कल्पना

“कल्पना”
चौराहें से गुज़री ज्यों ही एक लड़की
उसका रंग रूप लावण्य देख
भीड़ की नजरें भड़की
किसी ने उसको लेकर
पत्नी प्रेमिका प्रेयसी की आस लगायी
किसी ने निर्लज़्ज़ता की सीमा औऱ बढायी
कल्पना में ही नारी की गरिमा इतनी गिरायी
कल्पना काश किसी ने ऐसी भी की होती
इतनी सुनयना मेरी भगिनी होती
कल्पना काश कोई ये भी कर पाता
लावण्या और ममतामयी ऐसी ही लगती है मेरी माता
पर समाज का ये ही तो इक ऐसा कोना हैं
जहां स्त्री का स्वरूप स्वार्थ और मतलब से पिरोना है
पुरुष नहीं है दुराचारी
मानस का बस खिलौना है
“यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमन्ते तत्र देवता”
फिरसे याद दिलाना है,बेटी से ज्यादा
स्वयं और बेटे को स्त्री का सम्मान सीखाना है
अपने ही आँगन में घर हो या डगर
सम्मान मर्यादा आत्मविश्वास के संग निडरता
प्रत्येक बेटी को बिन मांगे मिलजाना है।