सीमा पटेल की कविताएँ

 सीमा पटेल की कविताएँ

{शब्द हीन संवाद}

न तुम बोलो न मैं बोलू
करतें है कोशिश
एक शब्द हीन
जीवन जीने की
जहाँ सन्नाटा हो दूर तक
साँसों की आवाज़ हो
धड़कनों के सुर हो
आपस की तपन हो
केवल स्पर्श ही
अपने शब्द हो
बने अमर कहानी
साँसों की भाषा की

{बूँद}

माँगा था साथ हमने
वो प्यार बनके बरसा
चाहत थी ~ बूँद ~ भर की
वो बे – हिसाब निकला ||

इस वीरान ज़िन्दगी में
वो बहार बनके बरसा
चाहत थी ~ बूँद ~ भर की
वो दरिया-ए-इश्क़ निकला ||

{जर्जर दरख़्त प्रतीक हैं बुढ़ापे के}

ये जो दरख़्त देखते हो …..ये भी कभी हरे-भरे हुआ करते थे …..इसमे भी कभी पुष्प पल्लवित हुआ करते थे….कभी इनमे भी बहार आती थी…….. सावन की मस्ती में ये भी झूमा करते थे ……परंतु देखो इनका दुख दर्द आज ये ……. सबको खुशी देकर खड़े हैअकेले…. नंगे बूचे जर्जर …..सह रहे है धूप के थपेड़े ….. आसमान से गिरती बर्फ ….आँधी तूफ़ान। अब इनके करीब आना या दो पल को इनके पास बैठना कोई पसंद नही करता क्योकि अब इनके पास देने को कुछ भी तो नही रहा ….. न छाया…. न फल…. न फूल…. न ही वो नयनाभिराम …. मादक यौवन । क्योकि झड़ गये है पत्ते और टूट चुकी है कमर …… न जाने कब धराशायी हो जाये और इनकी बिखरी अस्थियों को कब समेटना पड़ जाए ।

{ अम्मा }
देह की मांसलता साथ छोड़ देती है
बाल तजुर्बों की धूप से पक जाते है
दाँत भी थक कर अपनी जड़ों को छोड़ देते हैं
आँखों की रोशनी भी दुनियाँ की चकाचौन्ध को देखते-देखते मध्दिम पड़ जाती है
शरीर की हड्डियां भी लचक खा कर कमजोर हो जाती है धीरे-धीरे सभी अंग – प्रत्यंग साथ छोड़ने लगते है
तब रहतीं हैं साथ में सिर्फ़…
घर की चार दीवारें और उनमें टंगी कुछ तस्वीरें
जिनकी रंगत भी उतर चुकी होती है
खस्ताहाल होकर कब दीवार से जमीन पर टपक जाएं कुछ पता नहीं होता
अम्मा आज भी चश्मे के अंदर से आँखे फाड़-फाड़ कर अपनें बच्चों की तस्वीरों को निहारा करती है
वो बच्चे, जो साल में कभी – कभार अपनी बूढ़ी माँ की सुध ले लिया करतें है
वो भी सिर्फ़ इसलिए कि अम्मा अभी ज़िंदा भी है या नहीं
लाचार माँ अपनें पति की तस्वीर पर जमी धूल को,
रोज़ अपनें धोती के पल्लू से साफ किया करती है
फिर उनके पैर छू कर, रो-रो कर गुहार लगाती है कि
मुझे भी बुला लो अपने पास किसके लिए छोड़ गए हो यहाँ मुझ इस बुढ़िया को
तुम थे तो समय कट जाया करता था
तुमसे गुस्सा हो लेती थी
कभी लड़ भी लेती थी
और तुम मुझे मना भी लेते थे सच…, तुम कितने अच्छे थे
मुझे कितना प्यार करते थे
अब तो मुझे कोई पूछता भी नहीं
तुम थे तो अक्सर बच्चे भी आ जाया करते थे हाल पूछने
अब तो इस घर मे कुत्ता भी मूतने नहीं आता …..
सूनापन , अकेला पन खाने को दौड़ता है ….
प्यार के दो शब्द सुनने को कान तरस जाते है
कप-कपाते हाथों से अब निवाले भी नहीं सटके जाते
हाय ये कैसा बुढापा !!

