पर न मालूम क्या नहींं था
-डॉ आरके सिंह, वन्यजीव विशेषज्ञ, कवि एवम स्तम्भकार
अपना घर था,
घर में सब कुछ था
‘पर न मालूम क्या नहीं था’
गाड़ी भी थी,
एक छोटा बगीचा भी था
‘पर न मालूम क्या नहीं था’
ठीक ठाक पेंशन थी,
बैंक बैलेंस भी था
‘पर न मालूम क्या नहीं था’
खाना बनाने वाला था,
माली भी था
‘पर न मालूम क्या नहीं था’
बुढ़ापे के रोग भी थे और चलने में अब बहुत दिक्कत थी,
पत्नी को कमर दर्द और हाँ गठिया भी था
‘पर न मालूम क्या नहीं था’
एक बेटा विलायत में था,
एक परदेश में था
‘पर न मालूम क्या नहीं था’
बेटे फोन पर हाल भी ले लेते थे,
पैसे भी नहीं मांगते थे
‘पर न मालूम क्या नहीं था’
हर कमरे में बेटों के बचपन की तस्वीरें थीं,
उनके कुछ खिलौने भी बीसों साल से सहेज कर रखे थे
‘पर न मालूम क्या नहीं था’
अच्छे पड़ोसी थे,
कुछ मित्र अब भी जिंदा थे
‘पर न मालूम क्या नहीं था’
समय भी खूब था,
ऐसा लगता था कि सब कुछ तो था
‘पर न मालूम क्या नहीं था’
उस सुबह जीवन संगिनी का केवल शरीर था,
अर्थी पर पति का कन्धा भी था
‘हाँ, माँ के लिए बेटों का कन्धा नहीं था’
-डॉ आरके सिंह, वन्यजीव विशेषज्ञ, कवि एवम स्तम्भकार