गोमा

विमलेश गंगवार
लेखिका ,संस्कृत की भूतपूर्व प्रवक्ता हैं । इनके तीन उपन्यास और एक कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं ।विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में आपकी कहानियाँ ,कविताएँ और लेख प्रकाशित होते रहते हैं
दिरनियां नदी अपने पूरे वेग से किलोलें भरती हुई प्रवाहित हो रही थी। दिरनियां के किनारे पांच पुरातन वृक्षों का झुरमुट खड़ा था, उसी के कारण गाॅंव का नाम पचपेड़ा पड़ गया। लोगों का मुख्य धंधा खेती था। गांव में नम्बरदार की तूती बोलती थी। जमींदार उन्मूलन हो चुका है परन्तु अवशिष्ट गौरव उनके मुख मण्डल पर आज भी वैसा ही विराजमान था। दिरनियां के इस पार समूचा गांॅव धवंल चांदनी में स्वप्निल उच्छवासें ले रहा था, उस पार नटों की बस्ती में पूर्णरूपेण जागरण था। बरगद का पुरातन विशालकाय वृक्ष अपने तने धरातल तक लटकाये एवं अपना ललाट ऊॅंचा किये खड़ा था। सघन बरगद के नीचे नट बिरादरी बैठी थी।
देशी ठर्रा का दौर चल रहा था। चौधरी सहित पूरी पंचायत ने सुरापान किया था। गोबर से लिपी झोपड़ियों में धुंधले दिये दिपदिपा रहे थे। बरगद के तने में अवलम्बित लालटेन अपना प्रकाश बिखेर रही थी। गांव में नम्बरदार की ऊची नीची दूधिया हवेली चांदनी में अपनी धवल कान्ति विकीर्ण कर रही थी। मोटे लक्कडो से अलाव सुलग रहा था। डंड से ठिठुरते लोग अपनी सर्दी भगाने का यत्न कर रहे थे। चौधरी आंखे तरेर कर भीड़ में कुछ खोज रहा था। उसकी मूॅंछों वाले चेहरे पर मशाल की आॅंखें अग्नि उगल रही थीं। सुलगी बीड़ी मुॅंह से निकाल उसने पृथ्वी पर मसल दी और क्रोधित हो सन्नाटे को चीरता हुआ बोला, सांठमार……………….
पास में सांठमार अपना चमड़े का पतला हन्टर लिये बैठा था। एकाएक अपना सम्बोधन सुन सावधान की मुद्रा में होता हुआ बोला, ‘हाॅं-चौधरी का हुकूम है?’ ‘‘गोमा को पंचायत में पेश करो।’’
नटनियों के मध्य बैठी गोमा मानों आकाश से पृथ्वी पर गिर पड़ी। सिर से गिरे आंचल को उसने पुनः ओढ़ लिया, भय से कृशगात्री का रोम-रोम ऐसे कम्पायमान हो रहा था, जैसे वायु के झोके से पीपल के पत्ते सांठमार के बार-बार कहने पर वह घबड़ाहट से आगे बढ़ आयी जहां पूरी पंचायत उसकी प्रतीक्षा में बैठी थी। अलाव में रखे लोहे के चिमटे को देख उसका हृदय कांप गया। वह धीरे-धीरे पांव बढ़ाती पंचायत की ओर बढ़ने लगी। हवा के झकोरे से अलाव की लपटें तेज हो गयी थी।
चल कलमुही अपनी ससुराल मानपुर में जो करके आई है उसका फल भोग।
सांठमार ने उसे चोटी पकड़ कर घसीटा। उस शोड़सी वाला की चंचलता लुप्त हो गयी थी, मुख मण्डल क्लान्त था एवं उदास बड़ी-बड़ी आॅंखें गहरी झील सी उमड़ रही थी। वातावरण में अजीब सा सन्नाटा छाया था। परन्तु बरगद के पत्ते परस्पर टकराकर कोलाहल उत्पन्न कर रहे थे। गोमा कातर दृष्टि से चौधरी के क्रोधित चेहरे को देख रही थी।
