दीवाली पर सफाई

रचना चौधरी
दीवाली है न!!!!
घर की सफाई पूरी हो गयी ??
हो गयी !!
न न कुछ तो बाकी रह गया है !!
क्या ??
जनाब ! चलते हैं दिल-दिमाग वाले कमरे में ज़रा झाँककर आते हैं ।
पूरे घर से ज्यादा कचरा इकट्ठा हो रखा है यहाँ!
क्या कहा ????
साफ सुथरा है !!
ओह्हो ! ज़रा आइना उठाइये और अपनी सूरत पर गौर फरमाइये।
क्या दिख रहा ??
बेहद खूबसूरत और संवरे हुये तो हैं आप !
करीने से सजा रखी है अपनी बढ़ती उम्र के साथ कम होती जा रही ज़ुल्फों को । सफेदी भी ढांप ली है इक ज़रा सी कोशिश करके । झुर्रियां तो गायब ही हैं एकदम ।
पर साहब ! मन की झुर्रियों का क्या ???
एक बार ज़रा अपनी मुस्कुराहट पर भी गौर फरमाइये , और देखिये आपकी मुस्कान कितना मेक ओवर करके आयी है।
अब भी समझ न आया कुछ ??
याद करिये अपने बचपन या अपने बच्चों की मुस्कान को ।
क्या मिला ???
एक निश्छल और उन्मुक्त हंसी !!
है न !!
बस यही गुम गयी है न।
जी हाँ! मगर ये निश्चल और उन्मुक्त हंसी गुम होते-होते साथ चुरा ले गयी है हमारी जिन्दगी में से जिन्दादिली , और छोड़ गयी है एक मशीन!! जो बनाती है बस _ पैसे , प्रतिक्रियायें, प्रतिद्वंदी !! और बाईप्रोडक्ट्स में उत्पादित करती है ईर्ष्या, बेचैनी, उदासी, एकाकीपन, स्वार्थ , नफरतें कटुता और भी न जाने क्या कुछ ।
और हम अनजाने ही इकट्ठा करते जाते हैं अपने मन के कोनों में ये सारी गर्द, बगैर कभी झाँके कि भीतर इक ज़रा सी ज़मीन बाकी नहीं रह गयी जहां मोहब्बत को पांव धरने की गुंजाइश भी बाकी रह सके ।
घर की लक्ष्मी ज़रूर धन का रूप धर आती होगी मगर मन की लक्ष्मी तो निश्छलता और प्रेम के दो नन्हें नन्हें कदमों से चलकर ही आती है।
तो फिर उठिए और लग जाइए अपने मन का कचरा हटाकर उसे सुकून और प्यार मोहब्बत के दीये से जगमगाने के लिये।
मन में जमा वो सारे लोग जिनका जिक्र आते ही मन तल्ख हो उठता है , उनपर एक नज़र दौडाइये और अन्दाजा लगाइये उन गुंजाइशों का जो अभी भी बाकी रह गयी हैं रिश्तों को पुनर्जीवित करने के लिये । जिनमें गुन्जाइश बाकी है उन्हें फोन लगाइये या फिर मिष्टी का टुकड़ा उनसे बांटकर आइये। जहां गुंजाइशों की भी गुंजाइश नहीं बची है उन्हें मन से बाहर का रास्ता दिखाइये। हम्म्म _ जानती हूं मन कोई एयर कंडीशन्ड रुम नहीं जो एक सा रहेगा। ये गुंजाइशों से महरुम रिश्ते अपनी तल्खियां बांटने दोबारा लौट- लौट कर आयेंगे । मन के घरौंदे में दाखिल हो हमें फिर से बेचैन कर जायेंगे। पर हमें भी तो मनानी है मन की दीवाली कुछ ऐसी कि कोई कोना खाली न पड़ा रह जाय , कि कोई तल्ख सा रिश्ता वापस अपनी जगह बनाकर वहीं बैठ जाये । नफरतों के नाखून बहुत पैने हैं , वो सबसे तेज़ खुरचते हैं हमारे दिल की दर-ओ-दीवारों को ही और निकाल फेंकते हैं हमारी मासूमियत और मोहब्बत के एहसासों की नर्म सी परत को । कि एक पुरखुलूस और मोहब्बत से लबरेज़ मन की धीमी होती लौ को फड़फडाकर बुझने से पहले फिर से रौशन करना ही होगा । कि मद्धम पड़ती लौ की तासीर इतनी कम हो चली है कि भीतर सब कुछ जम सा चुका है। और परत दर परत जमती चली जा रही कुण्ठा, द्वेष , घृणा और नफरत ने मन के साथ-साथ जीवन को भी सख्त कर दिया है । उसे पिघलाना तो होगा ही अपने लिये !
नाकामियों और अधूरे सपनों का बोझ इतना भारी होता है कि उदास मन और पंगु हो जाता है, नहीं उठा पाता इनका बोझ। तो क्या इस बोझ को उठाना हमारी आगे की बची जिन्दगी को बोझिल और नाकाम करने की सबसे बड़ी वजह न हो जायेगा। तो उठा बाहर फेकिये ऐसे रद्दी गट्ठरों को कि उसी जगह एक नयी शुरुआत के ताजा फूलों का गुलदस्ता सजा लीजिये ।
वो जो निराशाओं की धूल जमा रखी है मन की खिड़कियों पर , धो डालिए उमीदों से उसे आज ही , ताकि दिखाई तो दे आज और आने वाले कल की संभावनाएं एकदम साफ-साफ! महका लीजिये प्रेम के इत्र से मन का कोना – कोना ! कि ये प्रेम का इत्र ही है जो सबसे ज्यादा ताजगी हमारी खुद की जिन्दगी में भरता है !!!!
- रचना