अनिल अविश्रांत की कविताएँ

गृह जनपद–बाराबंकी
शिक्षा-बी.एड, यू जी सी-नेट, पीएच.डी
डॉ अनिल कुमार सिंह अनिल अविश्रांत नाम से रचनात्मक लेखन करते हैं.उन्होंने ’20वीं शताब्दी के हिन्दी उपन्यासों में किसान संघर्ष’ विषय पर पीएच.डी. की है. एक काव्य संग्रह ‘चुप्पी के खिलाफ़’ प्रकाशित है। शिक्षा, साहित्य और सिनेमा विषय में उनकी गहरी अभिरुचि है. उनके कई लेख प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं. आधार पाठक मंच की ओर से वर्ष 2017 का श्रेष्ठ पाठक सम्मान और वर्ष 2019 में साहित्य लोक कौमी एकता सम्मान प्राप्त हो चुका है।

1

दलीलें सच को
झूठ साबित कर देतीं हैं पल भर में
झूठ आता है इतने भरोसे के साथ
कि सच लगने लगता है।

सच और झूठ को अलगा पाना
मुश्किल हो गया है
इन दिनों।

जैसे,
नायक और प्रतिनायक
एक साथ झूले पर झूलते देखे गये हैं
गलबहियाँ डाले गड्डमड्ड हो रही हैं उनकी छवियां
तय करना मुश्किल है
इनका पक्ष।

ठीक वैसे ही
जैसे बिजली की खोज के बाद
मुश्किल है
बता पाना रात और दिन के तापमान का अंतर।

जैसे,
धूपी चश्मा चढ़ा हो आँखों पर
तो मुश्किल हो जाता है
धूप की चमक का अंदाजा लगा पाना।

या,
टी वी स्क्रीन पर चमकते
ग्रे कलर में
ठीक-ठीक बता पाना
स्याह-सफेद का प्रतिशत।

2

‘रेलगाड़ियाँ भटक रही हैं’
यह हमारे युग का नया मुहावरा भर नहीं है
यह इशारा है
हमारे भविष्य का।

मंजिल पर पहुँचने की गारन्टी फिलहाल स्थगित कर दी गई है
कोई चाहे तो चल सकता है पैदल या फिर साईकिल से या तेल ढोने वाले टैंकर में बंद होकर
थोड़ा भाग्यशाली हुआ तो मिल सकती है रेलगाड़ी भी या फिर किसी बस में जगह
लेकिन
जरूरी नहीं कि वह पहुँच ही जायेगा
गाँव, घर, कस्बा।

जाने कैसा वक्त है
पैदल चलने वाले चलते-चलते अचानक तब्दील हो गये
सड़क किनारे किमी बताने वाले पत्थर में
पैडल पर भरपूर ताकत लगाने के बावजूद
साइकिलों ने इंकार कर दिया है आगे बढ़ने से
बसें घने अंधेरे में रोकी जा रही हैं
और रेलगाडियां भटक कर कहीं और पहुँच गयी हैं।

राजधानी सो रही है बेखबर
जबकि आसमान में तुफान आने से पहले की खामोशी है
और धरती भी रह-रह कर कांप उठती है इन दिनों ।

【3】

दिन भर तपने के बाद
सूरज भी ढल ही गया

गल ही गया लोहा
भट्ठी की धधकती आग से

आखिरी रेलगाड़ी गुजर जाने के बाद
थम गया स्टेशन का शोर

बच्चे की हथेली पर रखी बर्फ
पिघल गई मध्दिम-सी आँच में

क्षितिज तक कुलाचें भरते पग
ठिठक गये पल भर धरती की देहरी पर

लहरों के अनथक आघाती आवेगों से
पत्थर का दर्प भी जल में विलीन हुआ।

छोटे-छोटे पांवों ने नाप डाले ओर-छोर
सूरज की लाली में अपना रंग घोल दिया।

【4】

जब कोई कहता है-
नहीं रहा जीवन में कोई मकसद
वक्त काटे नहीं कट रहा है अब
ऊब बढ़ रही है इन दिनों
जीवन में करने को कुछ शेष नहीं रहा।

