पिता के छाले

रचना चौधरी
मन के भीतर कुलबुला रहे थे
पीड़ाओं के अनगिनत गोजर
जो रेंगकर पहुंचे थे पिता के हृदय से मुझतक ,
हाथों में मरहम लिए
मैं खड़ी थी प्रतीक्षा में
कि कब लौटें पिता ,
जिम्मेदारियां निभाकर
कमाए सुकून की कुछ रेजगारिंयां लिए ,
और मैं लगा दूँ लेप उन घावों पर
जो मिले हैं उन्हें जिम्मेदारियां उठाने की खातिर
हमारी रोटियों से लेकर दवाओं तक के जुगाड़ में
नित नए सजे हमारे सपनों और
उनके टूटे सपनों की चुभन में
जो हाथ दुआओं को भी वक़्त न निकाल सके ,
लगा दूँ थोड़ा मरहम मन के उन छालों पर
जो ढंक कर रखे है
अपने सख्त चेहरे की ओट में ,
बहुत देर पूछते टटोलते हुए भी
न पहुंच सकी उन छालों तक
और उन्होंने चादर से मुँह ढंकते हुए
बस इतना कहा
‘कोई बात नहीं
देखा जाएगा ‘
मैंने मल लिया सारा मरहम
खुद के मन पर __
मगर ये क्या ??
मरहम भी न सह सका था
उस दर्द का ताप
और नमक हो चुका था !!!