{ बहु )

भोर की किरण से
पहले जाग जाती है
धीरे से कमरे की
सांकल खोलती है
दबे पांव बाहर आती है
कहीं बिछुए की रुन-झुन से
घर के बुजुर्ग न जाग जाए

फिर..
जाती है पनिहारिन बन
कुएं से पानी भरने
धीरे-धीरे बाल्टी
कुँए में सरकाती है
भय है उसे कि,
इतने अंधेरे में
अकेली मुझे देख
कोई आ न जाए

फिर,
पानी ले कर, आती है
सगरा घर-आंगन
झाड़ा – बुहारा
लीपा-पोता
देहरी सजाई
चौक पूरी
गेरू, खड़िया से
बनाये सांतिये
शुभ मंगल के

फिर ,,
अंधियारा बाक़ी रहते ही
खुले आंगन में
बैठकर नहाती है वो
शर्माती है सकुचाती है
अपनी भीगी देह को वो
सबकी नजरों से बचाती है

मन ही मन बुदबुदाती है
कहाँ ब्याह दिया
अम्मा बाबू ने
घर दुआर भी न देखा
भेज दिया लाडो को अपनी
जीने का ढंग भी न देखा

क्या पर्दे का बोझ उठाऊं
जब बेपर्दे में ही नहाऊं
सिर ढाँके और तन दिखलाऊं
पर ये मुख न दिखलाऊँ

{ संवेदना }

मर गई है आत्माएं
मर गया है सच्चा प्यार
मर गयीं है संवेदनाएं
इसी लिए अब मरती जा रही है
वो जिजीविषा .. ..
नहीं रह गए रिश्ते
नहीं रहे अब अपने
नहीं रहे वो संबंध जो पूछ लिया करते थे अपनों के हाल-चाल
हो गए है सब व्यस्त
या एक बहाना है व्यस्तता का
दूसरों को अपना महत्व दिखाने का
कि नहीं है फुर्सत मुझे तुमसे बात भी करने की
अरे मित्र ये क्या मुखौटा सा पहन रखा है और किसके लिए
और किस लिए
शायद तुम्हे पता नहीं कि
तुम्हारा असली रूप बहुत सुंदर है
तुम दिल के बहुत सच्चे और निर्मल इंसान हो
तुम्हें ये किसने सीख दी, मुखौटेबाज़ बनने की
मेरी मानों तो
उतार फेंको अपने इस उधारी और बनावटी आवरण को
बन जाओ फिर से वही सहज़ मित्र
सुख-दुख में साथ निभाने वाले
इंसानियत का रिश्ता निभाने वाले
सिर्फ खून के ही नहीं होते रिश्ते हमेशा अपनें
कभी-कभी पराए भी ख़ूनी रिश्तो से ज्यादा निभा जाते है साथ ज़ीवन में
उन्हें भी कभी निभा कर देखो
विश्वास न हो तो आज़मा कर देखो
पाओगे निकटता
विचारों में व्यापकता
आपसी घनिष्ठता
निकलो बाहर अपनी संकुचित विचारधारा से …और देखो ये सुंदर रिश्तों का सुंदर संसार ।

{ अधूरा जीवन}

क्यों नही करते हो तुम
वो पहले सा प्यार मुझसे
क्यों नही करते हो तुम
वो पहले से सवाल मुझसे

उदास आँखों को मेरी ….
जब तुम महसूस किया करते थे
दिल के रोने को मेरे
जब तुम जान लिया करते थे…

उठता था दर्द
तब तुम्हारे भी अंदर
जब ढलकते हुए आँसुओं को मेरे
अपनी हथेलियों में
थाम लिया करते थे

है उम्मीन्द मुझे आज भी तुमसे
आओगे जरूर …फिर एक दिन अपनी भूली हुई …. उन्ही दिल की गलियों में

चुपके से झांकोगे फिर से उसी सूने घरौंदे में
जो बनाया था तुमने
अपने प्यार की मज़बूत ईंटों से
किया था सिंचन अपने स्नेहिल जल से

देखो आज भी अधूरी हूँ मैं
तुमसे मिलकर पूर्ण होने के लिए
पर ये अधूरापन ही मेरे जीवन का स्पंदन है

नहीं होना चाहती
मैं पूर्ण
क्योकि …??
अपूर्णता ही तो जीवन है …..

{ स्त्री और नदी }

कभी शांत मन से बैठो
किसी नदी के किनारे
फिर देखो उसकी गहराई
कितना पानी समाया है
वो चंचल भी है
चपल भी है
भरे हुए है , अपने अंदर
कितना कोलाहल
फिर भी लहराती है
इतराती है
बलखाती है
प्यार को समेटे हुए
देती है ठंडी बयार

समां जाती है
किसी समुन्दर के सीने में
हो जाती है विलीन
खो देती है
अपना अस्तित्व
अपना रंग-रूप
और अपनी मिठास भी

हो जाती है
थोड़ी सी नमकीन
कुछ खारी सी
क्योकि ,
बन जाती है
वो समुद्र की प्रेयसी
उसके प्रेम में
आसक्त मीरा सी

समुद्र भी अपना लेता है
समां लेता है
भर लेता है
अपनी मज़बूत बाहों में
दे देता है उसे अपना
रंग-रूप ,आकार
और अपना नाम भी

नदी भी समुद्र क़े
आगोश में सहर्ष
ही गुम हो जाती है
उसमे ही एकाकार
हो जाती है
मिटा देती है
अपनी पहचान को
अपने नाम को
अपने अस्तित्व को

और अंत में
बन जाती है
एक विशाल
रूप समुद्र सी
प्रेम की चिर
निर्झरणी प्रेयसी