अरविंद यादव की कविताएँ

परिचय:

जन्मतिथि- 25/06/1981
शिक्षा- एम.ए. (हिन्दी), नेट , पीएच-डी.
प्रकाशन – समाधान खण्डकाव्य
वागर्थ,पाखी, समहुत, कथाक्रम, छत्तीसगढ़ मित्र,अक्षरा, विभोम स्वर ,सोचविचार, बहुमत, पुरवाई, सेतु ,स्रवंति,समकालीन अभिव्यक्ति, किस्सा कोताह, तीसरा पक्ष, ककसाड़, प्राची, दलित साहित्य वार्षिकी, डिप्रेस्ड एक्सप्रेस, विचार वीथी, लोकतंत्र का दर्द, शब्द सरिता,निभा, मानस चेतना, अभिव्यक्ति, ग्रेस इंडिया टाइम्स, विजय दर्पण टाइम्स आदि पत्र- पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित
सम्मान- कन्नौज की अभिव्यंजना साहित्यिक संस्था से सम्मानित
अखिल भारतीय साहित्य परिषद् द्वारा सम्मानित
सम्प्रति- असिस्टेंट प्रोफेसर – हिन्दी,
जे.एस. विश्वविद्यालय शिकोहाबाद ( फिरोजाबाद), उ. प्र.।
पता- मोहनपुर, लरखौर, जिला – इटावा (उ.प्र.)
पिन – 206130
मोबा.-9410427215
ईमेल-arvindyadav25681@gmail.com

【फूला हुआ कांस 】

पानी में डुबकी लगाती सड़कें और गलियां
जिन्हें बचाने के लिए
दौड़-दौड़कर पानी उलीचतीं गाड़ियां
कह रहीं हैं कहानी
आसमान से टूटती,उस आफ़त की
जिसने गांव व छोटे शहरों को ही नहीं
महानगरों व राजधानियों को भी
समेट लिया है अपने आगोश में

मदमाती नदियां और नाले
आतुर हैं समेटने को अपनी बांहों में
धरती की वह हरियाली
धरती का वह जीवन
जिसके बिना धरती को आप कह सकते हैं
सूर के कृष्ण का एक खिलौना
या अपनी सुविधानुसार सप्ताह का एक दिन

वह जिसके स्नेह की बौछार से
मयूर की मानिंद नाच उठता था धरती का मन
लहरा उठता था सतरंगी आंचल
अनायास जिसकी देह पर

आज उसी के ताण्डव से गिर रहे हैं औंधे मुंह
सीना ताने खड़े पेड़
उपलों की तरह बह रहे हैं धीरे धीरे
सिर से उतर,अरमानों के छप्पर
इतना ही नहीं बह रही है धीरे धीरे
संघर्षों में अडिग रखने वाली,अन्तर की वह पूंजी

पानी के अनवरत प्रहार से
सूजने लगी है दरवाजों और चौखटों की देह
जिसने कर दिया हैमुश्किल
उनका इधर-उधर चलना
अपने अभिमान में सीना ताने खड़ी
स्व धैर्य की डींग हांकने वाली
घरों की दीवारें और छतें
आज स्वयं को असहाय पाकर
हो रहीं हैं शर्म से पानी-पानी

पेट की आग और जिंदगी बचाने की जद्दोजहद में
कोहराम मचाते खूंटे
जान बचाकर पेड़ों की गोद में छिपने को
दौड़ते बन्दर और गिलहरियां
जिन्हें पत्थर होती संवेदनाएं देख रहीं हैं
उल्टे खड़े घरों से

बेबशी का आलम यह है कि
वह चूल्हा,वह आग
जिनसे रोज सुबह-शाम
होती थी एक दूसरे की मुलाकात
ने भी नहीं देखा है एक दूसरे का मुंह
न जाने कितने दिनों से

इतना ही नहीं छप्पर के नीचे सिसकती वह चक्की
जिसे नहीं करने पड़े थे कभी फांके
आज अन्नाभाव की वजह
न जाने कितने दिनों से
दौड़ रहे हैं चूहे उसके भी पेट में

