घिस रहा है धान का कटोरा【लम्बी कविता】

रचनाकार :लक्ष्मीकांत मुकुल

【1.】

जिधर देखो उधर
फैले हैं धान के खेत सद्य प्रसूता की तरह
गोभा की कोख से निकलकर चौराते
कच्चे ,पके, अधपके बालियों के गुच्छे
डुलते हुए नहरपार से आती
नदी के किनारे से बहती
पूर्वी पश्चिमी हवाओं के झोंकों से
जैसे लहरा रहा हो विशाल समुद्र
कभी होले – होले
कभी लहरदार वेगों में
हिलते – डुलते धान के बाल
उसके डंठल, उसकी पत्तियां
जिसके ऊपर थिरक रहे हैं
जुठाराने की लालच में
सुग्गों, गौरैयों के झुंड

खेतों के बीच से गुजरती है पगडंडियां
सांवरे बालों के बीच उभरती मांग की तरह

【2 】

देख – देख हुलस रहा है किसान का सुगना
इतिहास की लंबी परंपरा का वाहक
सनातन काल से करते हुए खेती
दादा -लकड़दादा के जमाने से ही नहीं
बल्कि ,उसके पूर्व से जब धरती पर
पहली बार हुए थे धान परती में
सुनता आया है वह दादी – नानी से कहानियां
जब धान के कंसों में सीधे उपजते थे चावल
उस जमाने में जब धरती पर उगे अनाज को
सोना से भी ज्यादा दिया जाता था महत्व
जब हर दुधारू पशु बिना नागा
भर देते थे दूध की बाल्टियां
नदियों की धार में बहता था पीने वाला पानी
वृक्ष लताओं में सालों भर लदे रहते फूल – फल
चरती हुई भेड़ बकरियां भी बरा देती थीं अन्नधारी पौधे
बदला जमाना बदलती गए लोग बाग
स्वभाव ,चरित्र, चाल – ढाल
वे खेतों में लटक रहे चावल के दाने को
कच्चे चबा जाते जब या, दूसरों के खेतों के
चावल झाड़ देते लग्गी से
मिट्टी दरारों में फंसे चावलों का सर्वनाश हो जाता
लोग भूखे मरने लगते
आखिरकार कुदरत ने खोज लिया
अन्न को बचाने का उपाय
चावल सुरक्षित करने का नायाब तरीका
चावल के ऊपर लगा दी गई खोल नोकदार खोइला बच गया धान , धान का कटोरा ,
कटोरी में एकत्र सुनहले धान
उत्तेजित हवा में झूलते हुए
झूलाते हुए किसानों के तन – मन, हरसाते हुए प्राण

【3.】

गुनगुनाते हैं किसान खेतों के आर – पगार घूमते हुए
“धनी हम करब बोअनिया तू कटनिया करिह ना”
धान से भरे हुए खेत जो पहले होते थे वन छिहुली पीढ़ी दर पीढ़ी पसीना बहाकर
उपजते रहे हैं यह प्राण रक्षक अन्न के ढेर
धान की खेती के किस्से सुनते आए हैं वे बचपन से कैसे की जाती थी हल बैलों से खेतों की जुताई
उसके दादा की युग में
चास दोखार , आंतर कियारी ,कोन कोडाई
हल के फल चीरते थे लीख से लीख
मुरेना,साईं, पनखारवा,डवरा ,केना, करमी को ही नहीं
जोब, जोबड़ा , कंसो, मोथा, दूब जैसी
जब्बर घासों से जकड़ी करइल मिट्टी को
जैसे चीरती है कंघी सिर के उलझे बालों को
जैसे कंठ की सप्त स्वरों की गूंज में
बच जाती सांस लेने की फलक

करते हुए धान की खेतियां
कठोर कगार की तरह दृढ़ है किसान
अकाल – महामारी के दिनों में भी
भीख मांगने नहीं गए कभी आन गांव
कभी उनके गांव की डलिया नहीं उठी
किसी और धनखर गांव की ओर
धनसोई ,धनगाई ,धनभखरा , धवनी ,धनछुआं
या , कहीं और….. भदेया बेंग की तरह बछड़े वाली धेनु की भांति रंभाते, टर्राते हुए

