सरदार पटेल और नेहरू

लेखक : कुमार विवेक
आज सरदार वल्लभभाई पटेल का जन्मदिन है।सैकडों रियासत को बहुत ही शानदार नेतृत्व से एक करने में उनकी भूमिका के कारण हम यह दिवस राष्ट्रीय एकता दिवस के रूप में मनाते हैं।
खेड़ा सत्याग्रह,बारदोली आंदोलन ,रियासतों के एकीकरण जैसी प्रमुख घटनाओं के कारण वे हमारी जुबान पर रहते हैं।ये ऐसी घटनाएं है जिन्हें हर कोई जानता है।पटेल जी के ये ऐसे कार्य हैं जिनमे उनके योगदान को हर कोई मानता है।
इसके बाद भी कुटिल राजनीतिक कारणों से गाहे-बगाहे पटेल ,नेहरू के बीच खराब सम्बंध के बारे में कुछ चर्चे सुनाई देते रहते हैं।ये चर्चाएं आधी अधूरी ही सही होती हैं लेकिन अधिकांश की रोटी इसी से चल जाती है।इसी नाते आज यहां कुछ ऐसे ही चर्चित मुद्दों का जिक्र कर रहा हूँ जिनके आधार पर पटेल और नेहरू के बीच खराब सम्बन्धों का जिक्र आता रहता है।
मसलन पटेल जी भारत विभाजन के बाद चाहते थे कि सिख और हिन्दू पश्चिमी पाकिस्तान से चले आये।लेकिन उन्हें मुसलमानों को लेकर खास चिंता नहीं थी क्योंकि उनका मानना था कि उन्हें उनकी इच्छानुसार पाकिस्तान मिल चुका है।लेकिन इस मुद्दे पर नेहरू धर्मनिरपेक्ष थे।इसी तरह दिल्ली में जब मुसलमानों पर हमले हो रहे थे तो इसे पाकिस्तान में हो रहे रक्तपात के बदले के रूप में देखा जा रहा था।लेकिन नेहरू चाहते थे कि इस रक्तपात को रोकने के लिए कुछ इलाके दिल्ली में मुसलमानों के लिए आरक्षित कर दिए जाएं।लेकिन यहां भी पटेल जी उनसे सहमत नहीं थे।
पटेल अक्सर कैबिनेट मंत्रियों की शक्तियों को लेकर भी नेहरू से उलझे रहते थे।उनका कहना था कि प्रधानमंत्री किसी मंत्रालय के कामकाज में हस्तक्षेप नहीं कर सकता है।वह सिर्फ बराबर मंत्रियों का नेता था।हर निर्णय सामूहिक रूप से लिया जाना चाहिए।
विभाजन के बाद पाकिस्तान में हिंदुओं और सिखों की लगभग 500 करोड़ की संपत्ति थी जबकि भारत से पलायन कर चुके मुसलमानों की संपत्ति 100 करोड़ थी।इस संपत्ति का बंटवारा होना था।लेकिन पटेल जी का कहना था कश्मीर में जारी लड़ाई के बीचोबीच संपत्ति और हथियारों का बंटवारा नहीं किया जाना चाहिए।इससे गांधी जी नाराज हो गए और भूख हड़ताल पर बैठ गए।फिर भी भारत नें संपत्ति के बंटवारे के रूप में सिर्फ 60 करोड़ रुपये ही लौटाए।
लेकिन सम्पत्ति लौटाने को कुछ हिंदुओ ने पसन्द नहीं किया।इस घटना से उन्हें लगने लगा की एक हिन्दू राष्ट्र की स्थापना में गांधी जी एक रुकावट की तरह है।बाद में उन्हीं में से एक ने गांधी जी की हत्या कर दी।पटेल इस हत्या के लिए स्वयं को जिम्मेदार मानते थे इसलिए उन्होंने कैबिनेट से इस्तीफा देने का निश्चय किया।लेकिन इसी बीच नेहरू नें उनसे इस्तीफा न देने का आग्रह किया।उन्होंने स्नेहवत शब्दों में उनसे आग्रह किया जिसने पटेल के दिल को छू लिया।बाद में पटेल जी नें न केवल इस्तीफा वापस लिया बल्कि यह जिद भी छोड़ दी की हर मंत्रालय को अपने ढंग से काम करना चाहिए।
इसके अतिरिक्त हैदराबाद के भारत में विलय के लिए जब ऑपरेशन पोलो के तहत पटेल नें पुलिस एक्शन के बारे में फैसला लिया तो इसकी जानकारी नेहरू को नहीं थी।क्योंकि पटेल को लगता था आदर्शवादी नेहरू खराब होती स्थिति के बाद भी सेना भेजने के पक्ष में नहीं रहेंगे।नेहरू को पुलिस एक्शन के बारे में तब पता चला जब सेना हैदराबाद में घुस चुकी थी।उन्होंने पटेल से सम्पर्क करने की भी कोशिश की लेकिन उन्हें बता दिया गया की पटेल बीमार हैं।बाद में जब ऑपरेशन पोलो के तहत यह कार्य पांच दिन के अंदर हो गया तो इतना कुछ होने के बाद भी नेहरू नें पटेल के इस कार्य की प्रशंसा की थी।उन्होंने इस बात की शिकायत नहीं की कि उन्हें क्यों सूचित नहीं किया गया।
वास्तव में पटेल और नेहरू के बीच मतभेद के जो कारण थे वह नेहरू के ज्यादा आदर्शवादी और पटेल के ज्यादा व्यवहारवादी होने के कारण था।बाद में पटेल के घोर विरोधी रहे मौलाना अबुल कलाम आजाद का कहना था कि पटेल को देश का प्रधानमंत्री और नेहरु को राष्ट्रपति होना चाहिए था।लगभग यही बात राजगोपालाचारी जी नें भी कही थी।कुलदीप नैयर नें लिखा है कि संविधान सभा की बैठकों से पहले नेहरू और पटेल मुख्य मुद्दों को लेकर आपस में सलाह मशविरा कर लेते थे और फिर हर शाम होने वाली बैठकों में उन्हें पास करवा लेते थे।
साफ है की नेहरू और पटेल में मतभेद तो थे लेकिन ये सिर्फ नीतियों के स्तर पर थे लेकिन इन मतभेदों के बाद भी वे कोई न कोई रास्ता निकाल ही लेते थे और एक दूसरे का सम्मान भी करते थे।मतभेदों के बाद भी उन्होंने देश को जोड़ने में अहम भूमिका निभाई।उनके मतभेदों नें कभी देश को तोड़ा नहीं,कमजोर नहीं किया।असहमतियों में भी वे सहमति का कोई न कोई रास्ता ढूंढ लेते थे।इतने मतभेदों के बाद भी उनके बीच जो सम्बन्ध थे वह काबिले गौर और अध्ययन का विषय होना चाहिये ।कभी भी आधी -अधूरी बातों को तवज्जो देकर लोगों को गुमराह करने में इनका इस्तेमाल नहीं होना चाहिए।