विजय गौतम ‘मूकनायक’ की कविताएँ

 विजय गौतम ‘मूकनायक’ की कविताएँ

{वायरस }

निश्चित रूप से कुछ मौतें वायरस से होंगी.
और कुछ मौतें होंगी इस कारण से
कि समय पर सही निर्णय नहीं लिए गए.
कुछ मौतें इस कारण से भी होगी कि धन्ना सेठों के बैंक बैलेंस बने रहें.
तमाम मौतें उनके नाम रहेंगी जिनके लिए ‘राजनीति’ प्रधान और ‘लोक कल्याणकारी राज्य’ गौण हो गया.
कुछ मौतें मीडिया के हो हल्ला और झूठ के महिमामंडन के शोर के तले होंगी.
कुछ तथाकथित सभ्य समाज के स्वार्थ के नाम होंगी जिन्हें तमाम जनता की जान की रत्ती भर भी परवाह न रही.
कुछ मौतें विदेश से हवा में उड़ कर शहरों में लैंड होगी
और सुदूर गांवों में रेंगकर पहुंचेंगी.
कुछ उस महान कही जाने वाली संस्कृति के माथे भी रहेंगी जो संकट की इस घड़ी में कुतर्क और अवैज्ञानिकता को दूध पिलाती रही.
कुछेक मौतें तुम्हारे और मेरे नाम भी होंगी, जो सोशल मीडिया पर अफवाहों को यूँ ही फैलाते रहे.
मौतों के इस सिलसिले के बाद,
अगर हो सके तो एक एक मौत का कारण खोजना.
तब तुम्हें पता चलेगा कि कुछ मौतें सच में मौतें थीं,
और कुछ थी सरेआम खून!
तुम ये भी जानोगे कि,
वायरस सिर्फ एक नहीं है, तमाम है.
जो हमारे आसपास घूम रहे हैं.
कुछ हमारी सोच की गहरी तहों में छुपे बैठे है.
कुछ हमारी संस्कृति में जड़े जमाए हुए है.
कुछ राजनीति की कुर्सी से चिपके हुए है.
कुछ सभ्यता भर पर कब्जा जमाए बैठे है.
वायरस दिखते नहीं,
मृतप्राय रहते है,
परिस्थितियों के अनुसार हावी होते है.
वायरस हर जगह है,
हमारे अंदर भी.

{आवाज़}

जब तुम डर के खिलाफ़,
आवाज़ ऊँची करोगे,
तब,
कुछ सर कलम होंगे,
कुछ मारे पीटे जाएँगे,
कुछ सरेआम लतिआए जाएंगे,
कुछ आवाज़ें खामोश कर दी जाएंगी.
तब,
तुम्हारे पास दो रास्ते होंगे,
एक, वह जो तुम्हें गुलाम बनाए रखेगा,
और दूसरा, विद्रोह की आवाज़ बुलंद करेगा,
गुलाम जीवित रहेगा, हजारों साल तक,
विद्रोही मारा जाएगा,
लेकिन विद्रोह की आवाज़,
हजारों सालों तक गूँजेगी,
यह गूँजती आवाज़,
एक दिन लोगों की रगों में बहते डर को मार देगी,
उस दिन तुम शासक बन जाओगे.

{चलाओ तुम गोली}
(गौरी लंकेश को समर्पित)

कैसे किया ये सब ?
तुम ऐसे तो न थे !
मुझे मालूम है कि ये तुमने नहीं किया होगा,
योजना बनायी गयी होगी,
तुम्हें बहलाया गया होगा,
सपने दिखाए गए होंगे,
फिर तुमसे ये करवाया गया होगा,
ग़ुलामी शायद अब तुम्हारी आदत बन गयी है,
ग़ुलाम कही के!!

जब तुमने ट्रिगर पर उँगली रखी होगी,
तब तुम्हारे भीतर, बहुत और बहुत डर रहा होगा,
इतना डर कि तुम्हें भरोसा ही नहीं होगा पहली गोली पर,
इसीलिए उतार दी, एक के बाद एक गोलियाँ…
तुम जानते थे कि अगर में बच गयी,
तो तुम्हारी ये नशे की लत ख़त्म कर दूँगी,
और उसके साथ ही मिट्टी में मिल जाएगा
तुम्हारे आकाओं का वजूद …..

वो जो तुम्हारे हुक्मरान है,
जो चार-दीवार के पीछे,
किसी अबला के गुप्तांगों को,
देखने, छूने और चाटने के लिए,
बित्ताभर की जीभ लिए घूमते है,
हाँ वही, जिनकी संस्कृति कभी मेरे स्कर्ट की साइज़ से,
तो कभी मेरी क्लीवेज के उभार से ‘कुतिया’ बन जाती है,
नपुंसक निकले…
मर्दानगी होती तो, सामना करते…..