【4.】

जब भी घुमड़ती हैं घने बादलों के साथ
आकाश में मानसूनी हवाएं
धान के पौधे हिलकोरे लेते हैं खेतों में
हिलोरे लेता है किसानों की भीतर का जल
साथ में मचलने को बारिश बूंदों के साथ

कहते सुनते आए हैं बाबा दादा के जमाने के
खेती की पुरानी किस्से
कि कैसे उस युग में छींटकर
बोया जाता था ‘ बावग ‘ किस्म से धान के बीज
करंगा ,करहनी , सहनदेईया , सेराह के बीहन
धरती की नमी से अंकुरित हो आते थे पंसारी, भुइंसीकर,रामदुलारी,राम करह्नी,
सिरहंट के अनोखे बीज

बिन रोपे,बिन जोते खेतों में भी उपजने में माहिर
जैसे संकटों में घिरे लोग बचा ही लेते हैं जीने की जिजीविषा
बांस की फूटे कोंपड़ की तरह
फूटती हैं नवजात उम्मीदें

रोपाई वाले धान की बीजों को बारिश चूते ही डालते थे किसान
तेज धूप में पसीने जैसा खून सुखाते हुए
पाही – दर – पाही रोपते हुए
जलहोर,झेंगी, दुधकंडर ,बासमती,वैतरणी,
भंडनकावर, मालदेही,मटुनी ,रमजुआ, सिरीकेवल, कनकजीरा, डुला हरा , दोलंगी के बिचड़े
एक मेड़ से दूसरे मेड़ तक, जैसे चलता है सूरज सुबह से शाम पूरब से पश्चिम की लंबी पगडंडी पर

साठी के लाल, लौंगचूरा के काला रंगों के चावल का
मड़सटका खाने के लिए खखुआए रहते बच्चे
कौर – कौर भात खाने के खेल में
ठीक, दोल्हा -पाती ,लुकाछिपी की तरह

5.】

बदलता गया जमाना
बदलते गए समय के रिवाज
खेती के औजार, बैलों की जोड़ी
हल – जुआठ , हेंगा, ढेंका ,जांत , ओखल -मूसल सिमटते गए शुभ मुहूर्त में अक्षत छीटने के रिवाज विवाह के समय गीतों के बोल – ” एने के धनवा ओने के धनवा एके में मिलाव रे “
बदलते गये रिश्तो को आंकने के पैमाने
धान के भुस्से की तरह उड़ती रही ग्रामीण लोकधारा

गड़गड़ाते ट्रैक्टर दौड़ने लगे खेतों में
चिघड़ने लगे धनकटनी में हार्वेस्टर कार्बाइन की धमक खत्म हो गई गले में घुघूर बजाते कबरा, गोला,मैनी बरधों की जोड़ियां
बिलाते गए देसी धानों के दुर्लभ बीज
काला नमक ,जवा फूल, काला भूत,
कल्ला मल्ली, तिलक चंदन की पुरानी किस्में
करघा जंगली धानों की प्रजातियां
खोआ धान ,डोकरा -डोकरी
अलबेला होता था बोरा धान, जिसके चावल से भात नहीं बल्कि, पकती थीं अद्भुत चपातियां
कहीं हरित क्रांति का आसमान तो नहीं निकल गया इन्हें या , अधिक उत्पादन की हवस में फट गई धरती की कोख
जमाने की गहवर में विलीन हो गई सरिया कुलिया छिंटुआ धान बीज वंशावलियां
समय के बादलों के लटके हाथी- सूंड में सुढ़कते गए
औषधीय गुणों से लबरेज अलचा , सोंठ ,करहनी, महाजनी के धान की पौधे
सूखे पत्तों से उड़ गई नगपुरिया,कतिका , मंसूरिया ,
मोदक ,बंगलवा,सीतासुंदरी
कलमदान की देसी स्थानीय धान की प्रजातियां
गुम हो चुके प्राकृतिक रूप से उपजने जाने वाले
गुच्छेदार आमागध के बीज वंश
जिसके गंध अब भी मिलते हैं भोजपुरी लोकगीतों में
हाइब्रीड बीजों की गर्दनकाट
नई बाजार व्यवस्था की लूट संस्कृति की धौंस में
जैसे गले में बची खाली जगह
रोने में आती है बहुत काम।

