E-Zindagi आ गले लगा ले

 E-Zindagi आ गले लगा ले

तेज प्रताप नारायण

चार कविता संग्रह, दो कहानी संग्रह और एक उपन्यास के लेखक तेज प्रताप को प्रेम चंद सम्मान,मैथिलीशरण गुप्त सहित कई अन्य सम्मानों से नवाजा जा चुका है ।उनका पहला व्यंग्य संग्रह , ज़ीरो बटा सन्नाटा, और दूसरा उपन्यास प्रकाशन के विभिन्न चरणों में है।एक कहानी संग्रह , एक कविता संग्रह और एक ग़ज़ल संग्रह पर भी काम चल रहा है ।
कई साझा काव्य संग्रहों का सम्पादन भी कर चुके हैं ।

(E – zindagi ) ई ज़िंदगी आ गले लगे

वैसे भी बंटवारा कम नहीं था । ज़िंदगी कई टुकड़ों में बंटी हुई यहां वहां फिट होकर ख़ुद को संतुलित करने का प्रयास कर रही थी कि एक और बंटवारा हो गया ,ऑनलाइन और ऑफलाइन का । हद तो तब हो जाती है जब ऑनलाइन ज़िंदगी ऑफलाइन पर भारी पड़ने लगती है । सोते ,जागते हम सब ऑनलाइन के बारे में ही सोचते रहते हैं ,ट्विटर पर कितने फॉलोवर्स हैं,फेसबुक पर कितने लाइक्स मिले ,कितने कमेंट हुए। ब्लड प्रेशर का कुछ भाग ज़रूर ऑनलाइन ने बढ़ाया है ।ज़िंदगी में वैसे भी टेंशन कम न थी कि फेसबुक टाइप की चीज़ों ने टेंशन में खासी बढ़ोत्तरी कर दी। अब तो ऑनलाइन ही बड़े बड़े लेखकों को स्थापित कर रहा हैं फलाने को ज़्यादा कमेंट मिले तो वे बड़े लेखक और ढमाके को नहीं मिले तो वे छोटे लेखक ।

ऑनलाइन ज़िंदगी इतनी हावी हो गई है कि अब घर वाले भी व्हाट्सएप पर मिलते हैं , वहीं पर गेट टूगेदर कर लेते हैं,बर्थडे विशेज सब कुछ वहीं पर शुरू और वहीं पर खत्म ।लोग हँसना ,रोना,मुस्कुराना ,प्यार और मोहब्बत सब के लिए इमोजी भेजकर काम चला लेते हैं।जज़्बात के इस नए तरीके से कहीं चेहरा भावशून्य सा हो न हो जाए ।वैसे ऑनलाइन मिलना ख़राब नहीं होता है लेकिन समस्या तब होती है जब हम ऑनलाइन ही मिलते हैं ।

कभी हमारी गली भी आकर मिल जाओ
थोड़ा हम मुस्कुराएं थोड़ा तुम मुस्कुराओ ।

अब क्या करें हुजूर ,वर्टिकल लिविंग के ज़माने में न गलियां हैं और न चौराहे ।जहां कभी छिपकर मिल लेते थे और दिल की बात कह लेते थे ।ऑनलाइन गलियों में दिल की बात कहना खतरे से ख़ाली नहीं है ।

कहना कुछ चाहें लेकिन शब्द का अर्थ कुछ और निकल गया ,
ज़ुबान कुछ और कह रही थी लेकिन शब्द फिसल गया ।

इसलिए ऑन गलियों में तनिक चुप रहना बेहतर है ।पता नहीं कौन नज़रे गड़ाए आपको देख रहा हो ।

कोई बदनाम करने की फिराक में बैठा हो
न हमको मालूम और न तुमको मालूम ।

कई लोगों ने ऑनलाइन ज़िंदगी को भी कई टुकड़ों में बांट दिया है ।जैसे व्हाट्सएप पर एक घंटा,फेसबुक पर आधा घंटा,ट्विटर पर पंद्रह मिनट ,लिंकडिन पर आधा घण्टे आदि आदि ।कुल मिलाकर 24 घंटे में 6घंटे ऑनलाइन को समर्पित।
,तुझको तेरा अर्पण क्या लागे मेरा?
ऊं जय ऑनलाइन हरे,
तुझमें ज़िंदगी के सुख हैं भरे ।

ऑनलाइन, ज़िंदगी में वैसे छा गया है जैसे कि सावन में बादल छा जाते हैं ।बस अंतर यह है कि सावन का बादल बरसने के बाद छंट जाता है जबकि ऑनलाइन की घटाएं कभी छंटती नहीं हैं । न सोने देती हैं,न खाने देती हैं,न रोने देती हैं, और न ही कोई काम ही करने देती हैं।डिनर पर फैमिली के साथ बैठे होंगे लेकिन फेसबुक पर स्टेटस लिख रहे होंगे ।

कोरोना ने ऑनलाइन को और हवा दे दी है । ऐसा भी नहीं है कि ऑनलाइन से सिर्फ़ नुकसान ही हुआ है । कोविड के समय में ऑनलाइन डॉक्टरी परामर्श से बहुत लोगों को फ़ायदा हुआ है लेकिन समस्या यह है कि डिजिटल डिवाइड होने के कारण इसका फ़ायदा सभी को नहीं मिला है ।ऐसा ही ऑनलाइन पढ़ाई के साथ हुआ है जिसमें शहर और गांव का विभाजन बहुत स्पष्ट दिखा है ।

अब तो ई ऑफिस, ई बैंकिंग, ई कॉमर्स और न जाने कितने ई आ गए हैं और पूरी ज़िंदगी पर छा गए हैं।
बस खुदा वह दिन न दिखाए कि ई वाइफ, ई मैरिज, ई बच्चा, ई लवर टाइप की चीज़ें न होने लगे ।फिर तो होमो सेपिएंस की प्रजाति ई प्रजाति बनकर रह जाएगी। फिर हम ,, ए ज़िंदगी गले लगा ले , न कहकर
ई ज़िंदगी गले लगा ले ,बोलेंगे ।

Related post

Leave a Reply

Your email address will not be published.