गोमा को निर्लज्जता का जामा पहनाता हुआ चौधरी बोला, ‘हरिया की बहू की दुर्दशा याद कर।’ गोमा भयभीत हो उठी। इसी बरगद के नीचे दो महीने पूर्व उसे बीस कोड़ों की सजा दी थी चौधरी ने पर वह तो पराये मरद के साथ पकड़ी गयी थी….. मैं तो बेकसूर हूॅं….। वह सोचने लगी।
गोमा के पति कुर्रा ने उसे बदचलनी के आरोप में घर से निकाल दिया था। सारी नट बिरादरी गोमा पर थू-थू कर रही थी। उसकी भौजी, लौंगा और भैय्या प्रीतम का मुख लज्जा से अवनत था।
‘‘ चिमटा का एक दाग और पन्द्रह कोड़े की सज्जा दई इसे।, चौधरी ने एक न्यायाधीश की तरह अपनी सजा सुना दी। गोमा भय के छटपटा उठी, उसके हृदय में जमा विषाद पानी बन आॅंखों से ढुलकने लगा। वह रोकर चौधरी के पांवों पर गिर पड़ी।
‘रहम करो………..चौधरी काका……… हम बेकसूर हैं। वही मेरे पीछे परो हो काका…….।’
‘खबरदार……….जो मुझे काका कही।’
सड़ाक-सड़ाक-सड़ाक………..सांठमार एक के बाद एक कोड़ा बरसाने लगा। सन्न अंधेरे में कोड़े की ध्वनि गूॅंजने लगी।
पति परित्यक्ता गोमा भला पंचायत में कैसे न पेश की जाती, इस बिरादरी की रीति ही कुछ ऐसी थी। पन्द्रह कोड़ों के प्रहार से गोमा निष्प्राण सी हो चुकी थी। सांठमार हाथ में तपाया हुआ लोहे का चिमटा लेकर गोमा की ओर बढ़ा जुल्म मत करो अपनी बस्ती की बेटी पै……..।
चौधरी मूंछो पर ताव दे राक्षसी हंसी हंसता हुआ बोला जुल्म तो तूने करो है, बस्ती के ऊपर बांके के संग पकड़ी गई……….ही ही … ही सारी बिरादरी थूक रही है तेरी करतूतों पर।’
हॅंसते हुए चौधरी का मुॅंह अनायास घृणा से भर गया सारी पंचायत मूर्तिवत बैठी थी। गोमा हाथ जोड़े सिसक-सिसक कर अपनी निर्दोषता का बयान कर क्षमा याचना की गुहार लगा रही थी। उपस्थित लोग दर्शक की भाॅंति देख रहे थे। चौधरी का निर्णय भला आज तक कभी टाला गया था? सांठमार ने अंगारे उगलता, रक्तवर्ण लोहे का चिमटा गोमा की पीठ से सटा दिया। कृशगात्री गोमा पृथ्वी पर कटे वृक्ष की तरह गिर पड़ी और दर्द से छअपटाने लगी।
इस घटना के पश्चात् गोमा अस्वस्थता एवं मनोमालिन्य के कारण घर से महीनों न निकली। घर भी क्या, नाम मात्र का था। टूटी झोपड़ी उसकी भौजी ने लौंगा ने उसे दे दी थी। प्रीतम सौतेला भाई था, माॅं-बाप पहले ही हरिप्रिय हो चुके थे। प्रीतम के पास घर के नाम पर दो झोपड़ियां थीं-सम्पत्ति के नाम पर एक भैंस और दो बैल थे, बस। इन्हीं बैलों के सहारे वह नम्बरदार के खेत बटाई पर जोतकर अपना जीवन निर्वाह कर रहा था।