【6.】

कहीं भी हो सकता है धान का कटोरा
समतल मैदानों में, पहाड़ की घाटियों – तलहटियों में
राह बदल चुकी नदियों की छाड़न में

देखा था न तुम्हें सुरहा ताल में
छिटुआ बोए धनकटनी को
लहरों के ऊपर धान – पौधों के मथेला
सूर्य की तेज किरणों में चमकते हुए
लहराते बढ़ते जाते जलस्तर के साथ
सुगापंखी , सिंगारा,करियवा, टुंडहिया,
दुललाची जैसी किस्में पसरी थीं अथाह जलराशि में डोंगी पर चढ़कर मल्लाह स्त्रियां झटका देकर
हंसिया से कैसे काटती थीं धान की बालें
जिसे देखकर जलती आंखों से
घूरते थे वहां के ठेकेदार ,दलाल ,पटवारी
नोच लेने को उनके श्रम के सारे मोल।

【7】

बदलती धान की खेती में
प्रकृति ने बदल ली अपना रंग- रूप, गुण – धर्म
रासायनिक खादों की बढ़ती उपयोगिता स्याही सोख्ता की तरह निचोड़ ली मिट्टी की उर्वरता
कीटनाशक दवाओं के छिड़काव से
नष्ट होते जा रहे हैं प्रतिरोधी मित्र कीट आत तायी झुण्डों की
बढ़ती जा रही हैं झुमका ,चतरा ,भूरा धब्बा ,
आभासी कंड , माहू , कंडुवा, खैरा ,झंडा ,
झुलसा जैसी धान की गंभीर बीमारियां
पसरते जा रहे हैं तना छेदक ,पत्ती लपेटक , फुदका , गंधीबग ,गंगई ,इल्लियां, हरे मच्छर ,माहू ,दीमक, फूफूंद ,लाल मकड़ियों की फौज
चिड़ियों की तरह चट कर जाने को आतुर खेत के खेत, बधार के बधार
रोपनी से कटनी तक जूझ रहा है किसान
पौधे के ज्ञात -अज्ञात दुश्मनों से
बाढ़ ,अकाल ,महामारी की
असंख्य पीड़ाओं को झेलता हुआ
भूखा, प्यासा ,बेहाल
मिट्टी के बांध की तरह
बाढ़ के वेग से ढहता – ढिलमिलाता हुआ।

【8.】

मानसून की पहली बूंदों में
भींग रहा है गांव
भींग रहे हैं जुते -अधजुते खेत
भींग रही है समीप की बहती नदी
भींग रहा है नहर किनारे खड़ा पीपल वृक्ष
हवा के झोंके से हिलती
भींग रही हैं बेहया ,हंइस की पत्तियां
भींग रही हैं चरती हुई बकरियां
भींग रहा है खंडहरों से घिरा मेरा घर

ओसारे में खड़ी हुई तुम
भींग रही हो हवा के साथ
तिरछी आती बारिश – बूंदों से

खेतों से भींगा – भींगा
लौट रहा हूं तुम्हारे पास
मिलने की उसी ललक में
जैसे आकाश से टपकती बूंदें
बेचैन होती है छूने को
सूखी मिट्टी से उठती
धरती की भीनी गंध ।
【9】

बूंदाबांदी में भीग रही है औरतें
रोपते हुए बिचड़े पंक्ति दर पंक्ति
रोप रही हैं अपने दर्द , वेदना ,धूसरित होते सपनें
गाती हुई सावन मास में कजरी के
प्रेम और प्रणय के गीत
हो रामा , ए हरी की टेक दोहराते हुए
_ ” पूरब पश्चिम से आती चिड़िया
बैठ जाती हैं बबूल की गांछ पर

बबूल को काट – काटकर
हल बनवाऊंगी
सरई का गढ़वाऊंगी जुआठ

दोनों जोबनों को बैल बनाऊंगी
और पिया को रखूंगी अपना हलवाह “

कीचड़ – कादो में बच्चे
खेल रहे हैं पानी पांक से बिछलहर के खेल
‘ टिपटिपवा ‘ से डर की लोकोक्ति को झूठलाते हुए