इस भयावह समय में
जब कि डूब रही हैं अनवरत,संवेदनाएं
डूब रहीं हैं अनवरत,अनन्त आशाएं
डूब रहे हैं अनवरत,भविष्य के सुनहरे स्वपन
और जीवन की जिजीविषा
इन सब के बीच कितना कुछ कह गया,अनकहे
गले तक डूबा, फूला हुआ कांस

【 इस हत्यारे समय में 】

उन्हें आता देख भाग खड़ी होती हैं सड़कें
भाग खड़े होते हैं वह चौराहे
जहां रहते हैं मुश्तैद कानून के लम्बे हाथ

उन्हें आता देख गिरने लगते हैं औंधे मुंह
एकाएक,घबराकर
सीना ताने खड़े शटर

दौड़ पड़तीं हैं नंगे पांव
चबूतरे पर बैठीं गलियां
होकर सीढ़ियों की पीठ पर सवार
छिपने को छत की गोद में

वे जब बोलते हैं
तो बन्द हो जाते हैं बोलना
लोहार के हथौड़े
बन्द हो जाते हैं चिल्लाना
सब्जियों और फलों के ठेले
इतना ही नहीं बन्द हो जाता है धड़कना
अचानक धड़कते शहर का हृदय

वे घूमते हैं छुट्टे सांड़ की तरह
एक गली से दूसरी गली
करते हुए,सरेआम नुमाइश अस्त्रों की
ताकि जन्म से ही पहले कुचल सकें
उन संभावनाओं को
जिनसे पैदा हो सकता है प्रतिरोध
खोलकर किसी घर का दरवाजा

उनके आने से
धीरे-धीरे लाल होने लगती है धरती
धीरे-धीरे आग में नहाने लगते हैं घर
धीरे-धीरे घबराकर कूदने लगते हैं खिड़कियों से
बसों और कारों के शीशे
और धीरे-धीरे थमने लगतीं हैं दौड़ती हुई सांसें
तड़प-तड़प कर

वे दे जाते हैं न जाने कितने जख्म
वे फैला जाते हैं न जाने कितनी नफरत
जिसे भरने के लिए सूरज
न जाने कितनी बार
फैलाता है अपने हाथ
धरती न जाने कितनी बार
काटती है चक्कर
बादल न जाने कितनी बार
बरसते हैं झमझमाकर
और न जाने कितनी बार,
थक हार ,खूटियों से लटक
आत्म हत्या कर लेते हैं कलैण्डर

ठीक उसी समय जब सारा शहर मना रहा था मातम
कराह रहीं थीं शहर की गलियां और सड़कें
वे मना रहे थे जश्न
आलीशान होटल के कमरे में
मेज पर खड़ी बोतल को घेर
टकराते हुए जाम

वे उड़ा रहे थे बेखौफ
कस के साथ धुएं के छल्ले
अंगुलियों के बीच मुट्ठी में फंसी खाकी और खादी को
करते हुए अस्तित्वहीन

अब जब कि इस हत्यारे समय में
कितना मुश्किल है बच पाना
उन हत्यारी नजरों से
जिनके सामने नतमस्तक हैं सिंहासन

ऐसे भयावह समय में भी
कविता कर रही है जद्दोजहद
बचाने को यह सुन्दर संसार
इन हत्यारी नजरों से ।

【बाजरा के खेत को देखते हुए 】

मेंड़ पर खड़ा धरती का विष्णु
जब देखता है मां की गोद में
किलकारी भरते शिशु की मानिंद
पवन के साथ अठखेलियां करते
लहलहाते पेड़ों को

देखता है नव वधू के समान
पत्तों के घूंघट से
झांकती बालियों को

तो झांक उठते हैं अनायास
भविष्य के न जाने कितने सपने
मन के कोने से ।

【सब मांग रहे हैं अपना-अपना हक】

स्नेह के रंग में रंगा वह घर वह आंगन
जहां खिले रहते थे अनगिनत फूल
जिनकी खुशबू से घर ही नहीं
महक उठता था सारा गांव
जो तेज हवाओं में भी
मिलते रहते थे एक दूसरे के गले

