कडुंवा रोग: चावल उत्पादन में एक गंभीर समस्या

 कडुंवा रोग: चावल उत्पादन में एक गंभीर समस्या

धान या चावल एशिया एवं विश्व के बहुत से देशों का प्रमुख भोजन है। धान उत्पादन लाखों परिवारों के आय मुख्य का साधन है तथा इसके उत्पादन में भारत का विश्व में दूसरा स्थान है। पोषण सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए देश के वैज्ञानिक धान की पैदावार को बढ़ाने के लिए नित्य नई प्रजातियों के अविष्कार में प्रयासरत हैं। दुनियां भर में चावल उत्पादकों के लिए धान के दानों को संक्रमित करने वाला आभासी कंडुआ रोग एक उभरती हुई विकट समस्या है। उच्च सापेक्ष आर्द्रता (>90%), 25−35 डिग्री सेल्सियस तापमान, अधिक वर्षा एवं मिट्टी में नत्रजन की अधिकता इस रोग के विकास में सहायक होती है। विगत कई वर्षो से पूर्वी उत्तर प्रदेश में धान की संकर प्रजातियों पर इस रोग का प्रकोप लगातार बढ़ता जा रहा है और आजकल प्रमाणित धान के बीजों पर भी इसका रोग-संचार दिखाई देने लगा है। अनाज की उच्च गुणवक्ता न होने के कारण किसानों को आर्थिक संकट का सामना करना पड़ रहा है। माटी फाउंडेशन, परशुरामपुर द्वारा समय-समय पर संत कबीर नगर, बस्ती, सिद्धार्थ नगर, गोरखपुर, महराजगंज, कुशीनगर, देवरिया तथा अयोध्या आदि जिलों के किसान बंधुओं से इस रोग स्थिति, फसल के बचाव के उपायों तथा अन्य कृषिक गतिविधियों की जानकारी को साझा किया जाता है।
भारत के दक्षिण भागों में कडुंआ रोग को अधिक पैदावार का सूचक माना जाता है तथा इसे लक्ष्मी रोग के नाम से भी जाना जाता है। यह रोग एक ऐस्कोमाइसीट कवक के पौधों में लगने वाले रोगज़नक़ यूस्टिलागिनॉइडिया विरेंस (Ustilaginoidea virens) के कारण होता है, जो अनाज की उपज तथा उसकी गुणवत्ता को अत्यधिक हानि पहुंचाता है। धान के फूलों में कवक की कालोनियों से यूस्टिलोटॉक्सीन एवं यूस्टिलागिनोइडिंस नामक कवक विष (mycotoxin) उत्पन्न होते हैं जिसे फाल्स स्मट बॉल कहते है। प्राय: धान की फसल में फूल निकलने की अवस्था के दौरान यह रोग पौधे को संक्रमित करता है तथा पुष्पगुच्छ निकलने के बाद में दिखाई देता है। प्रत्येक धान्यबीज चारो ओर से गेंद के आकार में ढ़क जाता है, जो पहले पीले रंग का होता है तथा कुछ समय के बाद हरे काले रंग में परिवर्तित हो जाता है, पीला रंग होने के कारण इस बीमारी को हल्दी रोग भी कहा जाता है।
मिथ्या कंडुआ के रोगज़नक़ को गेंदों के गठन के लिए धान के पुंकेसर की आवश्यकता होती है। धान की बालियों में कुछ ही बीज इस रोग के लक्षण को प्रदर्शित करते है, अकेला बीज पील्रे या हरे रंग के मख़मली बीजाणु गेंदों के रूप में परिवर्तित हो जाता है, जिसमें सफेद रंग का कवकजाल तथा बीजाणु पाये जाते हैं। इस कवक का दृढ़क (sclerotia) लैंगिक प्रजनन की संरचना है जो शिशिराति जीवन खेत में व्यतीत करते हैं, 25 डिग्री सेल्सियस तापमान एवं उच्च आर्द्रता में एस्कोस्पोर्स (ascospores) उत्पन्न करने के लिए 10 महीने तक जीवित रह सकते हैं। प्राकृतिक परिस्थितियों में प्राय: स्केलेरोशिया धान के खेतों में आसानी से सड़ जाती है, किंतु कुछ स्केलेरोशिया बहुत से एस्कोस्पोर को पैदा कर सकती है जो धान की बालियों के फूलों को संक्रमित कर आभासी कंड का गोला बनाने में सक्षम होते हैं। अलैंगिक प्रजनन चक्र के लिये आभासी कंड के गोलों से क्लैमिडोस्पोर्स (chlamydospores) हवा तथा वर्षा द्वारा आसानी से प्रसारित हो जाते हैं तथा देर से पकने वाली धान की बालियों को संक्रमित करते हैं।
धान की बालियों के विकसित होने के समय रोग का प्रकोप अधिक होता है। रोग-संचार धान की प्रजातियों पर निर्भर करता है, गंभीर बीमारी की अवस्था में 50 प्रतिशत से अधिक धान की बालियां संक्रमित हो सकती हैं, जिससे अनाज का वजन कम हो जाता है और बीज का अंकुरण भी प्रभावित होता है। संक्रमित पौधों में उत्पन्न कवक विषता चावल के दानों तथा तनों को दूषित कर देती है, जो मनुष्यों तथा पशुओं के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है। हल्दी रोग बीज एवं मृदा जनित रोग है, इसके बीजाणु बीज तथा मिट्टि में अनेक वर्षों तक जिवित रह सकते है। ये बीजाणु प्राथमिक संरोप (inoculum) का कार्य करते हैं। रोगज़नक़ फफूँद का विकास धान के पौधों के अलावा जंगली धान तथा धान खेतों में पायी जाने वाली विभिन्न प्रकार के खर-पतवारों की पत्तियों पर भी होता है, जो वैकल्पिक पोषिता का कार्य करते हैं तथा रोग चक्र में अपरंपरागत तरीके से अहम भूमिका निभाते हैं।
वर्तमान समय में, इस बीमारी के महत्व को समझते हुए उपज हानि को रोकने के लिए सभी आवश्यक उपायों को विकसित करने की आवश्यकता है। यदि इस रोग के नियंत्रण के उपाय नहीं किये जायेंगे तो कुछ वर्षों में धान का कडुंवा रोग एक महामारी का रूप ले सकती है। किसानों को सामूहिक रूप इस बीमारी के प्रति जागरूक बनाने एवं जानकारी देने के लिए गांवों में चौपालों, संगोष्ठियों तथा कार्यशालाओं का आयोजन करने के लिये सरकारी तथा गैर-सरकारी संगठनों को महत्वपूर्ण भूमिका निभाने की आवश्यकता है।

डॉ. देवेंद्र सिंह
माटी फाउंडेशन
संत कबीर नगर, उत्तर प्रदेश

Related post