शिरोमणि महतो की कविताएँ
शिरोमणि आर. महतो
जन्म तिथि = 29जुलाई 1973
शिक्षा = एम.ए.( प्रथम वर्ष)
महुआ” एवं “पंख पत्रिका का संपादन
【प्रकाशन 】कथादेश, हंस, कादम्बिनी, पाखी, नया ज्ञानोदय वागर्थ, परिकथा, तहलका, समकालीन भारतीय साहित्य , द पब्लिक एजेन्डा, यथावत, सूत्र, सर्वनाम, जनपथ, युद्धरत आम आदमी, शब्दयोग,अक्षर पर्व ,लमही, प्रसंग, नई धारा, पाठ,सूत्र, अनहद, अंतिम जन , कौशिकी, दैनिक जागरण ‘पुनर्नवा’ विशेषांक ,दैनिक हिंदुस्तान , जनसत्ता विशेषांक, छपते छपते विशेषांक,रांची एक्सप्रेस, प्रभात खबर एंव अन्य दर्जनो पत्र-पत्रिकाओ में रचनाएँ प्रकाशित ।
【प्रकाशित पुस्तके 】
■ उपेक्षिता (उपन्यास) 2000
■ कभी अकेले नही (कविता संग्रह) 2007
■ संकेत–3(कवितओं पर केंद्रित पत्रिका)2009
■ भात का भूगोल(कविता संग्रह) 2012
■करमजला ( उपन्यास)2018
■चाँद से पानी( कविता संग्रह) 2018 ।
【 सम्मान 】
डॉ0 रामबली परवाना स्मृति सम्मान । 2010
नागार्जुन स्मृति राष्ट्रीय सम्मान 2015 बिहार
सव्यसाची सम्मान । 2017 इलाहाबाद
परिवर्तन लिटेरचर्स आवार्ड । 2018 नई दिल्ली।
【विशेष 】
कुछ भारतीय भाषाओं में रचनाओं के अनुवाद,
रचना-कर्म पर केन्द्रित इलाहाबाद का साप्ताहिक अखबार शहर समता का विशेषांक ,
टिप्पणी : शिरोमणि महतो की कविताओं में लोक इस क़दर गुथा हुआ है जैसे दाल में भात मिल जाता है और उनका अलग किया जाना असंभव होता है ।उनकी कविताओं का बीज ही लोक की गतिविधियों में है ,लोक से निकला हुआ है जो कृत्रिमता से पूरी तरह मुक्त है।
इनकी कविताओं का भूगोल लोक में सिमटा हुआ है ।जहाँ लोकधर्मिता का सोंधापन महसूस किया जा सकता है चाहे वह कथ्य के स्तर पर हो या शिल्प के ।
【कटोरा में चाँद 】
एक दिन सोचा
बचपन के दिनों को
स्मरण किया जाय
आँगन में बैठकर
कटोरे में पानी भरकर
देखा जाय- चाँद को
कटोरे के पानी में
मुझे दिखा-चाँद
थका-हारा-सा
मंदा-मंदा-सा
क्या पानी हैं गंदा
जो दिखा रहा-चाँद
इतना मंदा-मंदा
मैंने छुआ पानी को
पानी मोटा-मोटा-सा
कैसे गंदला रहा-
धरती का चुऑं?
फिर अचकचा कर देखा-
आसमान की ओर
धरती से अंबर तक
धुऑं-धुऑं-सा
कहाँ से आया
इतना धुआँ
रंधा रहा-
कौन-सा चूल्हा
या खोल रहा-
धरती का कुऑं!
भला कैसे दिखेगा-
सुन्दर-सौम्य-सुहान
कटोरा में चाँद !
【सावन में बसंत 】
इस साल का सावन
सूखा-सूखा-सा नहीं
भीगा-भीगा-सा
इस साल का सावन
सावन शुक्ल सप्तमी को
ताल-पोखर भरे नहीं
खेतों में पानी नहीं
बीहन हरे-भरे,मरे नहीं
खेतों में घास
धूप में मिठास
फूलों में बास
हवा में सुरास
ज्यों सावन में बसंत!