10.】

तीखी घाम के बीच अचानक
होती झम झम बरखा में भीग रहे हैं
धान के बिचड़े कबारते खेत मजदूर
उनकी तड़प भीग रही है
ग्राम्य गीतों के कंठ स्वरों में….
_ “ओ मेरे साथी
छप – छप करता पानी
छप छपाने लगती हवा तो
धूप से लाचार हो जाता मेरा मन

ऐसा ही जी करता
स्वर्ग में बिछा देते जल
बादलों की छतें पिटवा देते

डीह को मनाता
डीहवार को मनाता है मन
कोई नहीं होता अब मुझ पर सहाय

आंखें लाल हुईं
तवंकने लगी चमड़ी
दोनों जांघ छीलने लगे अब

चमकता है चन – चन
मेरी देह का रोंवा – रोंवा
चैन नहीं मिलती सारी रात

शायद एक ही आस हो
मेरे जीवन में
धान से भर जाती हमारेे भंडार ! “

उनके लोकबोलों में छलक रही है श्रम की पीड़ा
भींग रही हैं उनके देह,भींग रही है जलते खून से
उठती तरबतर पसीने की बूंदें !

समा रहा कष्ट का ज्वार उनकी पसलियों के भीतर
झुराई लकड़ियों की धीमी चटकने सी
पृथ्वी पर विस्तार पाती उदासी की समां
जैसे उजाड़ वनों में आती है सिसकियों की आवाज

【11】

गिरगिट की तरह रंग बदल रही है मानसूनी हवाएं
काले कजरारे बादलों को निगल गया क्षितिज
भेड़ बदरा मचल रहे हैं आसमान में
मध्य भादो में सूख रहे हैं धान के खेत
दरारों में दुबकने लगी हैं पौधों की जड़ें
सतवांस जन्मे बच्चे सी हो गई है उनकी काया
कृशकाय, कुपोषित, जीने की तड़प में बेहाल
सूख रही पत्तियां असहाय मां की सदृश्य विकल
पौधे को खाद – पानी देने में असमर्थ

रुक रहा है नदी का वेग
दुर्लभ दर्शन बन गया है नहर का पानी
उड़ती खबरें आती हैं कि झुरा गया है सोन
वाणसागर , रिहंद बांधों के जल को लेकर
छिड़ाहै वाक् युद्ध
बिहार, यूपी – एमपी की सरकारों में
इन सबसे बेखबर किसान पंपसेट से
भूमिगत जल निकालने में जला रहे हैं डीजल
अपना श्रम ,अपनी तकदीर
वे लगे रहते हैं पौधों की जड़ों को पानी से पखारने में
जैसी रात पूरी होती ही मचल उठता है दिन
उगकर उजास फैलाने की अंत: क्रिया में

【12.】

शुरू हो गई है धान की कटनी
पर, कहां गायब हो गया है कटनी का सुतार…?
नवान्न को पाने का उल्लास
इससे जुड़े पर्व -त्योहार, हंसी – खुशी
वह गंगा स्नान , खिचड़ी का मेला
किस कोने में छिप गया मोती बीए के गीत का भावार्थ _
“कटिया के आईल सुतार हो सजनी , कटिया के आइल सुतार
हाथे हसुअवा कांधे लउरिया लेलिहले , बलमा हमार हो सजनी “
वह जोश, वह उम्मीदों की ललक
किसने चुरा ली धान के कटोरे के भोले कृषकों से
जिसका कुंजन कवि ने अर्थ बोध दिया था अपनी कविता में _
” आइल अगहनवा , कटाए लागल धानवा छिलाए लागल ना
गांवें गांवें खरीहनवा, छीलाए लागल ना…..”

