सुशील द्विवेदी की कवितायेँ

 सुशील द्विवेदी की कवितायेँ

1.मसान – एक
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खून से भीगी हुई
कविताओं के पन्ना-दर-पन्ना को
चिता की लौ से सेंकते हुए कवि
तुम स्पार्टा और एथेंस को भूल गये
स्पार्टा कभी जीवित नहीं रहा…
एथेंस तुम्हारी धमनियों में दौड़ता है
आज तक। आपादमस्तक,
यातना के गर्भ में सना हुआ
रचता रहा जीवन और मृत्यु के गीत
और राग के भी।
क्योंकि रचने का दूसरा कोई विकल्प नहीं है।
मसान में बिलखते हुए मित्र कवि!
तुम कवि हो, हत्यारे नहीं
तुम्हारे लोगों ने तुम्हें कवि बनाया है
इसलिए याद रखो
अपने बेजुबां लोगों को
जिन्होंने तुम्हें अपनी आवाज़ दी है
याद रखो किसानों और मजदूरों को भी
और चाहे खुद को भूल जाना
किन्तु उन्हें भूलना मत
जिनकी वजह से तुम्हारी कविता बनी है
अन्यथा कविता से वापिस लौटे हुए पात्र हत्यारे होते हैं
2. अंतिम बूंद
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टप टप टप टप….
गिरती हुई रक्त की बूंदें
नली के सहारे
तुम्हारी देह में चढ़ रही हैं
बाहर बार-बार मंडराते बाज – कौए
भागती बिल्लियां
हवाओं का धीरे-धीरे बहना
मेरी आत्मा के व्याकुल,विपुल रश्मिपुंज में
मेघों की स्वेत लडियों का चुपचाप टूटना
असंख्य तारों को ठंडा कर जाता है
प्रेम में मौन तीव्र आकर्षण का जनक है, जननी भी।
शब्दों के डूबते उतराते
घर्षण प्रतिकर्षण में
प्रेम की तलाश करते रहे ताउम्र…
तुम्हारी उंगलियों के बीच में
फंसी मेरी उंगलियाँ
आँखों में टंगी आँखे
प्रेम की छटपटाहट को शांत कर देती हैं
अस्पताल में फैली सनसनाहट
डाॅक्टरों और सिस्टर्स का धीरे-धीरे नेपथ्य में जाना
जैसे तुम्हारे जाने की सूचना दे रहो हों
तुम्हारे पायदान में बैठा
तुम्हें बचा लेने और खो देने के बीच
बोतल में बची अंतिम रक्त बूंद की तरह
अटक गया हूँ….
फिर लौट आओ तुम
लौट आओ
लौ ट् आ…
आ३…….