मौसम ने कर दिया
मौसम का विस्थापन
आज तो विस्थापन
घर-घर की कथा है
इस दुनिया की व्यथा हैं!
सावन में बसंत
तो तय है-बंसत में
बंसत का अंत !
【इस साल का सावन 】
एक बार तो पहले भी
मैं लिख चुका हूँ-
इस साल का सावन
बिलकुल सूखा-सूखा
जैसे चैत के दिन
फागुन की रातें
लेकिन इस साल का सावन
उससे भी सूखा-सूखा
जैसे जेठ के दिन
बैसाख की रातें!
सावन की सप्तमी कृष्ण पक्ष में भी
दिन में दमकती धूप चम-चम
रातों को एक बूँद ओंस नहीं!
मानों बंध गये हों मोरनी के पंख
और अकड़ने लगें हैं पाँव
सील गया हो कोकिला का कंठ
गूंज रही-दादुरों की टर्र-टर्र
सूख रहे नदी-नाले
धरती की नसों में
उबल नहीं रहा लोहू!
इस साल अभी तक नहीं सुना
किसी के होंठों से/न किसी बाजे से
‘सावन का महीना पवन करे शोर
जियरा झूमे ऐसे जैसे बनमां नाचे मोर’
जिसमें नायिका समझा रही नायक को
‘श’ और ‘स’ का उच्चारण भेद
खेतों में घास झुलस रही
चीटियां उनकी जड़ें खोद रही हैं
बारियों में उग आये हैं कंटीले पौधे
और बीहन का रंग-बिलकुल पीला-पीला
आज मन तरस रहा रिमझिम में भींगने को
कान तरस रहें-रोपा के गीत सुनने को
पता नहीं कब चुवेगा छत से पानी
और बुझायेगा-जलता हुआ चूल्हा
आज तो गरीब भी चाहता है
कि-पानी चूवे उसके छप्पर से
और बूझे उसका जला हुआ चूल्हा
ताकि बारहों मास जलता रहे
सबके घर का चूल्हा!
【संभ्रम 】
आधी रात तक
खटमल काटते रहे
और हम जागते रहे
आधी रात तक
नींद और खटमल में चलता रहा संघर्ष
ठीक दो बजे के आसपास
हमारा शरीर नींद के शहद में डूबने लगा
खटमल उसमें लटपटाने लगे
और आत्मा दुःस्वनों के दलदल में
और जब सुबह
सूरज कुछ सीढियाँ चढ़ चुका था
मुंडेर पर एक कौवा बोला-‘काँव’
हम अचानक/सिर झटकते उठे
तो ऐसा लगा
जैसे अभी-अभी हमारा जन्म हुआ हो!
【उसका रास्ता 】
उसने कभी कोई
चिड़िया नहीं मारा
लेकिन वह मारता था-
आदमी को चिडिया की तरह
कभी नहीं खिला
उसके कलेजे का फूल
उसकी छाती से
चिपकी नहीं-कोई तितली
कांटो से भरा था उसका रास्ता
लेकिन उसने रौंद डाला
कितने फूलों को
कूचल डाला-
अनगिनत तितलियों को
कांटो से भरा था उसका रास्ता
सरकार ने उसके नाम
रखें थे-लाखों ईनाम
जो उसे पकड़ेगा
जिन्दा या मूर्दा
पायेगा-ढेरों सम्मान
या वह खुद कर दे समर्पण
हो जायेंगे माफ-
उसके सारे गुनाह-अपराध!
उसने खुद किया समपर्ण
हो गये माफ-सारे अपराध
बंद हुए-बही-खाते
हिसाब किताब सवाल जवाब
उसके जीवन मापन का
रास्ता भी खुला साफ
उसने नेकी का रास्ता घरा
धारण किया-कंठी माला
कपार में रोली का टीका
दातों में तुलसी का पता
धर लिया-जनता का संग-साथ
जनता ने मान दिया
बन गया-जनता का सेवक
सता ने साथ दिया-
बन गया-सता का साथी
-सता का सिरमौर !