जब से उस आंगन में दूर-दूर से उड़
आ गईं हैं रंग बिरंगी तितलियां

तब से बाबा तुलसी की यह पंक्ति
“सुत मानहिं मात-पिता तबलौं ,अबलानन दीख नहीं जबलौं “
होने लगी है चरितार्थ अक्षरश:
उस आंगन में

इसी कारण शायद
अब नहीं रहना चाहते हैं एक साथ
रसोई के बरतन और नींद के बिस्तर
दरवाजों ने तो जैसे कसम ही खा ली है
एक दूसरे का मुंह न देखने की

अब नहीं सुनाई देती है आंगन में
एक साथ बैठ कुर्सियों के हंसने की आवाजें
अब नहीं दिखाई देती हैं अलाव के पास
सुलगती बीड़ियां करते हुए सलाह
कि कैसे लानी है कल के सूरज से अंजुली भर आग
जिससे नहला सकूं आंगन का उदास चूल्हा

वे आतुर हैं कब्जाने को वह घर
घर के कमरे और वह आंगन
जिसकी मिट्टी में खेल
उठते-गिरते जवां हुईं थीं
बचपन की लड़खड़ाती आदतें

वे जता रहे हैं अपना-अपना अधिकार
उस धरती पर
जो नहीं रखी जाती किसी की छाती पर
सिर्फ उतनी को छोड़ जितनी ओढ़ता है कोई

दरवाजे पर खड़ा वह नीम
जिसने झुलाया था जिनको अपनी बांहों पर
न जाने कितने सावन
आज स्वाधिकार में देख
समेटना चाहते हैं उसका स्नेह
सिर्फ अपनी सीमा में
भूलकर उसके क्षत-विक्षत होते शरीर की पीड़ा

उनके एकाधिकार की बानगी झलकती है साफ
“पानी गए न ऊबरै”कहने वाले रहीम के उस पानी पर
जिसे वह नहीं करना चाहते हैं साझा
एक दूसरे के साथ
यह भूलकर कि अब नहीं बचा है उनकी आंखों में
थोड़ा सा भी पानी

इतना ही नहीं
सब दौड़-दौड़ कर लगा रहे हैं गले
द्वार पर रखे हल से लेकर,डिब्बे में रखी सुई तक को
जिनके संग्रह में नहीं था कोई योगदान
उनके होने का

पर हैरत की बात तो यह है
कि कोई नहीं जता रहा है हक
चौखट का सहारा लिए
माथा पीटती उन धुंधली नजरों पर
उन निशब्द लरजते होंठों पर
हक के साथ जिनके हक से
सब मांग रहे हैं अपना-अपना हक़ ।

कविता

वह कविता जाे
रहती थी कभी गले का हार
जिससे निकलती थी गन्ध
आेज,माधुर्य और प्रसाद की
वह कविता जिसे सुनकर
दाैड़ पड़ती थीं म्यान से तलवारें
चीरने काे शत्रु का वक्ष
उतर आती थी ख्वाबाें की अप्सरा
कल्पना के आकाश से
हाे जाते थे मूर्छित महाप्रभु चैतन्य
हाेकर आत्मविभाेर
झलकने लगते थे सावन-भादाें
विरहणी की आँखों से
आज उस हृदय की रानी काे
कर लिया है कैद
मुठ्ठी भर आक्रान्ताओं ने
बुद्धि के दुर्ग में
जहाँ कर ली गई है हरण
उसकी सुन्दरता, सुकुमारता व सरसता
और पहना दिए हैं उसे
नवीन बिम्बाें के बेरंग वस्त्र
जिनने छीन ली है उसकी सुन्दरता
नव प्रतीकाें की हथकड़ियाें और बेड़ियाें ने
छीन ली है उसकी सुकुमारता
विचाराे की जटिलता में
विलुप्त हाे गई है उसकी सरसता
अतिशय विद्वता की वन्दिशाें ने
बना दिया है उसे
एक पत्थर
जिससे नहीं फूटती
काेई जलधार
जाे कर सके हरा-भरा
मरुस्थल काे ।

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