बचपन

वाह कैसा था वह सुंदर बचपना
कभी पेड़ से तोड़ लेते थे आम
और कभी खेत से उखाड़ लेते थे चना

डंडा लेकर गाय और भैंसों के साथ चलना
तेज़ दुपहरी में दोस्तों के साथ छुपन छुपाई खेलना

खेलना पूरी शिद्दत से चोर सिपाही का खेल ,
बात -बात पर लड़ाई और मेलजोल

गुड्डे ,गुड़िया और गोली कंचा
टायर चलाना और खेलना गुल्ली डंडा

पढ़ने लिखने की फ़िक़्र नहीं करते थे
दिन भर दौड़ भाग किया करते थे

कबड्डी, कबड्डी ,कबड्डी कहते हुए ज़ोर से सांसे भरना
कुश्ती खेलते हुए उठाना और पटकना

दिन बीत जाता था,पर पता नहीं चलता था
सूरज कब निकलता था और ढलता था

गाँव में कोई भी अंजाना नहीं था
भोले थे हम सब कोई सयाना नहीं था

सुबह उठकर आम बीनने जाना
महुआ के पेड़ तले महुआ बटोरना
इधर से उधर की धमा चौकड़ी
कभी घर मे खाना पूड़ी
कभी पड़ोसी के यहाँ की कचौड़ी

हीरा ,मोती बैलों की थी अच्छी जोड़ी
बुद्धन चाचा की तेज़ भागती सुन्दर घोड़ी
खेतों और खलिहानों में सीखा था धरती से प्यार
कैसे मनाया जाता है
खिचड़ी ,होली और दीवाली का फसली त्योहार

सजाते थे जतन से बैलों को दशहरे पर
जैसे सजाते हैं दूल्हा
घर का दाल भात और मिट्टी का चूल्हा
भुलाये नहीं भूलता है अब भी सावन का झूला
बैलगाड़ी पर जाती हुई बारात
और पीनस में दूल्हा

शादी या शिशु के जन्म पर सोहर का गाना
दादी और नानी की कहानियों का ख़ज़ाना
रोपनी में गीत गाती औरतें
अभावों में हँसती मुस्कुराती औरतें
चलती थी कोई माँ, जब शिशु को गोद उठाये
रोता हुआ शिशु भी मुस्कराये

फागुन में फगुआ
नाटक,नौटँकी और बिरहा
हुड़का का नाच
अलाव की गर्म आँच

सब कुछ याद आज है
बहुत सुन्दर एहसास हैं

पेड़ के नीचे बैठकर
दुपहरी में सुस्ताना
अंताक्षरी या कोई लोक गीत गाना
रेडियो पर जवानों के लिये कार्यक्रम का इंतज़ार करते करते
बाग में ही सो जाना
फिल्मी सपनों में खो जाना
हीरो जैसा दिखने की चाहत
किसी के पास आने की आहट
कुछ सपने भले ही अजीब होते हैं
क्षण भर के लिये सही ,ख़ुशी देते हैं

खेतों में जाना
धान, गेहूँ, चना ,मटर की बालियों को प्यार से सहलाना
अरहर को अपने गले लगाना
बात बेबात खिलखिलाना
साँपों से मुलाक़ात
दोस्ती के जज़्बात
याद हैं

छुट्टियों में रिश्तेदारियों में जाना
रिश्तों को मजबूत करने के लिये समय निकालना
रफ़्ता रफ़्ता ज़िन्दगी चलती थी
अपनो से गले मिलती थी
असली ज़िन्दगी बचपन में ही पलती थी

अब थोड़ा बड़े हो गये तो क्या हुआ ?
अपने पैरों पर खड़े हो गये तो क्या हुआ ?
अब भी मन मे एक बच्चा ज़िन्दा है
जो उछल कूद लगाता है
अक्सर बचपन में झाँक आता है
कोई किस्सा कहानी बाँच जाता है
डुग डुग करता चाहे बन्दर हो
ढोल बजाता मेढक हो
या नाच दिखाता भालू
जब भी मन मचल जाता है
तो बचपन देख आता है
एक बच्चा मेरे अंदर अक्सर खिलखिलाता है
हौले हौले ज़िन्दगी चलाता है ।

तेज प्रताप नारायण

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2 Comments

  • कविता का अंत बहुत सुंदर
    शानदार

  • बचपन की बात ही अलग थी ,अब कहाँ वो दिन आएंगे

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