कहां भूमिसात हो गई नोखा नटवार की उसिना चावल मीलें
जिसकी चिमनी से उठते धुएं
कई कोस दूर से बनाते थे पहचान
किधर जलमग्न हो गए
मरूंआं जैसे गांव की बहुतेरेे चावल के चूल्हें
किधर अंतर्ध्यान हो गया
वह चहल पहल, रोजी रोजगार के अवसर
कैसे बुझते गए जीवन के दीप समय के साथ

जल्लाद बने सरकारी तंत्रों ,दलालों, रंगबाजों के तिकड़म के
मकड़जाल में फंसता गया सुनहले धान का भरा कटोरा
जैसे छलनी करते गए मजबूत मेंड़ को इस दौर के खेंखड़े
बिलगोहों की तरह काटते गए किसानी व्यवस्था की जड़ें

【13.】

हाल के दशकों तक
धनकटनी का समय था उमंगो का अनूठा वसंत
गंगापार से आते थे कटिहारों के झुंड
नौजवान, अधेड़ स्त्री पुरुष ,अपने नन्हे बच्चों के साथ
कंधों पर बहंगियों का बोझ उठाए
जिनके सहमेंल से बनता था अनूठा समाज
गूंजते थे गीत बधार में कटनी के_

” घर छोड़कर अपने में ही
धूनी रमाया है वह मतलबी
अब तो आई फसल
चली न जाए

चूड़ी फेंक मारी
बेलना फेंक मारी
तो भी नहीं जागता वह कुलबोरन

कहती है सास
बिगाड़ी हूं मैं ही उसका लक्षण
बस अछरंग ही मिले हैं मेरी तकदीर में

वो नहीं उठेंगे तो
तो नहीं बोलेंगे ससुर
गोतनी भी अब करने लगी है पटिदारियां

मेरी पिछवाड़े में
लोहार भाई हैं मेरे शुभेच्छु
गढ़ देंगे वे दंतगर हंसिया

उन्हीं की इरिखा में
धाऊंगी बधार में
हाथ में लेकर गुर्रही और पेटाढ़ियां…”

हंसुआ की धार से कड़.. कड़ … कटते हैं धान की डांठ
बोझा ढोते हुए हिलती है हवा में धान की बालियां ,उसके कंसे
कहती हुई धान के कटोरी की अकथ कहानियां !

【14.】

आरा – दिनारा के दुलरुए
छोड़ते जा रहे हैं इस धान के देश को
जैसे धनखर खेती की पहचान जताने वाले
गायब होते गए पुआलों की गांज

वे फैलते गए गुजरात की कपड़ा मिलों
मुंबई की फैक्ट्रियों, आसाम के चाय बागानों
गिरमिटिया बन मॉरीशस ,फिजी, सूरीनाम
और न जाने कहां-कहां
उनके श्रम की गति से बढ़ते रहे
दिल्ली ,मुंबई ,चेन्नई, बैंगलोर के आकार
सपनों की मृगतृष्णा की खोज में
कभी नोटबंदी, तो कभी देशबंदी की
जाल में उलझते गए , शिकार होते गए
नित नए बहेलियों की जाल में
कुचले गए ट्रकों से , कटते रहे ट्रेन की पटरियों पर
गिरकर दबते रहे ऊंचे निर्माण गृहों से
सबसे ज्यादा तुम ही मारे गए देश की सीमा झड़पों में
देते रहे तुम ही अपना सर्वोच्च बलिदान

माना कि यह धान का कटोरा
हरगिज़ पूरा नहीं करते विस्तृत होते तुम्हारे सतरंगी छाते
फिर भी तड़पता है यह तुम्हारे लिए
इसकी धूसर मिट्टी की रंग से बनी है तुम्हारी काया
तुम्हारी धमनियों में बहती है यहां के पानी की धार
तुम्हारे पसीने में महकती है यहां के चावल की खुशबू
तुम्हारे सांसो की महक में कायम है
चूल्हे से पक कर उतरे भात से निकली भाफ की भीनी सुगंध

【15.】

पक चुकी है धान की बालियां
भर गया है धान का कटोरा सुवर्ण रंगों से
थिरक रहे हैं अन्नदाता के मन के सुगने
हंसिया की तीक्ष्ण धारों और
कार्बाइन की हड़हड़ करती कटिंग से
भर गए हैं उसके खलिहान
ढेर के ढेर ,बालूका राशि की तरह

अब नहीं आते सुआ – सुतरी लिए बनिये
दीखता नहीं कहीं हाट बाजार में सरकारी खरीद के गल्ले
चावल मिलों के सौदागर
धान के खरीदार, खुदरा व्यापारी

वे शायद सो रहे होंगे अपने दरबे में
या , सुला दिए होंगे बाजार नियंत्रित करने वाली शक्तियों के भय से
कृषि उत्पादों की सम्पदा को
हड़पने की साजिश को रचने – रचाते हुए

