घिस रहा है धान का कटोरा (लंबी कविता) : एक मूल्यांकन
_तेज प्रताप नारायण
बक्सर, बिहार के #लक्ष्मीकांत मुकुल वैसे तो विधि स्नातक हैं लेकिन खेती-किसानी में ही उनका मन रमता है । ‘घिस रहा है धान का कटोरा’ उनकी एक लम्बी कविता है ।लम्बी कविताएँ वैसे भी इस भागती दौड़ती ज़िन्दगी में कवि कहाँ लिखते हैं और जो कुछ लिखी भी जा रहीं है वे इतना अमूर्तन रूप में है जिसमें कवि अपनी सारी विद्वता उड़ेलने के प्रयास में रहता है । ऐसे में ‘ घिस रहा है धान का कटोरा ‘ कविता का स्वागत किया जाना चाहिए ।
इस कविता में कवि की दृष्टि से कृषक संस्कृति का अतीत ,वर्तमान और भविष्य कुछ भी बचा नहीं है ।कवि की दृष्टि 360 डिग्री दौड़ी है और सब कुछ समेट लिया गया है कविता में । कवि ने अपनी कविता के माध्यम से कृषक संस्कृति के उत्थान और पतन ,उसमें हो रहे विकास या क्रमिक ह्रास सबकी बात रखी है ।गाँव से शहर की ओर पलायन हो ,कृषि का मशीनीकरण हो ,रसायनिक खादों का अत्यधिक उपयोग हो या अधिक उत्पादन की हवस ।
“अत्यधिक उत्पादन की हवस में फट गई धरती की कोख ।”
बदलाव इतनी तेजी से हुआ है कि बहुत कुछ उड़ गया है ।बाज़ारीकरण, मशीनीकरण, पूँजीवाद और अब नये कृषि कानून और इसका परिणाम ;
‘धान के भूसे की तरह उड़ती रही ग्रामीण लोकधारा ‘
अधिक यांत्रिकीकरण का नुकसान यह होता है कि पहले आदमी मशीन को चलाता है और फिर मशीन आदमी को चलाती है और आदमी मशीन में लुप्त हो जाता है ।
अति किसी भी वस्तु की सही नहीं होती है,चाहे वह निजीकरण हो,मशीनीकरण हो ,शहरीकरण हो,आदर्शवाद हो,राष्ट्रवाद हो या कुछ और ।अति का परिणाम हमेशा बुरा होता है । अति हमेशा सहअस्तित्व के विरुद होती है।
किसान ,इतिहास की लम्बी परंपरा का वाहक होता है ।किसान ही सभ्यता का जनक है ।किसान मेहनती और स्वाभिमानी होता है ;
अकाल महामारी के दिनों में भी
भीख माँगने नहीं गये आन गॉंव
कभी उनके गाँव की डलिया नहीं उठी ।
यही किसान जब खेतों की जुताई करता है तो मानों वह खेतों का श्रृंगार कर रहा हो ;
“जब्बर घासों से जकड़ी करइल मिट्टी को
जैसे चीरती है कंघी सिर के उलझे बालों को ।”,
या,
“खेतों के बीच से गुज़रती पगडंडियां
साँवरे बालों के बीच उभरती माँग की तरह “
किसान और प्रकृति का अद्भुत तादात्म्य होता है और यह बात एक किसान ही महसूस कर सकता है :
“जब भी घूमती हैं घने बादलों के साथ
आकाश में मानसूनी हवायें
धान के पौधे हिलकोरे लेते हैं खेतों में
हिलोरें लेता है किसान के भीतर का जल “
‘धान का कटोरा ‘ एक बिम्ब प्रधान कविता है ।ग्रामीण देशज शब्दों से पंक्ति दर पंक्ति सुन्दर बिम्बों से सजी हुई है ।चाहे वह रोपाई का समय हो,जुताई का समय अथवा रोपाई और मड़ाई का ।
कृषक संस्कृति में खेती एक व्यक्ति का काम नहीं होता है बल्कि पूरा परिवार ही उसमें शामिल होता है ।इसी सहधर्मिता के कारण राग-विराग,प्रणय,वेदना आदि की समवेत स्वर में रागात्मक अनुभूति होती है । रोपती हुई औरतें अपना सारा दुख- दर्द,वेदना ज़मीन में रोप
देती हैं ।
‘धान का कटोरा ‘आदिम से आधुनिक की यात्रा भी कही जा सकती है । समाज में धान के कटोरे को हथियाने का संघर्ष ज़ारी है वह चाहे नई कृषि नीति के माध्यम से हो या नव पूँजी वाद के माध्यम से ।
गोदान के होरी से लेकर आज के किसान की भी हालत कमोबेश वैसी ही है ।पहले भी शासक बहरे थे और आज भी बहरे हैं ,तभी तो किसान आत्महत्या करने पर विवश है और खुले आसमान के नीचे हांड़ को कंपाने वाली सर्दी में आंदोलन रत है ।
आज के समय का बड़ा प्रश्न यही है कि क्या धान का कटोरा बचा रहेगा ?
संपर्क सूत्र_ tej.pratap.n2002@gmail.com