बचपन

कोरा कागज़ था मन ये सखि !!
जो चाहा जिसने लिख डाला
था शोख़ हसीं सा चंचल मन
पागल पंछी सा मतवाला
माँ की ममता में था पला बढ़ा
मन कच्ची मिट्टी का बना घड़ा
मन के सपने तब कच्चे थे
कागज की नावों में तिरते थे
तितली से पंख रंगीले थे
जुगनू जैसे चमकीले थे
हम दूर देश उड़ जाते थे
चंदा मामा छू आते थे
ज्यादा आशाएं न थी पाली
मन में हरदम थी खुशहाली
अब बड़े हुए तो बिगड़ गए
अपनें बचपन से बिछड़ गये
अनगिनत सजाए पलकों में
ख़्वाबों के महल उजड़ गए
बचपन का सुख था सच्चा
माँ का दुलराना था अच्छा
आ लौट के आ जा फिर बचपन
क्यों न उम्र ढले चौवन पचपन ….
सीमा पटेल