एक ज़रूरी बात रचना की कलम से

यू ट्यूब देखो तो समझ आता है कि हर कोई जाने कौन सी मृगतृष्णा में है । कुकिंग चैनल्स के सब्सक्राइबर और व्यूज देख लीजिए, तो लगता है कि जाने कितने खौवाए भुखाए लोग हैं जो बेचैन हैं एक से एक लजीज पकवान खाने को। एक से बढ़कर एक नयी नयी फ्यूजन डिशेज तैयार की जाती हैं जिन्हें बनाकर, खा-खाकर हम सब खुद ही अभिभूत हुए जा रहे हैं मगर फिर भी हर दिन एक नया प्रयोग देखकर खुद आजमाने को बौराए हुए हैं, बगैर ये जाने कि अधिकांश फ्यूजन या नयी नयी डिशेज का अविष्कार सिर्फ उन चैनल्स की पॉपुलरिटी बढ़ाने हेतु हो रहा है। खुद को सर्वश्रेष्ठ सिद्ध करने और पाककला में निपुण होने की आत्ममुग्धता हासिल करने के लिए हम दौड़ लगाये पड़े हैं । पर इस दौड़ में हम क्या क्या छोड़ दे रहे हैं , इसका इक ज़रा भी एहसास नहीं हमें। चावल और दाल के फरे को धकेल मैदे से बने मोमो प्लेट में अपनी जगह बनाने में कामयाब नजर आते हैं। दाल पूरियों को गांव का रास्ता दिखा वापिस भेज नान और लच्छा पराठा मंद मंद मुस्काये पड़े हैं। सब्जियों की तरी लाजवाब लगे और आंखों को रेस्टोरेंट के खाने वाली रॉयल्टी महसूस कराये इसके लिए पैकेज्ड क्रीम और कलर एनहेंस करने के लिए खूब सारे मसालों का प्रयोग हो रहा। जो सेहत को कहां ले जाएगा, वक़्त ही बतायेगा।
ऐसे ही अगर हम मोटीवेशन की बात करें तो ऐसे ऐसे थमनेल और टाइटल वाली वीडियोज मिल जाती हैं जो सीधा दिल पर लगती हैं __ “अरे यार! ये तो मेरे दिल में जाने कबसे चुभ रहा था। ” और हम खोल कर बैठ जाते हैं अपनी सुस्त पडी जिंदगी को मोटिवेशन के फ्यूल से 110 की स्पीड में दौड़ाने , ये समझे बगैर कि मन में जो चुभा पड़ा है वो मोटिवेशनल भाषण सुनकर लीपा पोती के अंदर ही कहीं दब जाएगा मगर लिपाई की ज़रा सी परत उधड़ते ही वो वापस वैसी ही चुभन देगा तब तक, जब तक कि उस चुभन वाले कांटे को थोड़ा खुदियार कर निकाल न फेंका जाये। चीखते चिल्लाते ग्लोरीफ़ायड स्पीकर यूँ मोटिवेट करते मिलेंगे मानो अभी इसी वक़्त से आपकी जिंदगी बदल जायेगी। हां तत्कालिक रूप से प्रभावी भी होते हैं ये पर लंबे समय में??? और दूसरी बात कि ऐसे speakers को सुनना भी वही काम करता है __ बस लिपाई पुताई ! कई बार तो यूँ ही कुछ वीडियों मिल जाएंगी जिन्हें देखकर इंसान बस मोटिवेट हो ही जाता है ये जाने बगैर कि वो डिमोटीवेट था ही नहीं, मगर इतने जुझारू विचारों को सुनने के बाद बस अतिउत्साहित हो चला है। वो मोटिवेशन बेंच रहे हैं क्योंकि उन्हें अपनी लाइफ में ग्रो करना है, हम उनके उपभोक्ता बन बैठे हैं बगैर ये समझे कि हमें इन सबकी जरूरत है भी या नहीं, और अगर है तो कितनी मात्रा में।
सच बात तो ये है कि हम भूल चुके हैं कि सच्ची मोटिवेशन इन सोशल साइट्स से कहीं बेहतर हमें अपने परिवार के बड़ों , कोई भी विश्वसनीय जिनसे हम अपना व्यक्तिगत मसला शेयर कर सकते हैं या फिर करीबी दोस्त से मिलेगा। क्योंकि वो हमें हमारी समस्याओं के साथ देख पायेंगे। वो हमें हमसे बेहतर समझ पायेंगे और इसी कारण सही दिशा में मार्गदर्शन कर पायेंगे। हो सकता है कि वो अपनी जिंदगी में उतने कामयाब न हों जितना हमारी नजर में सफलता की परिभाषा है। लेकिन फिर भी वो हमें हमसे ज्यादा समूचे रूप में देख सकते हैं। इसलिए हमें बेहतर समझ सकते हैं ।
