंग संगीत भी एक शक्ति थी । वे करवा, बदरिया, विहाव इन लोक धुनों का प्रयोग करते थे । वास्तविकता में उन्होंने छत्तीसगढ़ की लोक रीतियों, अनुष्ठानों और परम्पराओं को अपनी रंगदृष्टि में पूरा स्थान दिया है । उनके इस साहस और संघर्षपूर्ण व्यक्तित्व के पीछे परम्परा की सही पहचान और उनकी आधुनिक विश्व दृष्टि थी । हबीब का नया थियेटर रंगमंच के उन सफल उदाहरणों में से है, जो न पश्चिमविरोधी है और न ही परम्परावादी ।
हबीब तनवीर लोक नाटकों को साथ ले कर चलते हुए आज के संदर्भ में आधुनिक नाटककार इसीलिए बन पाए कि उन्होंने समाज की समस्याओं का बारीकी से अध्याय किया और उसके निदान के लिए अपने नाटकों को माध्यम बनाया । इसमें अपनी जड़ों की पहचान, नवीनता की स्वीकृति, तर्क, गतिशीलता, मानवतावादी दृष्टिकोण आदि का भाव शामिल है । हबीब तनवीर के नाटकों का कथ्य मानव की संवेदना को छूता है, प्रश्न करता है और अपनी प्रस्तुति में लोक को जीवंत कर देता है । यह आधुनिक रंगमंच और लोक रंगमंच का मिला जुला प्रयोग है । उन्होंने ‘नाचा’ के तत्वों और लोक कलाकारों के साथ एक नया रंग मुहावरा गढ़ा जो लोक और समय कालीन, ग्रामीण और आधुनिक, स्थानिक और वैश्विक सब एक साथ था ।
डॉ. ऋतु रानी