कविताएँ

 कविताएँ

1.हम और तुम

कुछ और कविताएँ लिखूँगी मैं पलाश पर
तुम आसमान की कानात के नीचे रंग भरते रहना
और देते रहना थपकियाँ
मेरी आवाज़ को यूँ ही ….

शाम रोज ऐसे ही अंगड़ाई लेगी
सूरज धीरे -धीरे ऐसे ही अपनी गश्त पूरी करता रहेगा
तुम यूँही बोते रहना मुझे अपने मन के ज़मीन पर
मैं गेहूँ की फसल की तरह लहलहाती रहूँगी ।

2. अबोले पन्नों में

अतीत के अबोले पन्नों में
बहुत कुछ
महसूस किया जा सकता था —

छोटी दुनिया में रहने से
चुनौतियाँ छोटी नहीं होतीं

भूख का खेल सब नहीं खेल सकते

हर धुन सिरहाने नहीं रखी होती

हर दीवार के सीने में
एक खुली खिड़की नहीं होती

अलग अलग मोर्चों पर
लड़ना होता है
अपना अपना रण

नया ज़माना अब भी
पुरानी तारीखों पर खड़ा है ।

3. दिमागी बस्ती

एक दिन
शहर की बस्तियों से
घबराकर
इस दिल ने
दिमाग की बस्तियों में
घूमना चाहा ।

घुसा मारा
दिल ने खुद को
दिमाग की
उन तमाम
बिना चौराहे वाली
संकरी सड़कों पर
जहाँ ‘नो एंट्री ‘ का बोर्ड
न जाने कब से लगा पड़ा था ।

घुसा मारा
दिल ने खुद को
उन तमाम जगहों पर
जहाँ पुराने रिश्तों की
बदबूदार सीलन थीं ।

घुसा मारा
दिल ने खुद को
उन तमाम
छोटी छोटी
दिमागी अपार्टमेंटों में
जहाँ एक जमा एक
दो नहीं
ग्यारह बनने की फिराक में
रहा करते थे ।

इतना ही नहीं
खड़ा हो गया वह
स्मृतियों की
उन कतारों में
जहाँ रोजाना
बिछा करती थीं
शतरंजी चालें
जहाँ दूर से ही
नज़र आ जाते
बिखरते रिश्ते
जहाँ थी दोहरी जुबानें।

घूम आया दिल उन तमाम
दिमागी बाजारों में
जहाँ खुद को रोज
बेचने के बाद भी
दुनिया के सामने
स्वाभिमान का लंगर
लगा करता था
जहाँ हर जिस्म पर से
लंगोटी नोच लेने की
कवायत चला करती थी

घूम आया दिल
इस दिमागी बस्ती में
जहाँ खुद को
बुलंदियों पर न पा
तेज़ाबी जलन होती थी
जहाँ षड्यंत्रों के
सतरंगी झूले
किसी न किसी को
झुलाने के लिए
तैयार रहा करते थे
जहाँ कलह, क्लेश और
हिंसा की ज्वाला
हमेशा धधकती रहती थी
जहाँ राज तो था
लोकतंत्र का
पर फिर भी न अभिव्यक्ति थी ।

नीली छतरी के
नीचे की बस्ती से
कहीं भयानक
गंदी पड़ी थी
यह दिमागी बस्ती ।

मेरा दिल धपाक से
इस दिमागी बस्ती से
बाहर भाग आया
खुद को उसने निहारा
और
धीरे से फरमाया —

‘शुक्र है खुदा
तूने मुझे
दिल बनाया
दिमाग नहीं बनाया ।’

4. हम औरतें
———

बहुत कुछ है मेरे मस्तिष्क में
जो कूकर की सीटी की तरह
निरंतर सी सी करता
बज उठता है……

क्यों
जिंदगी की आग में
मिट्टी बन गए शरीर को
हम औरतें पकाती हैं
पर
नही पका पातीं हैं
अपने ही सुखों को ।

क्यों
हल्दी की पट्टी बन
दूसरों के जख्मों को
हम औरतें सुखाती हैं ।
पर
नहीं सुखा पाती हैं
अपने ही जख्मों को ।

न जाने कब बहेगा
हमारे दुखों का मवाद
न जाने कब सिगड़ी
की आँच पर
कभी सिकेंगी
हमारे लिए भी
दुआएँ……

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