ठीक यही हाल सेक्स का है। जिस तरह से वासना को ग्लेमराइज़ करके परोसा जा रहा है, स्त्री पुरुष की अपेक्षाएँ असीमित होती जा रही हैं। एक अलग ही फैंटेसी गढ़कर लोग पहले ही बैठ जा रहे, और उसी फ्रेम में अपने साथी को फिट करने की जोड़ तोड़ में लगे हैं। ऐसे में अगला व्यक्ति कई बार ट्रामा से गुजरने लगता है क्योंकि इस काल्पनिक फ्रेम को दिनों दिन वो अपने अस्तित्व और वास्तविक छवि पर कसता हुआ पाकर घुटन में जीने को विवश है। जबकि यथार्थ यह है कि जो कुछ भी स्क्रिन पर है वो बिकने के लिए ही परोसा जा रहा है , सो ऐक्टर से लेकर डायरेक्टर तक का फोकस कैमरा और टेक्नोलॉजी की मदद से दृश्य को कामुक बनाना है ताकि वो अधिकतर ऑडियंस को अपने तक ला सकें। जबकि वास्तविक जिंदगी में ये सब एक हिस्सा / जरूरी हिस्सा भर है। जहां ग्लेमर नहीं प्रेम आवश्यक है।
अब बात करते हैं हमारे भविष्य की नन्ही पौध की ___ बच्चे। बच्चों को कैसे इस बाजारीकरण में ट्रैप किया जा रहा है, उसके लिए खुद से खुद को एक छोटा सा डेमो देकर देखिए। याद कीजिए अपना बचपन और बचपन की कहानियाँ। क्या फर्क़ मिला वहां??? वहाँ हम कहानियाँ सुनते थे, पापा – मम्मी, नाना- नानी, दादा- दादी के स्नेह की गर्माहट के साथ! जब पापा कहते ___ ” एक जंगल था, जंगल में एक साथ ढेर सारे जानवर रहते थे,,,,,, ” तो उनके शब्दों के साथ ही मन कल्पना की उड़ान पर निकल पड़ता था। हो सकता है कि जिसने जंगल नहीं देखा था वो पहले तो सवालों की बरसात कर देता रहा हो, हो सकता है कोई पास वाले गुलमोहर को अपनी कल्पना के जंगल में पाता हो , कैसे सारे जानवर एक साथ रहते रहे होंगे, कैसे खाते पीते होंगे। खाना कौन बनाता होगा, और भी जाने क्या क्या ” !!
पर आज असानी से इतनी खूबसूरत एनीमेटेड कहानियाँ उपलब्ध हैं फिंगर टिप्स पर कि बच्चे खुद ही नकार देते हैं मम्मी पापा की बोरिंग सी आवाज वाली कहानियों को। मम्मी लोग वारी जा रही हैं मोबाइल पर मॉरल स्टोरी की वीडियो चलाकर अपने बच्चों को भरपेट खाना खाते देख। ये सोचे बगैर कि दिमाग पर इतने शोर और आंखों पर स्क्रीन की इस चमक का क्या प्रभाव होगा। और इससे भी ज्यादा जो खोया है इन नन्ही पौधों ने वो ये कि कहानियाँ सुनकर उन्होंने कभी कल्पना की कोई उड़ान भरी ही नहीं। किसी जंगल में शेर का जाल काटते समय उन्हें चूहे का वो डर महसूस ही न हो पाया, न ही वो ये सोचने का मौका पा सके कि एक साथ अनेक चिड़िया जब उड़ती थीं जाल लेकर तो नन्ही चिड़िया के पंखों में दर्द होने लगता होगा। बातें और भी हैं जो फिर कभी। फ़िलहाल यही कहूँगी कि इन्टरनेट और बाजारीकरण ने मिलकर बहुत कुछ अच्छा दिया है । मगर उस अच्छे को किस तरह और किस सीमा तक अपने जीवन में दखल देने का अधिकार देना है ये स्वविवेक पर है।
– रचना