अलमारी में रखी किताबें ताकती हैं उसकी ओर
जैसे वे पढ़े जाने के इंतजार में हैं
दीवारें खेलना चाहती हैं
ध्वनि-प्रतिध्वनि के खेल
पौधे गुहार लगाकर
दर्ज कराते हैं अपनी प्यास
पर्दे देर तक हिलते हैं
बंद दरवाजे खोले जाने की आतुरता में
चरमराते हैं हल्की आवाज के साथ
खिड़कियाँ पारदर्शी हो जाती हैं थोड़ा और।

जीवन में मकसद कभी खत्म नहीं होते
जीवन को भी खत्म नहीं होना चाहिए असमय।

【5】

न जाने कितनी सीताएं
दौड़ी चली जा रही हैं
कड़ी धूप में
नंगे पांव
अपने-अपने निर्वासित रामों के पीछे
कंधे पर गठरी-कथरी लादे।

लव-कुश गा रहें हैं
अपने जीवन की करुण कथाएं
चुप हैं देवता, ॠषिगण, मंत्री-संत्री
मौन है वाल्मीकि का कंठ
आचार्यगण हो गयें है निर्वाक्।

धरती अब भी फटती है
नदियों में अब भी कभी-कभी उतराते दिख जाते हैं फूले हुए शव
आरोप-प्रत्यारोप के दौर अब चलते हैं
नगर में बहुत कोलाहल है इन दिनों।

【6】

मैं एक सफर में हूँ
जो मेरी भूख से शुरु हुआ है
और ख़त्म होगा मेरी मौत पर।
तुम कभी नहीं समझ पाओगे
कि कौन सी चीज है
जो मुझे चला रही है
क्या भूख
नहीं…नहीं
उसे तो मैं पीछे छोड़ आया हूँ ।
मुझे अब भूख नहीं लगती
प्यास भी नहीं
तुम दर्ज कर लो अपने कागज में
कि इसका पेट भरा है
और मुझे जाने दो।

क्या कहा कोई सपना
वह तो बरसों पहले छीन लिया गया था मुझसे
मैं साफ कर दूं
इसे भी लिख लिया जाये
कि मैं किसी सपने के पीछे नहीं भाग रहा हूँ
मेरी आँखें सूखी नदी हैं
जिनमें सिर्फ रेत-ही-रेत है
और उस पर भी तुम्हारी नजर है
तुम जितनी चाहो निकाल लो मेरी आंखों से रेत
और मुझे जाने दो।

मैं कहाँ जा रहा हूँ
मैं नहीं जानता
कहाँ से आया हूँ
इसे भी भूल गया हूँ
भूख और मौत की कोई जगह नहीं होती
यह हर जगह रहती है उपस्थित
शहर के कमरे में
सड़क के किनारे
मैदान में
या फिर ठीक गाँव के सिवान पर भी
मुझे नहीं मालुम इसका ठीक-ठीक पता
मैं तो बस इतना जानता हूँ
यह हमें पहले बदलती है चिड़ियाँ में
और फिर झपट्टा मारती है बाज की तरह।

मैं भूख और मौत के बीच
जीवन को बचाये उड़ रहा हूँ
और तुम तब्दील हो रहे हो
बाज में।
【7】

  • शब्दों के खोल में
    बजते हैं अर्थ
    सूखे अखरोट की तरह।
  • वे तय नहीं कर पा रहे
    गर्म तारकोल पर चिपके रक्त के निशान
    कैसे धोयें जायें।
  • कुछ घाव
    वक्त भी नहीं भर पाता
    छोड़ जाता है
    अपने पीछे स्थाई रिक्ति।
  • सच्चाइयाँ
    रेंगकर दीवार पर चढ़ जायेगीं
    एक दिन
    और गवाही देंगीं
    उनकी क्रूरता के खिलाफ।
  • रोटियाँ
    हर रोज अब चाँद बनकर उगेगीं
    और याद दिलायेगीं
    जिंदगी इतनी सस्ती तो नहीं है
    कि उन्हें बाँट दिया जाये
    बोटियों में
    बिखरा दिया जाये छितिज पार चारों ओर
    तसल्लीबख्श तरीके से
    गोया यह भी कोई रोजगार हो
    तरक्की का।

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