सावित्री बाई फुले के जन्म दिवस पर
रजनीश संतोष
इंसान जब से तथाकथित ‘सभ्य’ हुआ है तब से पूरी दुनिया में जिन लोगों का सही अर्थों में समाज के लिए कुछ बेहतर योगदान रहा है वे सब के सब बिना किसी अपवाद के सहृदय रहे हैं। चाहे उनका क्षेत्र कोई भी रहा हो। उन्होंने कभी भी नकारात्मक शक्तियों का विरोध उसी भाषा में नहीं दिया या कहें कि कभी भी वे उग्र नहीं हुए हिंसात्मक नहीं हुए (यहाँ हिंसा का अर्थ सिर्फ खून खराबा नहीं है) उन्होंने अपनी ऊर्जा ध्वंसात्मक कामों की बजाय रचनात्मक कामों में लगाना बेहतर समझा होगा।
इस कड़ी में भारतीय समाज में फुले दंपत्ति का योगदान अतुलनीय है। ख़ासकर सावित्रीबाई फुले का। वे जिस घोर अमानवीय समाज के खिलाफ महिलाओं की शिक्षा के लिए लड़ रही थीं उस समाज ने उनके तिरस्कार अपमान में कोई कसर नहीं छोड़ी। यहाँ तक कि जब वो स्कूल पढ़ाने के लिए निकलती थीं तो रास्ते में उनपर कीचड गोबर यहाँ तक कि मानव मल भी फेंका जाता था। यह ब्राह्मणों की करतूत थी,वे ऐसा करने के लिए लोगों उकसाते भी थे और खुद भी करते थे। लेकिन कमाल की बात यह हुई कि सावित्रीबाई ने न तो कभी कोई उग्र विरोध किया और न स्कूल जाना छोड़ा। उन्होंने बेहतर रास्ता निकाला, वो एक साडी अपने बैग में लेकर जाती थीं और स्कूल में साडी बदल लेती थीं। लौटते हुए वापस वही गन्दी साड़ी पहन लेती थीं। अगर वो स्कूल जाना बंद कर देतीं या उनसे उलझतीं तो शायद वह न कर पातीं जो कर पाईं। आज सावित्रीबाई को मानने वाले भी इस बात को नज़रअंदाज़ कर देते हैं और घोर प्रतिक्रियात्मक रवैया अपनाते हैं।
उन्होंने इस समाज की महिलाओं के लिए क्या किया उसकी छोटी सी तस्वीर यह है।
सावित्रीबाई फुले ने 1848-1852 के दौरान मात्र तीन सालों में तमाम सामाजिक विरोधों का सामना करते हुए बिना किसी सरकारी मदद के लड़कियों के लिए 18 स्कूल खोलकर, सामाजिक क्रांति का बिगुल बजा दिया. पूना के भिडेवाडा में 1848 में खुले पहले स्कूल में छह छात्राओं, अन्नपूर्णा जोशी, सुमती मोकाशी, दुर्गा देशमुख, माधवी थत्ते, सोनू पवार और जानी करडिले ने दाखिला लिया. इन छह छात्राओं की कक्षा के बाद सावित्रीबाई घर घर जाकर लड़कियों को पढाने का आह्वान करने लगीं जिसके परिणामस्वरूप पहले स्कूल में ही इतनी छात्राएं हो गई कि एक और अध्यापक विष्णुपंत थत्ते को नियुक्त करना पड़ा जिन्होंने मुफ़्त शिक्षा प्रदान की. सावित्रीबाई फूले ने 1849 में पूना में ही उस्मान शेख के यहॉं मुस्लिम स्त्रियों व बच्चों के लिए प्रौढ़ शिक्षा केन्द्र खोला. 1849 मे ही पूना, सतारा व अहमद नगर जिले में पाठशाला खोली. इस तरह सावित्रीबाई फुले ने एक के बाद एक स्कूलों की लंबी शृंखला तैयार कर दी।
यह सब उन्होंने जिस धैर्य और सहृदयता के साथ किया उसकी कल्पना भी करना आज बहुत मुश्किल है।हम बुराई का हिंसात्मक ध्वंसात्मक विरोध करके खुद को क्रांतिकारी मान लेते हैं और स्वयं यह घोषित कर लेते हैं कि हमने अपने सामाजिक दायित्व की पूर्ति कर ली।
आज इस समाज की बेहतरीन शिक्षिका के जन्म दिन पर उन्हें याद करने के बहाने मैं यह कहने की कोशिश कर रहा हूँ कि अगर ईमानदारी से हमारी नीयत समाज को कुछ बेहतर बनाने की है तो झूठी क्रांति की बातों, ढकोसले के सिद्धांतों और अपने झूठे अहम् की तुष्टि के लिए बनावटी भाषणबाजी के बजाय कुछ रचनात्मक काम करने चाहिए। बहुत छोटे-छोटे क़दम और बहुत छोटे-छोटे काम जो अच्छी नीयत से किये गए हों वो समाज को बेहतर बनाने की तरफ बड़े क़दम होते हैं।
- Rajneesh Santosh
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बहुत सुंदर लेख
सादर