लौंगा को गोमा का ससुराल से आ टपकना खल गया था। जबकि प्रीतम के हृदय के अंतरंग कक्ष में बहन के लिए ममता थी। लौंगा बैलों को सानी कर कुएॅं पर बैठी हाथ धो रही थी और कुछ बड़बड़ाती जा रही थी। गोमा सोचने लगी भौजी आखिर क्यों इतना बड़बड़ाती हैं? थोड़ी देर के बाद लौंगा पीतल की थाली में दो मोटी रोटी और नमक मिर्च का चटनी गोमा के आगे खिसका कर रख गई और ताना मारती हुए बोली ‘खसम को छाड़ि पराये मर्द को अंगरावै और खटिया पै बैठि के खावों…। लौंगा के ये शब्द गोमा के हृदय में तीर से बिंध गये। वह टूटे पलंग से उतर कर नीचे खड़ी हो गयी और बोली, ‘‘भौजी सारी बस्ती कहे, पर तुम तो न कहो ऐसे।’’ गोमा फफक पड़ी लौंगा के आगे।
बदचलन न होती तो दागी न जाती पंचायत में।’ आॅंखे मटका कर लौंगा बोली और अपनी लाल घाघरिया फरकाती आॅंगन में चली गयी।
दो दिन बाद रोटी देख गोमा की भूख जागृत हो गई सब्र की सीमाएं तोड़ वह भूखे बिलाव की तरह रोटी पर टूट पड़ी। रोटी खाकर उसकी क्षुधा शान्त हो तो गई पर हृदय में अग्नि धधकने लगी थी। वह सोच रही थी, भौजी की रोटी खानी कितनी कठिन है? वह अतीत की गहराइयों में उतरती चली गई। उसे याद आया….कुर्रा दिन भर गन्दे पानी में मछली पकड़ता, शाम को मछली भरी पतीली दिखाता हुआ कहता, ‘देख तोरे लिए कितनी मछली लाओं हूॅं दुई दिन खायेगी। और हॅंसकर उसे मिट्टी लगी छाती से लगा लेता। गन्दे पानी की बू उसके नथुनों से टकराती पर प्यार की गंध से वह सराबोर हो उठती और उसके मुस्कराते चेहरे का एंकटक निहारती रहती। भौजी चटनी रोटी में ही इतना गरूर दिखाती है। उसे चटनी रोटी खिलाकर स्वयं गुड़भाती खाती है। कुर्रा भैरपुरा की बाजार से नया सौंधा गुड़ लाता और गुड़भाती बना उसे खुद खिलाता था, गरम भाती से उसकी जीभ जलाकर कुर्रा हंसता और अपने उष्ण अधरों को उसके कपोलों पर गड़ा देता। कुर्रा का मुस्कराता चेहरा उसके सामने आ गया……….। उसकी स्मृति मात्र से गोमा भ्रमरी की तरह चकृत हो उठी कैसे होंगे वे? सोचकर गोमा ने दीर्घ निःश्वास छोड़ी और पति कुर्रा के वियोग में फफकर कर रो पड़ी, तेज हवा चल रही थी। झोपड़ी का फूस पवन के झोंकों से थरथरा रहा था। पास वाली झोपड़ी में भौजी हॅंस-हॅंसकर भैय्या से बातें कर रही थी। घर में उसे घुटन लग रही थी वह झोपड़ी के बाहर जाकर खड़ी हो गई।
…………सामने दिरनियां के पास दूर-दूर तक नम्बरदार के हरियाले खेत… पुराना आम का विशाल बाग, चौड़े-चौड़े केले के पत्तों से घिरी विशालकाय दूधिया हवेली सब कुछ वैसा ही था। इसी बाग में वह घंटों कुर्रा के साथ लबो सात (एक खेल) खेलती तब वह दोनों नम्बरदार की हवेली में नौकरी करते थे। विवाह बन्धन में न बॅंधे थे। वह गाॅंव की अल्हड़ किषोरी थी और कुर्रा लम्बा तगड़ा जवान। लबो सात में पैरों के मध्य से डंडा निकाल कर जोर से फेंका जाता है और साथी द्वारा छूने के भय से जल्दी पेड़ पर चढ़ना पड़ता है। गोमा तड़ से डंडा फेंकरकर आम के पेड़ पर चढ़ जाती। डंडा झांड़ी में जा गिरता। कुर्रा डंडा खोजता पर जब न खोज पाता तो बड़बड़ाता।