तुम्हें क्या लगता है, कि तुम्हारी ये गुलामगिरी
तुम्हें आज़ाद कर देगी ?
ये धर्म का धंधा, ये ग़ुलामों की जमात,
ये बेडरूम और किचन का दोमुँहापन,
ये पाबंदियाँ, तुम पर, मुझ पर,
हर सोच पर….
और उस से भी बदतर,
इसका तुम पर चढ़ता नशा …,
क्या तुम सच में नहीं सोचते इस सब के बारे में ?
कभी तो सोचते होगे?
कुछ घंटे, कुछ मिनट के लिए तो नशा उतरता होगा ?
मैं जानती हूँ कि तुम डरते हो,
कि कहीं ये नशा उतर न जाए….
और तुम से ज़्यादा डरते है तुम्हारे हुक्मरान,
इस बात से कि, अगर तुम्हारा नशा उतर गया
तो कहीं तुम सवाल न पूँछ बैठो,
संस्कृति पर, रिवाजों पर,
धर्म पर, जीने के तरीके पर,
ख़ुद के अस्तित्व पर…

मुझे दया आती है,
तुम पर, तुम्हारे इस वेबड़ेपन पर,
मैं ख़त्म कर देना चाहती हूँ, तुम्हारी बेहोशी को,
हाँ, मुझे भी एक जुनून है,
तुम्हें सच बताने का,
तुम्हारी सोच को उन्मुक्त करने का,
हर गोरखधंधे की तोड़ लिखने का,
तुम्हें जगाने का,
और इस सब के लिए, गोली खाने का….
चलाओ तुम गोली….

हर मौत के बाद में जन्म ले रही हूँ,
हर गोली पर तुम हार रहे हो, मैं जीत रही हूँ,
और सुनो,
तुम्हें जगाने के लिए गोली खाने से बड़ा कोई नशा नहीं !!!
चलाओ तुम गोली….

{ पीडितों के घर}

उजड़े चमन से होते हैं, पीड़ितों के घर,
मनहूसियत में डूबे,
बदनामी के धुएँ से घिरे होते हैं,
पीड़ितों के घर..
बिना प्लास्टर की दीवारों से बने,
बिना पर्दों के खिड़की दरवाजों से होते हैं,
पीड़ितों के घर..
टूटी चारपाई के आगोश में जीते,
बिना पैर की कुर्सी से होते हैं, पीड़ितों के घर..
बेहद तीखी कानाफूसी में बसे,
तमाम आँखों से छुपते से होते हैं, पीड़ितों के घर..
कभी कभी नेताओं की जमात लगती है,
गीली तस्वीरें छपती हैं, कल के अख़बारों में,
चैनल चीखते है, नेता खाते है, पीड़ितों के घर,
तुम्हारी, मेरी, सबकी शॉर्ट टर्म मेमोरी से,
गुम हो जाते है दिन ढलते ही, पीड़ितों के घर..
खत्म नहीं होते, फिर नए बनते हैं,
पीड़ितों के घर.
दबी दबी सिसकियों में जीते हैं, पीड़ितों के घर,
जिनके साथ बीतती है,
उनकी आंखों में जिन्दगी भर रहते है,
पीड़ितों के घर..
हर गाँव और शहर में होते है,
कुछ पीडितों के घर.
आखिर किसके होते हैं ये घर?
उनके, जिनकी बहू बेटियों को लूटते हैं,
दबंगों के लोंन्डे,
और उनके भी, जिनके मर्दों को सरे आम जलील करते हैं,
जातियों के घर,
मंदिर की घंटियों के जाल में फंसते,
मौलवी की दाढ़ी में उलझे,
धर्म के चक्रव्यूह में सने होते हैं, पीड़ितों के घर..
फंदे से झूलते,
हर ऋण से मुक्त होते किसानों के घर,
नयी व्याही अधजली लड़कियों के बाप के घर,
ऐसे होते है, पीडितों के घर,
कभी सोचा तुमने,
क्यों होते हैं पीडितों के घर?
अगर नहीं सोचा कभी,
तो तुम्हारी ऊंची ऊंची सोच पर, थूकते हैं, पीडितों के घर
तुम्हारी दुधारी सोच से, बनते हैं पीडितों के घर,
अगर सोचते हो कि कोई और जिम्मेदार है,
तो धूर्त और लंपट हो तुम,
चीख चीख के बोलते है,
पीडितों के घर..