इकहरा प्रेम

 इकहरा प्रेम

मैं आज तक उसी मोड़ खड़ा हूँ जिस मोड़ पर तुम मुझे छोड़ कर गयी थी।
सच में दिव्या मैं तुमको दिल से प्यार करता हूँ। तुम्हारे सिवा आज तक मैंने किसी को अपनी प्रेमिका के रूप में नही देखा। तुम्हारी अनुपस्थिति में मैं, तुम्हारे ही सपनो में खोया रहता हूँ तुम्हारी यादों में जीता रहता हूँ । मुझे ये अच्छे से पता है कि तुम बेवफा नही हो । जितना मैं तुमको चाहता हूँ शायद उससे भी कही ज्यादा तुम मुझे चाहती हो। तुम्हारा मुझसे दूर जाना तुम्हारी कोई मज़बूरी रही होगी,और उस मज़बूरी की वजह से तुम मुझसे इतनी दूर चली गयी लेकिन दिव्या तुम मेरे से दूर नही हो हमेशा मेरे साथ हो, मैं तुमको छू भी सकता हूँ, देख भी सकता हूँ बात भी कर सकता हूँ। मैं अकेले में घण्टो बैठे तुमसे बातें भी करता हूँ । तुम मुझे आज भी गीत सुनाती हो मेरे कंधे पर सर रख मेरे बालो को सहलाती हो, मैं गीत सुनते-सुनते अतीत के गहरे सागर में डूबने लगता हूँ।
और फिर अचानक गहरी नींद से जागता हूँ । तब मेरे बाहों में तुम नहीं होती हो । तुम्हारी जगह समाज की दी हुई कडुवाहटें बाहों में समेटे बैठा ख़ुद को पाता हूँ ,
सच दिव्या !
हर पल मेरा मन ख़ुद को कचोटता है कि क्यों नही मैं उच्च जाति में जन्मा।
यदि जन्मा होता तो मैं तुम्हारा होता।
– सिर्फ तुम्हारा “दीपक”

दिव्या और दीपक बचपन के बहुत अच्छे मित्र थे, धीरे-धीरे मित्रता उम्र के साथ प्रेम में बदलने लगी। दिव्या उच्च जाति की थी जबकि दीपक जाति से निम्न था । दिव्या और दीपक एक दूसरे को दिलोजान से प्यार करते थे। शादी भी करना चाहते थे। लेकिन दिव्या के घर वालों को दीपक की जाति को लेकर एतराज था। उन्होंने दिव्या की शादी अपने ही जाति के किसी और लड़के के साथ करवा दी।
दीपक को जब ये सब पता चला तो दीपक बहुत दुःखी हुआ, सोचकर कि दिव्या और दिव्या के घर वाले इतने पढ़े-लिखे और उच्च पदाधिकारी होते हुए भी इस तरह की छोटी मानसिकता के शिकार कैसे हो सकते है।
जाति बड़ी और सोच छोटी ये कैसा विरोधाभास। यकीन नहीं हो पा रहा था उसे ।
जबकि दीपक की माँ भी इंजीनियरिंग कॉलेज में प्रोफेसर और पिता दिल्ली के बड़े अस्पताल में शल्यचिकित्सक थे। दीपक भी सिविल इंजीनियरिंग की तैयारी कर रहा था। इतना सब कुछ अच्छा होते हुए भी उसने सिर्फ़ अपनी जाति की वज़ह से दिव्या को खो दिया । वो जाति जो कि उसने नही बनाई इस समाज ने बनाई है। दोषी वो नही लेकिन दोष की सज़ा उसको मिली ये कैसा समाज जो प्यार का बंटवारा करा दे।
यही सब सोचकर दीपक बहुत रोया लेकिन उसका रोना तो आज वही सुन और देख रहा था उसके आंसू पोछने वाले दो हाथ तो किसी ओर को सौंप दिए गए थे ।
कुछ समय बीता और दीपक की नौकरी लग गयी। वो अपना दिल्ली शहर छोड़कर बंगलूरू चला गया। उसने शादी नही की । दिव्या की यादों के सहारे ही जिंदगी को गुजारना सीख लिया।
आज रविवार का दिन था । दीपक को ऑफिस नहीं जाना था तो आज वो दिव्या के दिये हुए कपड़ो को साफ करके करीने से लगा रहा था कि,तभी उसको उसके पुराने कोट की जेब में रखा एक पत्र मिला जो कभी दिव्या को लिखा था। लेकिन दिव्या को दिया नहीं ,यही सोचकर कि कही ये प्रेम पत्र दिव्या के बसे-बसाए परिवार को ख़तम न कर दे क्योकि दिव्या की खुशी उसके जीवन की सबसे बड़ी पूंजी थी। इसलिए दिव्या से बात करने का जब भी दीपक का मन किया करता वो एक पत्र लिखकर अपने पुराने पैंट या कोट की जेब मे रख दिया करता था ऐसा करने से उसका मन हल्का हो जाता था ।
—सीमा पटेल

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