‘कित्ती जोर से फेंकत है।’
वह उसी वृक्ष की ओर भागता जिस पर गोमा चढ़ी होती और हॅंसता हुआ कहता, ‘बोल कहाॅं फेंका हौ….. बता जल्दी नहीं तो पेड़ से नीचे खींच लेउगें।’
‘सच्ची….ई…ई…’ गोमा खिलखिलाती और सच में वह उसे नीचे खींच लेता। उसी खींचातानी में गोमा की चूड़िया चटक जातीं।
‘अरे छोड………………’
‘न छडॅंू तो………’ वह हॅंसकर कहता और गोमा को अपने बाहुपाश में जकड़ लेता। कुर्रा के धड़कते सीने की ध्वनि उसे बेहद अच्छी लगती…..‘ पल भर को वह सब कुछ भूल जाती और भाव विभोर हो उसके चैड़े सीने से लगी रहती।
‘अब बोल फेंकेगी इतती जोर से…….।’ कुर्रा आॅंखों से मादकता छलकाते हुए फिर पूछता।
वह झुरमुटों के मध्य कुर्रा के सीने से चिपकी खड़ी रहती और टुकर-टुकर कुर्रा कीआॅंखों में झाॅंकती रहती….. बिना कुछ बोले- गूॅंगी सी। अगले पल वह कुर्रा से छिटक कर हवेली की ओर भागती, बदहवसास उन्मत्त सी।
गोमा ने दीर्घ निःष्वास छोड़ी और सोचने लगी अब कहाॅं है कुर्रा……… और वे दिन! सब इतनी जल्दी कैसे मिट गय।
रात अपने यौवन पर थी। सभी खा-पीकर सोने की तैयारी में थे। गोमा का अंग प्रत्यंग दर्द से टूट रहा था। भैया चिलम पी रहे थे, तम्बाकू की गन्ध गोमा तक आ रही थी। भौजी वहीं बैठी फुलवा को आॅंचल में छिपाये दूध पिला रही थी। भैया खाॅंस रहे थे, भौजी बार-बार उसका नाम लेकर बातेें कर रही थी। अपना नाम सुनकर गोमा को उत्सुकता हुई। वह अंधेरे में दीवारी के सहारे आ खड़ी हुई। छुप अंधेरे में कुछ भी दिखाई नहीं पड़ रहा था। भैया की चिलम के अंगारे दहक रहे थे बस।
‘डोला न देयगो तो कब तक रखोगे मेरी छाती पर।’ भौजी कह रही था। गोमा ने अपनी सांस साध ली और कान लगाकर सुनने लगी।
‘अरी लौगा, डोला तो महा दरिद्दर देते हैं अपनी बहिनी बेटी को……..फसल कटने तक रूक, उधार कर्ज से मैं ब्याह करोगों गोमा को…….. और वह गोकुल मेरी बहन के लायक नहीं है लौंगा…।
‘तो फिर और कौन ब्याह करेगो बदचलन लड़की से।’ लौगा कड़क कर बोली। पीतम ने लम्बा कष खींचकर चिलम की राख जमीन पर उड़ेल दी और गमगीन सा कुछ सोचने लगा।
‘भौजी डोला देयगी, आखिर मैं कुर्रा की ब्याहता हूॅं?’ खुद तो रात दिन भैया के तन से लगी रहत है…….पराव दुःख नहीं जानत है……मैं बदचलन कहाॅं हूॅं……
उसे याद आया…..ऐसी ही भयंकर रात थी वह….. चारों ओर घुप अंधेरा था। सेमीखेड़ा के मेले में आयी पूरी भीड़ चादरें बिछा सो रही थी। गोमा अभी ठीक से न सो पायी थी। उसे लगा कि एक भारी हाथ उसके पेट के इर्द-गिर्द फिसल रहा है। कुर्रा के अलावा कौन हो सकता है? सोते-सोते वह सोच रही थी। उसकी ननद सुरसतिया और ननदोई बांके सोये थे पास में। इतना भारी स्पर्ष कुर्रा का नहीं हो सकता है। उसने बुद्धि दौड़ाई और कसकर हाथ पकड़कर उठ कर बैठ गई।