बिलख रहे हैं किसान
सूख चुके धान की तरह उनके भीतर की नमी
हिल रहा है धान का कटोरा
उड़ा ले जाने को उसके श्रम से उपार्जित
अमूल्य धान्य सम्पदा
अदृश्य बाजों के चुंगल में
और विवश कर देते हैं अन्न दाताओं को
बकरे की तरह जिबह होने के लिए

【16.】

‘ क्या बदलेगी कभी
धान की कटोरी की तकदीर ? ‘
_ गौरैया पूछ रही है मैना से
मैना पूछ रही है दूर तक नजर रखने वाले कबूतरों से
कबूतर पूछ रहे हैं चालाक कौऔं से
डगमगा रहा है धान का कटोरा
घिसती जा रही है उसकी तली
दिन – ब – दिन फुटाहा होता रहा

हल – बैलों को विस्थापित किया ट्रैक्टरों ने
कटनिहारों को क्रूर कार्बाइनों ने
लाभकारी कीटों को जहरीली रसायनों ने
देशी बीजों को हाईब्रीड सिड्स ने
घुर पात को केमिकल खादों ने
निश्छल किसानों को पूंजी ग्रस्त बाजारों में
विस्थापित होते देखते रह गए दबे पांव
सिमटते फसल चक्र के तरीके
हिलता रहा धान का कटोरा
चुपचाप ,बेआवाज !

【17】

देखना,
कभी मनुष्य के श्रम की गंध से
विलग हो जाएगा यह धान का कटोरा
हवाई जहाज से होगी धन रोपनी
गैस फिल्टर से निकाई
स्मार्टफोन रेडियल तरंगों से कीट पतंगों की सफाई
कंप्यूटर के सॉफ्टवेयर से सिंचाई

जरा ठहर कर सोचना कि
आने वाले दौर में
किसान विरोधी दंतैले चूहों के
बिल में कौन डालेगा पानी
उसके पेठाए बिच्छूओं की नुकीली डंकों को
कैसे बांधने का पट्टियों से होगा साहस
उसके भेजे जहरीले सर्पों के लपलपाते जिह्वओं को
कौन दागेगा लोहे के गर्म छड़ों से

हिल हिलकर घिस रहा है
धान का कटोरा
अपनी अकूत खाद्य संपदा,
अपना स्वाद ,गंध,नैसर्गिकता
मिट्टी की सुवास , अन्न तृप्ति की पहचान की बुनियाद
बचाने का भरसक प्रयास करता हुआ !

【कवि परिचय 】
लक्ष्मीकांत मुकुल
जन्म – 08 जनवरी 1973
शिक्षा – विधि स्नातक
संप्रति – स्वतंत्र लेखन / सामाजिक कार्य / किसान कवि/मौन प्रतिरोध का कवि।
कवितायें एवं आलेख विभिन्न पत्र – पत्रिकाओं में प्रकाशित । पुष्पांजलि प्रकाशन , दिल्ली से कविता संकलन “लाल चोंच वाले पंछी” प्रकाशित।

पत्राचार संपर्क :-
ग्राम – मैरा, पोस्ट – सैसड़ ,
भाया – धनसोई ,
बक्सर,
(बिहार) – 802117

ईमेल – kvimukul12111@gmail.com
tiwarimukul001@gmail.com

मोबाइल नंबर-
6202077236 / 9162393009
रोहतास जिला,बिहार के मैरा गांव में निवास।

तेज प्रताप नारायण की टिप्पणी : बक्सर, बिहार के लक्ष्मीकांत मुकुल वैसे तो विधि स्नातक हैं लेकिन खेती-किसानी में ही उनका मन रमता है । ‘घिस रहा है धान का कटोरा’ उनकी एक लम्बी कविता है ।लम्बी कविताएँ वैसे भी इस भागती दौड़ती ज़िन्दगी में कवि कहाँ लिखते हैं और जो कुछ लिखी भी जा रहीं है वे इतना अमूर्तन रूप में है जिसमें कवि अपनी सारी विद्वता उड़ेलने के प्रयास में रहता है । ऐसे में ‘ घिस रहा है धान का कटोरा ‘ कविता का स्वागत किया जाना चाहिए ।