3.बारिश का इंतजार
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मौसम वैज्ञानिकों ने सूचना दी है-
‘इस साल मानसून देर से आयेगा’
फिर भी किसानों ने ‘बिहाड़’ कर दिया है
बाद में वे ‘लईना’ लगवायेंगे
वे एक बांह खेतों को जोत चुके हैं
अब उससे घास-फूस बाहर कर रहे हैं…
कुछ स्त्रियों ने महुआ और दाल पहले से तैयार कर लिया है
वे इस चौमासे में ‘मऊखरी’ बनायेंगी
कुछ ने ‘लईना’ लगाने के लिए अपनी टोली बना ली है
वे बाद में ‘लईना’ लगायेंगी
और अपने बेसुरे आवाज में ‘कजरी’ गायेंगी
कुछ स्त्रियाँ चौखट में, ‘भुसौले’ में
अपने कमाऊ परदेसी- पति को याद करेंगी
वे कभी उदास होंगी, कभी रो देंगी…
कुछ घरों में बच्चियों ने मेंहदी खरीद लिया है
कुछ ने गुड़ और चाय की मेंहदी बनाने की ठान ली है
वे बात कर रही हैं-
‘गुड़ की मेंहदी अधिक रचती है’
कई बच्चों ने अपने दादा के नये ‘स्वदेशी’ चप्पल काट डाले हैं
वे उससे दो पहिया,चार पहिया गाड़ी बनायेंगे
और बारिश में दूर तक भागेंगे
कुछ ने अपनी ‘बालपोथी’ फाड़कर नाव बना दी है
मछुआरों ने ‘तांत’ और ‘कटिया’ खरीद लिया है
बाद में वे तालाब और नहर में जायेंगे
मछलियाँ पकड़ेंगे वहाँ …
कुछ चरवाहों ने अपना ‘नारा’ तैयार कर लिया है
कुछ उसमें शामिल हो रहे हैं
वे अपने मवेशियों को खेतों में खुला छोड़ देंगे
दोपहर में वे ‘सुर्रा’ खेलेंगे और जामुन तोड़ेंगे और आम भी
वे ‘लसोहरा’ के ऊपर चढ़ जायेंगे
और जोर जोर से कूदेंगे
इस बारिश में सबने अपने उत्सव की तैयारी कर ली है
किन्तु हाय!
मानसून देर से नहीं, बहुत देर से आया
और ‘परी भर’ बरस कर चले गये बादर …
4.नारवा के लिए
(अष्टभुजा शुक्ल को समर्पित)
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नारवा! मेरी कविता में तुम हमेशा जिन्दा रहोगी
उस अनभूले स्पर्श की तरह
जिसे तुम गाँव में छोड़ आई थी
इस बार मैं जाऊंगा गाँव
वहाँ से मुट्ठी भर घास
ले आऊंगा अपनी कविता के लिए
जिस तरह तुम
मुट्ठी भर घास लाती थी अपनी बकरी के लिए
कुछ मिट्टी खोदूंगा तालाब से
चूल्हा बनाऊंगा,
कुछ कंडे-लकड़ियाँ इकठ्ठा करूंगा
अदहन रखूंगा
मेरी कविता में तुम अदहन की तरह खौलोगी
तुम्हें टोकरी बनाना पसंद था
मैं तुम्हारे लिए कासा काटूँगा
सरपत से बल्ला निकालूँगा
और अगर कहीं मेरा हाथ कट जाये
तुम आना मत
मैं आऊंगा चलकर तुम्हारे पास जैसे तुम आई थी
नारवा! तुम्हारा छूना मेरी कविता को नहर कर देगा
तुमने कहा था ना नारवा!
तुम्हें महुए का गुलगुला पसंद है
मैं जाऊंगा गाँव
और महुए के टपकने का इंतजार करूंगा
जैसे तुम भोर में करती थी
मेरी नारवा! मैं वह सब लाऊंगा अपनी कविता के लिए
जो तुम्हें पसंद है
5. जब भी सोचता हूँ अम्मा
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जब भी सोचता हूँ
अम्मा! मुझे तुम्हारा चेहरा याद आता है।
याद आता है मुझे
पुरानी कोठरी
जहाँ तुम खांसते-खांसते
ढेबरी को बुझा देती
फिर किसी एकांत की तलाश करती
ताकि जी भर कर खांस सके ।
अम्मा! तुम्हारी यह खांसी
तुम्हारी अपनी हो गयी है।
जब भी सोचता हूं
अम्मा ! तुम्हारा मिट्टी का बना चूल्हा याद आता है
गीली लकड़ियों और गीले कंडों से-
खाना पकाने के लिए
घण्टों- घण्टों जूझती रहती थी तुम ..
जब भी सोचता हूं
अम्मा! वह भादों का महीना याद आता है
घर के चारों ओर कीचड़ से बजबजाती गलियाँ
जो हर शाम झींगुरों,टिड्डों,पाखियों से भर जाती थीं..
मुझे याद आता है
अम्मा ! तुम्हारा गाय-भैंसों का दुहना।
मुझे याद आती हैं
अम्मा! तुम्हारी फटी हुई बिवाईयां
जिससे रिसता रहता था खून..
अम्मा ! मुझे याद आता है
तुम्हारे टोटके
जो तुम अक्सर ग्रहण में करती थी
ताकि उसका प्रभाव हम पर न पड़े
अम्मा! मुझे याद आता है
तुम्हारा वह विद्रोही स्वर
जब बाबू किसी पंडा या फकीर को घर बुलाते
और तुम कहती..
” किस्मत हमारी नहीं तुम्हारी खराब है..”
और फेंक देती उन ताबीजों को
जो किसी प्रेत से बचने के लिए बनाए गये होते थे।
मुझे याद आता है
अम्मा ! तुम्हारा चेहरा
तुम्हारी बातें
तुम्हारे गीत
तुम्हारे पर्व
और
तुम्हारे
रानी – राजा,चिड़िया- चिरुकवा और बंदर की कहानियाँ
अम्मा! बहुत याद आता है
तुम्हारा वह जीवन…
© सुशील द्विवेदी