‘अरे तु घबड़ाती क्यों हो गोमा रानी, हम तो कब से तुम्हारे सपने देख रहे हैं…. बांके की आवाज उसने पहचान ली। उसे याद आया जब वह शिवगंगा में भीगी धोती लपेट नहा रही थी तब बांके उसे मुस्कराकर देख रहा था। घबराहट से बांके का हाथ उसके हाथ से छूट गया। बांके बलात उसे अपनी ओर खीच रहा था, गोमा बिना पानी की मछली की तरह निरन्तर छटपटा रही थी। इसी खींचातानी में गोमा की चीख निकल गई जिससे सुरसतिया और कुर्रा की नींद उचट गई। बांके घबरा कर अलग हट गया और पैंतरे बदल कर बोला, ‘ऐ कुर्रा तुम्हारी… मेहरिया छिनार है……. मेरे चदरा पर बैठ रही थी।’ सुरसतिया नागिन की तरह फुफकार उठी…. ‘खाक पड़े इसकी अलबेली जवानी पर, मेरो मदर मिलो है, भरे मेला में…. रण्डी है तो कोठे पर बैठ…।’ न जाने कितनी जली-कटी सुनाती रही, कुर्रा भी अपने बहन-बहनोई संग बार-बार गोमा को ही गुनहगार ठहराता रहा जैसे-तैसे वह भयंकर रात बीती। सुबह उठकर कुर्रा मानपुर जाने की तैयारी करने लगा। बांके व सुरसतिया भी उसके साथ जा रहे थं गोमा मानपुर जाने को उद्यत हुई तो क्रोध से आग उगलता हुआ कुर्रा बोला, ‘मुझसे भूल हुई गोमा… जब मैं तेरे नम्बरदार के घर नौकर हो तो तू मुझ पर लट्टू थी, अब बांके पर लट्टू है, तो कुल्टा है। मेरो भरम है कि तू मुझे बहुत चाहती है तेरा तन गोरो हैं, मन कारो है… तू जा, पचपेड़ा भाग जा यहां से… नहीं तो मैं जहर खाय लूॅंगों।’
गोमा उठकर बैठ गई पलंग पर। स्मृति मात्र से उसके सीने में अंगारे दहकने लगे। वह बदचलन है… बांके भ्ला मानुश है। वह घायल सिंहनी की भाॅंति छटपटाने लगी। वह बांके की छाती से बल्लम भोंक देगी। सामने दीवार पर टंगे बल्लम पर उसकी दृश्टि अटक गयी। भैया इसी बल्लम से षिकार खेलने जाता है। सारी रात पलंग पर पड़ी वह उच्छवासें ले-ले तड़पती रही। कुर्रा का प्यार एवं तिरस्कार उसके तन-बदन को दहकाने लगे।
पति परित्यक्ता को नट बिरादरी में कोई स्थान प्राप्त न था। जैसे-तैसे उनका सगा सम्बन्धी भोजन देने भर की व्यवस्था कर पाता था। बदचलन लड़की को पंचायत में डोला देने की व्यवस्था थी। डोला में दुल्हिन की डोली नहीं उठती थी, अपितु लड़की वाला बिना भांवर डाले ही कन्या को वर पक्ष के हवाले कर देता था। वर पक्ष अपने घर ले जाकर कन्या की इस भाॅंवर कर प्रबन्ध कर लेता था। इस तरह दरिद्र कन्या के माॅं-बाप विवाह के व्यय से बच जाते थे और लड़की के हाथ भी पीले हो जाते थे।
पंचायत ने निर्णय ले लिया था कि गोमा का शीघ्र ही डोला न दिया गया तो बदचलन नटनी बस्ती के लड़कों को गुमराह कर देगी। पीतम अपनी बहन का धूम-धाम से ब्याह करना चाहता था पर वह विवश था। पंचायत का निर्णय पत्थर की लकीर था।
