आरती चिराग़ की कविताएँ

17 अप्रैल ,1986 को मल्लावां, हरदोई (उ.प्र.) में जन्मी कवयित्री आरती चिराग़ की प्रारंभिक शिक्षा हरदोई में ही हुई ।हिंदी साहित्य और समाज शास्त्र से MA हैं , बी एड और लॉ भी कर चुकी हैं ।

लेखन का प्रारम्भ कविताओं से। कुछ कविताएं विभिन्न साहित्यिक पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं ।छात्र राजनीति में भी सक्रिय भूमिका निभाई हैं ।
जन-आंदोलनों तथा जनोन्मुखी राजनीति में गहरी दिलचस्पी।

[ जंगल राज ]

सावधान !

जंगल राज आ गया है।

अब संवेदनाओं को कुचला जाएगा
मां की गोद से उनके बच्चे छीन लिए जाएंगे

सड़क पर लड़कियों को छेड़ा जाएगा
बलात्कार की घटनाएं और तेजी से बढ़ेंगी

किसान आत्महत्याएं करेंगे
नौजवान बेरोजगारी में फांसी पर झूलेंगे

लेखक, बुद्धिजीवी, पत्रकार
इन सब को गोलियों से भूना जाएगा

ख़बरदार !
किसी ने मन की बात बोली तो,
एक दिन राजा मन की बात बोलेगा

भाइयों और बहनों
पिछले 70 सालों में, जो किसी ने नहीं
वो हम कर दिखाएंगे।

[ घर]

जहाँ मैं पैदा हुई
वो पिता का घर था।

जहाँ भेजी गई
वो पति का।

और जहाँ हूं
वो बेटे का है।

अब तुम ही बताओ
मेरा घर कहाँ है ?

[ हम बोलेंगे ]

हम बोलेंगे,
उतना ही नहीं
जितना तुम कहो

हम बोलेंगे
सदियों से चली आ रही
तुम्हारी सत्ता के ख़िलाफ़।

हम बोलेंगे
तो बोलोगे
कि ये स्त्रियां
मर्यादाहीन,और अराजक हैं।

हम बोलेंगे
तो कही जाएंगी
चरित्रहीन !
क्योंकि हमारा भेड़ बनकर चलना ही
बेहतर है तुम्हारे लिए।

हम बोलेंगे
तो तुम बोलोगे
कि किसी भी काल में बोलती हुई
स्त्रियां अच्छी नहीं लगती।
वो सिर्फ अच्छी लगती हैं तुम्हें
चार दिवारी में बंद किसी बिस्तर पर !

हम बोलेंगे
तो बोलने के कारण भी होंगे।
क्योंकि हमारा न बोलना ही
तुम्हारा हथियार है।

हम बोलेंगे
कि सदियों से इस बंद चुप्पी को तोड़ना है हमें
क्योंकि चुप्पी का टूटना ही हमारी जीत
और तुम्हारी हार है।

[ मेरे भाई देखो वापस न आना]

चलो कहीं और ढूंढ़ें ठिकाना
मेरे भाई देखो वापस न आना
ये ऊंची है बिल्डिंग, ये ऊंची दीवारी
जहां में ये फैली है कैसी बीमारी
ये दिल के हैं छोटे, ये बीमार मोटे
नहीं कुछ भी देगें, ये दिल के हैं खोटे
तुम्हें न मिलेगा अब कोई ठिकाना
चलो मेरे भाई वापस न आना
धोये तुमने कपड़े, स्त्री भी तो की है
उतर गंदे नाले में जानें भी दी हैं
भरा तुमने पेटों को पानी पिलाया
भूले-भटके राही को, रास्ता दिखाया
उन्हें चलने-फिरने को पुल हैं बनाए
तुम्हें देखो साहेब, समझ ही न पाए
चलो गाँव में सूखी रोटी ही खाना
मेरे भाई देखो वापस न आना
दिन रात जलते रहे भट्ठियों में
ख़ुशहाल हैं लिखते हैं चिट्ठियों में
कई हाथ टूटे, कई सिर हैं फूटे
कई दब के मर ही गए पुल के नीचे
कभी न मिलेगा तुम्हें हर्जाना
मेरे भाई देखो वापस न आना
कल-कारखानों को तुमने चलाया
निकलते धुँए को तुम्हीं ने है खाया
तुम्हीं ने है रेलों की पटरी बिछाई
लानत है साहेब ने रेल न चलाई
निर्मम है साहेब, ये कैसा कसाई
करूँ मैं इन साहेब की कैसे बढ़ाई
तुम्हें न मिलेगा यहाँ आबोदाना
चलो मेरे भाई वापस न आना
ढोये तुमने सामान, पीठ है झुकाई
नहीं अब हैं पैसे, न कोई कमाई
चलो गाँव चलते हैं, रोती है माई
चलो गठरी बाँधे,चलते है भाई
मिलेगा नहीं तुमको कोई ठिकाना
मेरे भाई देखो वापस न आना।

[ ओ मजदूर भाई ! ]

ओ मजदूर भाई !
तुमने ये हिम्मत कहां से पाई
तुमने स्वीकार किया
बैल बनना
क्योंकि मंजिल तक पहुंचना था तुम्हें
तुमने खुद को घसीटते हुए
घसीट ली सारी जिम्मेदारी
ओ मजदूर भाई !
तुमने ये हिम्मत कहां से पाई
तुमने तय किया
कि लौटना है परिवार के साथ
तुमने गाड़ी बनाई
जो है तुम्हारे साथ और जो आने की जुगत में है
उनकी चिंता है खाई
ओ मजदूर भाई !
तुमने ये हिम्मत कहां से पाई
तुमने तय किया
कि जिसकी वजह से आए हैं दुनिया में
उसे कैसे छोड़ दूं भाई
तुमने 70 साल की मां गोदी में उठाई
ओ मजदूर भाई !
तुमने ये हिम्मत कहां से पाई
तुमने साईकिल उठाई
दो बच्चों और उनकी ली माई
एक पैर से साइकिल कैसे चलाई
ओ मजदूर भाई !
तुमने ये हिम्मत कहां से पाई
भले ही बेसहारा छोड़ दिया सरकार ने तुम्हें
तुमने तो जानवरों को भी नहीं छोड़ा भाई
तुमने ये इंसानियत कहां से पाई
ओ मजदूर भाई !
तुमने ये हिम्मत कहां से पाई
तुम अडिग थे
अपने सफ़र पर
तुमने ठोकरें खाई
बिसलरी की
बोतल की चप्पल बनाई
तुमने हर समय कारीगरी दिखाई
ओ मजदूर भाई !
तुमने ये हिम्मत कहां से पाई।

                  
    

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