इस कविता में कवि की दृष्टि से कृषक संस्कृति का अतीत ,वर्तमान और भविष्य कुछ भी बचा नहीं है ।कवि की दृष्टि 360 डिग्री दौड़ी है और सब कुछ समेट लिया गया है कविता में । कवि ने अपनी कविता के माध्यम से कृषक संस्कृति के उत्थान और पतन ,उसमें हो रहे विकास या क्रमिक ह्रास सबकी बात रखी है ।गाँव से शहर की ओर पलायन हो ,कृषि का मशीनीकरण हो ,रसायनिक खादों का अत्यधिक उपयोग हो या अधिक उत्पादन की हवस ।
“अत्यधिक उत्पादन की हवस में फट गई धरती की कोख ।”

बदलाव इतनी तेजी से हुआ है कि बहुत कुछ उड़ गया है ।बाज़ारीकरण, मशीनीकरण, पूँजीवाद और अब नये कृषि कानून और इसका परिणाम ;
‘धान के भूसे की तरह उड़ती रही ग्रामीण लोकधारा ‘
अधिक यांत्रिकीकरण का नुकसान यह होता है कि पहले आदमी मशीन को चलाता है और फिर मशीन आदमी को चलाती है और आदमी मशीन में लुप्त हो जाता है ।
अति किसी भी वस्तु की सही नहीं होती है,चाहे वह निजीकरण हो,मशीनीकरण हो ,शहरीकरण हो,आदर्शवाद हो,राष्ट्रवाद हो या कुछ और ।अति का परिणाम हमेशा बुरा होता है । अति हमेशा सहअस्तित्व के विरुद होती है।

किसान ,इतिहास की लम्बी परंपरा का वाहक होता है ।किसान ही सभ्यता का जनक है ।किसान मेहनती और स्वाभिमानी होता है ;
अकाल महामारी के दिनों में भी
भीख माँगने नहीं गये आन गॉंव
कभी उनके गाँव की डलिया नहीं उठी ।

यही किसान जब खेतों की जुताई करता है तो मानों वह खेतों का श्रृंगार कर रहा हो ;

“जब्बर घासों से जकड़ी करइल मिट्टी को
जैसे चीरती है कंघी सिर के उलझे बालों को ।”,

या

“खेतों के बीच से गुज़रती पगडंडियां
साँवरे बालों के बीच उभरती माँग की तरह “

किसान और प्रकृति का अद्भुत तादात्म्य होता है और यह बात एक किसान ही महसूस कर सकता है :

“जब भी घूमती हैं घने बादलों के साथ
आकाश में मानसूनी हवायें
धान के पौधे हिलकोरे लेते हैं खेतों में
हिलोरें लेता है किसान के भीतर का जल “

‘धान का कटोरा ‘ एक बिम्ब प्रधान कविता है ।ग्रामीण देशज शब्दों से पंक्ति दर पंक्ति सुन्दर बिम्बों से सजी हुई है ।चाहे वह रोपाई का समय हो,जुताई का समय अथवा रोपाई और मड़ाई का ।
कृषक संस्कृति में खेती एक व्यक्ति का काम नहीं होता है बल्कि पूरा परिवार ही उसमें शामिल होता है ।इसी सहधर्मिता के कारण राग-विराग,प्रणय,वेदना आदि की समवेत स्वर में रागात्मक अनुभूति होती है । रोपती हुई औरतें अपना सारा दुख- दर्द,वेदना ज़मीन में रोप देती हैं ।

‘धान का कटोरा ‘आदिम से आधुनिक की यात्रा भी कही जा सकती है । समाज में धान के कटोरे को हथियाने का संघर्ष ज़ारी है वह चाहे नई कृषि नीति के माध्यम से हो या नव पूँजी वाद के माध्यम से ।
गोदान के होरी से लेकर आज के किसान की भी हालत कमोबेश वैसी ही है ।पहले भी शासक बहरे थे और आज भी बहरे हैं ,तभी तो किसान आत्महत्या करने पर विवश है और खुले आसमान के नीचे हांड़ को कंपाने वाली सर्दी में आंदोलन रत है ।
आज के समय का बड़ा प्रश्न यही है कि क्या धान का कटोरा बचा रहेगा ?

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