लौंगा के मायके नगरिया से पाॅंच आदमी डोला लेकर आये हुए थे। रेशम की साड़ी, जम्फर , बूटी छपा पेटीकोट, टिकुली, पाउडर आदि बहुत कुछ लाये थे। बस्ती की नटनियों की आॅंखें सामान देख रही थीं। वह कह रही थी, ‘बड भागिन है गोमा…। नम्बरदारिन की बहू-बेटी जैसी साड़ी पहनैगी…। लौंगा ने अपनी ननद के लिए अच्छे घर तलाषों है।
गोमा यह सब सुनकर उन्मत्त सी हुई जा रही थी। अपना डोला उसे फांसी देने जैसा लग रहा था। गोमा को नगरिया वालों के सामान से सजा संवार दिया गया था। विदाई की बेला सन्निकट थी। घूॅंघट के अन्दर गोमा सुबक रही थी। उसकी करूण हिचकियों से वातावरण उदास था, बरगद का पुरातन वृक्ष सन्न था। पीतम हैरान था।
रहलू (बैलगाड़ी) में बैल जुते खड़े थे। गोमा भीड़ से घिरे रहलू की ओर पायल छनछनाते पैर आगे बढ़ा रही थी पर उसका मन कोसों पीछे भाग रहा था। उसने घूॅंघट के अन्दर से पीतम को देखा। विवशता से वह रो रहा था पर भौजी बड़ी प्रसन्न थी। वह घर से मानों बला टाल रही थी। बस्ती को छोड़ गोमा का रहलू नगरिया की तरफ बढ़ने लगा। बैलों के गले में बॅंधे पीतल के घुॅंघरू, मानो गोमा के विलाप सदृश ध्वनित होते जा रहे थे। नगरिया दूर न थी। तीन गाॅंव पार जाने के बाद रहलू नगरिया पहुॅंच गया। कई औरतें गाना गाती हुई घर से बाहर आयीं और गोमा को अन्दर ले गई। बच्चे चिल्ला रहे थे, देखो गोकुल की दुल्हिन आई है। एक अधेड़ औरत ने गोबर से लिपी खपरैल में गोमा को बिठा दिया और घूॅंघट हटा दिया। वह उसके सौन्दर्य को एकटक निहारती रही और मुस्कराती हुई, बोली -‘हाय गजब… गोकुल की दुल्हिन तो बड़ी चटक है।’ जो भी देखती यही दोहराती जाती। लाल छींट की रेषमी साड़ी बाॅंधे, थोड़ा सा घूॅंघट किये एक महिला लड्डू भरी थाली लेकर आयी और गोकुल को संकेत कर बोली, आओ दिवरजी…. डोला की रसम पूरी करो, बहू का मुॅंह अपने हाथ से मीठो कराओ।
गोमा ने पलक उठाकर देखा, एक प्रौढ़ आदमी बैशाख़ी के सहारे टिका, पान चबाये, मन्द-मन्द मुस्कुराता उसकी ओर बढ़ा चला आ रहा था। उसका एक पैर लापता था। गोमा का कलेजा धक से हो गया, भौजी ने धोखा करौ है मेरे संग, गोमा की आॅंखे छलक आयीं। अनजानों की भीड़ में उसे ऐसा लग रहा था कि उठकर भाग जाये।
गोकुल एक लड्डू उठाकर गोमा को मुॅंह मीठा कराने लगा। उसने झटक कर अपना मुॅंह हटा लिया।
अरे यह तो नखरा कर रही है भौजी, गोकुल ने मुस्कराकर लाल साड़ी वाली औरत से कहा।
दिवरजी, अकेले में खायेगी, तुमसे, लो हम जा रहे हैं। शोख हॅंसी बिखेरती वह औरत बाहर निकल गई और बांस के टूटे कपाटों की भली भांति सटा गई।
गोकुल लड्डू खिलाने का प्रयास कर रहा था। गोमा मन ही मन कुढ़ रही थी। रह रह कर उसे क्रोध आ रहा था। बाहर आॅंगन में ढोलक बजाकर स्त्रियां समवेत स्वर में गा रही थीं।
बन्नी उजरिया की रात, बन्ना मेरो सांवरो।
गोमा का मन बरबस गाने की ओर आकर्शित हो गया । एक वर्ष पूर्व मानपुर में यही गाना गया जा रहा था। कुर्रा ने उससे हॅंसकर पूछा था। ‘तू उजरिया की रात है गोमा?’ और वह लजा कर उसके सीने से चिपक गई थी।
गोकुल ने गोमा की पौची एवं चूड़ी भरी कलाई पकड़ ली और आलिंगनबद्ध कर लिया। गोमा एक झटके से अलग हो गई। गोकुल घिसटता हुआ आगे बढ़ आया और नयनों से मादकता छलकाला हुआ बोला, ‘नखरा करती हो, अब तो हम तुम्हारे भर्तार हैं।’
‘बिना भाॅंवरि भरतार कैसे हो तुम?’ गोमा ने तपाक से जड़ दिया।
अच्छा तो जा बात है? चार दिन बाद पूरनमासी को भाॅंवरि पड़ैगी हमारी-तब तक इन्ताज कर लेंउगे। वैसे मुखरा सुन्दर है पर दिल पत्थर है तुम्हारा…..।’ कहकर गोकुल पीछे हट गया। उसकी चंचल चितवन गोमा को ऐसी लग रही थी मानो शत्-शत पर्वत श्रृंखलाएॅं उसके ऊपर गिरी हों वह दर्द से छअपटा तो रही थी परन्तु दर्द निवारण की कोई औषधि उसे दिखाई नहीं दे रही थी।
सर्वत्र भयंकर कोलाहल था, अंधड़ था। तूफान था जो समूची बस्ती में बाबेला मचाये था, एक क्रुद्ध दानव की तरह। सभी की जिह्वा के अग्रभाग पर एक ही राग था कि गोमा नगरिया से भाग आई है, हाय राम बज्जुर की बदचलन है। वह दूसरे खसम को भी छोड़ आयी है। एक की होयके नहीं रहैगी वह सत्तर पत्तल चाटेगी।
वह कैसा घिनौना आलाप था। जिसे सुनकर गोमा कानों पर उॅंगली रख रही थी।
विवाह के सभी प्रबन्ध हो गये। गोमा के भागने के अपराध की सजा पीतम को सौ रूपये देकर भुगतंनी पड़ी थी। पंडित ने विवाह वेदी में अग्नि प्रज्जवलित कर दी थी। वह फेरे डलवाने का बन्दोबस्त करने लगा। गोमा की जलती अग्नि वेदी अपनी जलती चिता सदृश लग रही थी। वह मन ही मन कुढ़ रही थी, ‘हे दिरनिया नदी, किससे व्यथा कहौ अपनी, तू लाज रख मेरी, मैं कुर्रा की हौं……..’ गोमा पागल हो उठी।
लौंगा बलात उसे मण्डप तक ले आई। कैसी दुल्हिन बनी थी वह, न नयनों में कजरा, न बालों में गजरा। न माथे पर टिकुली, न बदन पर साबुत धोती।
एक के बाद एक भाॅंवर पड़ती जा रही थी।
पगविहीन गोकुल बैशाखी क सहारे अग्नि वेदी के चारों ओर घूम रहा था। साथ रहने और साथ मरने की कसमें खा रहा था। पंडित वचन भरवा रहे थे। गोकुल बड़े उत्साह से वचनों को बोल रहा था, पर गोमा गूंगी बनी, विवाह वेदी के रीते चक्कर लगा रही थी।
‘हे भगवान तू तो सब कुछ जानता है, बोल मैं बदचलन हौं? कहाॅं है कुर्रा की वह चाहत और मेरे पतिव्रत की लाज? अब तो दिरनिया मैया…. देह से प्राण लेले बस।’ वह सिसकती जा रही थी। यह कैसे वचन थे जिन्हें वह भाॅंवर के समय निभा रही थी।
‘सुहागिन की भाॅंवर क्यों पड़ रही है चौधरी ?’
एक रूआबदार आवाज वातावरण में ऐसे गरजी मानों बिजली गिर पड़ी हो।
‘मेरी बात का जवाब दो?’
चौधरी व पंच थर-थर काॅंपने लगे। ठर्रे की मादकता हिरन हो चुकी थी। सामने सूर्यवीर, विशालकाय, वयोवृद्ध, नम्बरदार खड़े अपना बेंत लपलपा रहे थे। इस वेंन ने कितनों की चमड़ी उधेड़ कर रख दी थी। अनके गांवों में वह अपनी न्यायप्रियता, उदारता एवं दया के लिए लिए प्रसिद्ध थे। दरिद्र तथा सम्पन्न दोनों मिलकर उनका गौरव गान करते थे। समूचे गांव में सिर्फ उनका हुक्म बजता था। गांव का पत्ता भी बिना उनकी शह के न फड़कता था।
चार भृत्य लाठी लिये उनके साथ खड़े थे। कुर्रा भी साथ था। नेत्र विस्फारित कर भी विवाह मण्डप को तो कभी गोमा को देख रहा था।
बिरादरी के लोगों से गोमा की चर्चा सुन लिया करता था। गोमा को निकालने के बाद उसे पल भर की शांति न मिल पायी थी। बांके ने मानपुर की कई अन्य सुन्दरियों पर अपनी बुरा नजर डाली थी। एक दिन ठर्रे के नशे में बांके ने गोमा के निर्दोष होने की बात कह दी थी तब से कुर्रा प्रायश्चित की अग्नि में धधक रहा था। नगरिया से गोमा के भागने का समाचार जैसे ही उसने सुना वह सीधे रहम दिल नम्बरदार के पास भाग आया था। उसने अपनी सारी व्यथा-कथा रो-रो कर उन्हें सुना दी थी। वह जानता था पंचायत में बिरादरी वाले उसकी नहीं सुनेंगंे। नम्बरदार की एकमात्र सक्षम व्यक्ति हैं जो उसकी सहायता कर सकते हैं।
नम्बरदार की गरजती आवाज को सुनकर गोमा ने बन्द पलकें धीरे से खोली और विक्षिप्त दृष्टि से विवाह मण्डल को देखा तो वह सोचने लगी सच में वह पागल हो गई है या कोई ऐसा सपना देख रही है जिसमें कुर्रा एवं नम्बरदार खड़े हैं….. कुर्रा मन का देवता और नम्बरदार सच के देवता।
‘चौधरी बोलते क्यों नहीं हो? नम्बरदार पुनः गरजे।’ चौधरी सहम गया, नम्बरदार का धैर्य सेतु अब पूर्णतया टूट चुका था। अधिक देर तक सहना उनकी आदत न थी। उनका बेंत तड़ातड़ चौधरी की पीठ पर ताण्डव नृत्य करने लगा। चौधरी दर्द से छअपटाने लगा। पंच विवाह मण्डप का यह रंग देख पांव खिसकने लगे पर नम्बरदार के साथ आये अनुचरों ने उन्हें ऐसे दबोच लिया जैससे बिल्ली के चूहे को दबोच लेती है।
गोमा की समझ में कुछ नहीं आ रहा था। वह मन ही मन सोच रही थी कि चौधरी को भला कौन पीट सकता है। इस बरगद के नीचे चौधरी ने कोड़े बरसाये हैं, बदन गरम लोहे से दगवाया है।
कुछ देर बाद उसने अपनी बड़ी-बड़ी आखे खोली तो नम्बरदार और कुर्रा को देख आश्चर्यचकित रह गई। वह लपक कर नम्बरदार के चरणों पर गिर पड़ी सारे जीवन के आसू एक साथ पावन चरणों पर लुढ़क पड़े।
‘उठो बेटी, क्या हालत हो गई है तुम्हारी।’ नम्बरदार के नेत्र करूणा से छलक पड़े।
नम्बरदार के आदेष से गोकुल के अॅंगोछा की गाॅंठ गोमा के आॅंचल से खोल दी गई। गोकुल बैशाखी टिकाते हुए एक तरफ भागा। नम्बरदार ने अपनी मुलायम दूधिया चादर से कन्धे से उतार कर कुर्रा के कंधे पर डाल दी और गोमा के आंचल से गठबंधन कर बोले पंडित जी सातवीं भाॅंवर डलवाओ.।